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जैन साधना में प्रणव का स्थान
भारतीय संस्कृति मूलतः दो धाराओं में प्रवाहमान रही है। जिन्हें के अङ्ग बन गए। जैसे ही जनसाधारण की तान्त्रिक साधनाओं में आस्था हम क्रमश: वैदिक और श्रमण धाराओं के नाम से जानते हैं। इन बढ़ी, वैसे ही जैन परम्परा में भी हिन्दू तंत्र-साधना-विधि के न केवल दोनों संस्कृतियों की अपनी-अपनी विशिष्टताएँ हैं। किन्तु यहाँ हम कर्मकाण्ड सम्मिलित किये गए, अपितु उनके पूजा, मन्त्र आदि भी उनकी इन विशिष्टताओं की चर्चा में न जाकर मात्र यह देखने का यथावत् अथवा किंचित् परिवर्तन के साथ स्वीकार कर लिए गए। बस प्रयत्न करेंगे कि सामान्य रूप से श्रमण संस्कृति में और विशेष रूप इसी स्वीकृति के साथ ॐ शब्द भी जैन परम्परा में प्रविष्ट हो गया। से जैन संस्कृति में प्रणव अर्थात् 'ॐ' का क्या स्थान रहा है। वैदिक न केवल ॐ शब्द अपितु उसके साथ-साथ हाँ, ह्रीं, हूँ, हैं, हूँ: आदि परम्परा में प्रत्येक साधना और धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन ॐ बीज मन्त्र भी जैन साधना और पूजा के अङ्ग बन गए। इसके पश्चात् से ही होता है। वैदिक परम्परा के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों में 'ॐ' शब्द ॐ शब्द को क्रमश: उच्च-उच्च स्थान प्राप्त होने लगा और एक समय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों का प्रारम्भ भी ॐ ऐसा आया जब इसे पञ्च-परमेष्ठी, जो जैन साधना और उपासना के से हुआ है। किन्तु जहाँ तक श्रमण परम्परा का प्रश्न है, उसकी दोनों आदर्श हैं, के समकक्ष मान लिया गया। पञ्च-परमेष्ठी के जप आदि शाखाओं जैन और बौद्ध के प्राचीनतम ग्रन्थों में हमें ॐ शब्द का के लिए जो संक्षिप्त मन्त्र बना वह 'असियाउसाय नमः' था। इस मन्त्र उल्लेख उनकी अपनी परम्परा के शब्द के रूप में नहीं मिला है। उनकी को भी आगे संक्षिप्त करते हुए यह कहा गया कि ॐ शब्द मूलत: परम्परा का शब्द है- अर्हम्। उनके किसी भी धार्मिक कार्य का प्रारम्भ पञ्च-परमेष्ठियों के प्रथमाक्षरों से ही निर्मित हुआ है। इस सम्बन्ध में अर्हन्तों के नमस्कार से ही होता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि द्रव्यसंग्रह की टीका में एक प्राचीन प्राकृत उद्धृत की गई है। वह जिस प्रकार वैदिक परम्परा में ॐ की प्रधानता रही है, वैसे ही जैन गाथा इस प्रकार है
और बौद्ध परम्पराओं में 'अर्हन् या अहम् शब्द की प्रधानता रही है। अरिहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झया मुणिणा । जैन परम्परा में ॐ के पर्यायवाची 'ओंकार' शब्द का उल्लेख पढ़मक्खरणिप्पणो ओकारो पञ्च परमेट्ठी ।। उत्तराध्ययनसूत्र में मिलता है
अर्थात् अरिहंत का अ, अशरीरी सिद्ध का अ, आचार्य का आ, न वि मुण्डिएण समणो, ण ओङ्कारेण बम्भणो ।
उपाध्याय का उ, और मुनि का म मिलकर ही ॐ शब्द का निर्माण न मुणि रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ।। होता है। अत: ॐ शब्द का जप करने से पञ्च-परमेष्ठियों का जप
उपरोक्त गाथा में मात्र यह कहा गया है कि ओङ्कार शब्द का सम्पन्न होता है। यहाँ ॐ शब्द को पञ्च परमेष्ठियों का वाचक बताने जाप करने से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र के इस के लिए जो उपक्रम किया गया है उससे यही सिद्ध होता है कि परवर्ती कथन का फलित भी यही है कि ॐ या ओंकार शब्द मूलत: ब्राह्मण काल में जैन साधना को वैदिक साधना-पद्धति के साथ जोड़ने के लिए परम्परा का शब्द है। श्रमण धारा का मूल शब्द तो अहम् ही है। ही ॐ शब्द की इस प्रकार की व्याख्या की गई है। इससे यह फलित
किन्तु यहाँ यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि भारतीय संस्कृति होता है कि चाहे मूलतः ॐ शब्द वैदिकधारा का शब्द रहा हो, किन्तु की ये दो धाराएँ एक दूसरे से अप्रभावित नहीं रही हैं। जहाँ एक जैनों ने न केवल उसे स्वीकार किया, अपितु उसे पञ्च-परमेष्ठी का ओर श्रमणधारा के अध्यात्मप्रधान निवृत्तिमार्गीय चिन्तन से वैदिक धारा प्रतीक मानकर उसके महत्त्व में वृद्धि की। प्रभावित हुई है वहीं दूसरी ओर वैदिकधारा और उससे विकसित ब्राह्मण ॐ को पञ्च-परमेष्ठी का प्रतीक उसी आधार पर बताया जाता परम्परा के अनेक कर्मकाण्ड सामान्य रूप से श्रमणधारा और विशेष है, जिस आधार पर ब्राह्मण परम्परा में उसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर रूप से जैनधारा में समाविष्ट हुए हैं। यदि कहें तो यह सत्य है कि ऐसे ईश्वर के त्रयात्मक स्वरूप का वाचक कहा गया है। इस सम्बन्ध औपनिषदिक काल से ही वैदिकधारा पर श्रमणधारा प्रभावी होने लगी में निम्न श्लोक द्रष्टव्य हैं - थी। स्वयं औपनिषदिक चिन्तन श्रमणधारा से प्रभावित चिन्तन है। अश्च उश्च मश्च तेषां समाहारः। किन्तु दूसरी ओर यह भी सत्य है कि लगभग ईसा की ४थी-५वीं विष्णु महेश्वर ब्रह्मरूप त्रयात्मके ईश्वरे। शताब्दी से ही ब्राह्मण परम्परा और उससे विकसित हिन्दू धर्म के ब्रह्मोकारोऽत्र विज्ञेयः अकारो विष्णुरुच्यते। कर्मकाण्ड ने जैनधारा को प्रभावित किया था। बृहद् हिन्दू-धारा के महेश्वरो मकारस्तु त्रयमेकत्र तत्त्वतः। अनेक तत्त्व जैन परम्परा में प्रविष्ट हुए हैं। न केवल अनेक हिन्दू प्रस्तुत श्लोक में ॐ शब्द में निहित 'ओ' को ब्रह्मा का. 'अ' देवी-देवता, तीर्थङ्करों के यक्ष-यक्षी के रूप में गृहीत हुए, अपितु उनके को विष्णु का और 'म्' को महेश्वर का वाचक मानकर उसे इन तीनों ग्रहण के साथ-साथ हिन्दू परम्परा की पूजा-पद्धति और कर्मकाण्ड देवताओं की एकात्मकता का प्रतीक सिद्ध किया गया है। वस्तुत: यही तथा उनसे सम्बन्धित अनेक मन्त्र भी जैन पूजा-पद्धति और साधना स्थिति जैनाचार्यों की भी रही है। उन्होंने भी अपने आराध्य पञ्च-परमेष्ठियों
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