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जैन धर्म में पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठान
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विकास हुआ। आज भी प्रतिक्रमण षडावश्यकों के साथ किया जाता है। पांचवीं शती के लगभग का माना जाता है। क्योंकि तब से जैनाचार्यों के श्वेताम्बर परम्परा के आवश्यकसूत्र एवं दिगम्बर और यापनीय परम्परा के लिए 'क्षमाश्रमण' पद का प्रयोग होने लगा था। गुरुवंदन पाठों से ही मलाचार में इन षडावश्यकों के उल्लेख हैं। ये षडावश्यक कर्म हैं- चैत्यों का निर्माण होने पर चैत्यवंदन का विकास हुआ और चैत्यवंदन सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, गुरुवंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग (ध्यान) की विधि को लेकर अनेक स्वतंत्र ग्रंथ भी लिखे गये है।
और प्रत्याख्यान। यद्यपि प्रारम्भ में इन षडावश्यकों का सम्बन्ध मुनि जिनपूजा-विधि का विकास जीवन से ही था, किन्तु आगे चलकर उनको गृहस्थ उपासकों के लिए इसी स्तवन एवं वंदन की प्रक्रिया का विकसित रूप जिनभी आवश्यक माना गया। आवश्यकनियुक्ति५ में वंदन कायोत्सर्ग आदि पूजा में उपलब्ध होता है, जो कि जैन अनुष्ठान का महत्त्वपूर्ण एवं की विधि एवं दोषों की जो चर्चा है, उससे इतना अवश्य फलित होता अपेक्षाकृत प्राचीन अंग है। वस्तुत: वैदिक यज्ञ-यागपरक कर्मकाण्ड है कि क्रमश: इन दैनन्दिन क्रियाओं को भी अनुष्ठानपरक बनाया गया की विरोधी जनजातियों एवं भक्तिमार्गी परम्पराओं में धार्मिक अनुष्ठान था। आज भी एक रूढ़ क्रिया के रूप में ही षडावश्यकों को सम्पन्न किया के रूप में पूजा-विधि का विकास हुआ था और श्रमण परम्परा में जाता है।
तपस्या और ध्यान का। यक्षपूजा के प्राचीनतम उल्लेख जैनागमों में जहाँ तक गृहस्थ उपासकों के धार्मिक कृत्यों या अनुष्ठानों उपलब्ध हैं। फिर इसी भक्तिमार्गीधारा का प्रभाव जैन और बौद्ध धर्मों का प्रश्न है, हमें उनके सम्बन्ध में भी ध्यान एवं उपोषथ या प्रौषध पर भी पड़ा और उनमें तप, संयम एवं ध्यान के साथ जिन एवं बुद्ध विधि के ही प्राचीन उल्लेख उपलब्ध होते हैं। उपासकदशासूत्र में की पूजा की भावना विकसित हुई। परिणामत: सर्वप्रथम स्तूप, चैत्यशकडालपुत्र एवं कुण्डकौलिक के द्वारा मध्याह्न में अशोकवन में वृक्ष आदि के रूप में प्रतीक पूजा प्रारम्भ हुई, फिर सिद्धायतन शिलापट्ट पर बैठकर उत्तरीय वस्त्र एवं आभूषण उतारकर महावीर की (जिनमन्दिर) आदि बने और बुद्ध एवं जिन-प्रतिमाओं की पूजा होने धर्मप्रज्ञप्ति की साधना अर्थात् सामायिक एवं ध्यान करने का उल्लेख लगी। फलत: जिन-पूजा एवं दान को गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य माना है। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य से यह ज्ञात होता है कि निग्रंथ श्रमण गया। दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के लिए प्राचीन षडावश्यकों के अपने उपासकों को ममत्वभाव का विसर्जनकर कुछ समय के लिए स्थान पर निम्न षट् दैनिक कृत्यों की कल्पना की गयी-जिन-पूजा, समभाव एवं ध्यान की साधना करवाते थे। इसी प्रकार भगवतीसूत्र में गुरु सेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान। भोजनोपरान्त अथवा निराहार रहकर श्रावकों के द्वारा प्रौषध करने के हमें आचारांगसूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, भगवतीसूत्र, उल्लेख मिलते हैं। त्रिपिटक में बौद्धों ने निग्रंथों के उपोषथ की आदि प्राचीन आगमों में जिन-पूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं
आलोचना भी की है। इससे यह बात पुष्ट होती है कि सामायिक, मिलता है। अपेक्षाकृत परवर्ती आगमों-स्थानांग आदि में जिन-प्रतिमा एवं प्रतिक्रमण एवं प्रौषध की परम्परा महावीरकालीन तो है ही। जिनमन्दिर (सिद्धायतन) के उल्लेख तो हैं, किन्तु उनमें भी पूजा
सूत्रकृतांगसूत्र में महावीर की जो स्तुति उपलब्ध होती है, वह सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। जबकि 'राजप्रश्नीयसूत्र' में सम्भवत: जैन परम्परा में तीर्थंकरों के स्तवन का प्राचीनतम रूप है। सूर्याभदेव और ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी के द्वारा जिन-प्रतिमाओं के पूजन उसके बाद कल्पसूत्र, भगवतीसूत्र एवं राजप्रश्नीयसूत्र में हमें वीरासन के के उल्लेख हैं। राजप्रश्नीय के वे अंश जिसमें सूर्याभदेव के द्वारा जिनशक्रस्तव (नमोत्थुणं) का पाठ करने का उल्लेख प्राप्त होता है। दिगम्बर प्रतिमा-पूजन एवं जिन के समक्ष नृत्य, नाटक, गान आदि के जो परम्परा में आज वंदन के अवसर पर जो 'नमोऽस्तु' कहने की परम्परा उल्लेख हैं, वे ज्ञाताधर्मकथा से परवर्ती हैं और गुप्तकाल के पूर्व के नहीं है वह इसी 'नमोत्थुणं' का संस्कृत रूप है। दुर्भाग्य से दिगम्बर परम्परा हैं। चाहे 'राजप्रश्नीयसूत्र' का प्रसेनजित-सम्बन्धी कथा पुरानी हो, किन्तु में यह प्राकृत का सम्पूर्ण पाठ सुरक्षित नहीं रह सका। चतुर्विंशतिस्तव सूर्याभदेव सम्बन्धी कथा प्रसंग में जिनमन्दिर के पूर्णत: विकसित स्थापत्य का एक रूप आवश्यकसूत्र में उपलब्ध है, इसे 'लोगस्स' का पाठ भी के जो संकेत हैं, वे उसे गुप्तकाल से पूर्व का सिद्ध नहीं करते हैं। फिर कहते हैं। यह पाठ कुछ परिवर्तन के साथ दिगम्बर परम्परा के ग्रंथ भी यह सत्य है कि जिन-पूजा-विधि का इससे विकसित एवं प्राचीन तिलोयपण्णत्ति में भी उपलब्ध है। तीन आवों के द्वारा 'तिक्खुत्तो' के उल्लेख श्वे० परम्परा के आगम साहित्य में अन्यत्र नहीं है। पाठ से तीर्थंकर गुरु एवं मुनि-वंदन की प्रक्रिया भी प्राचीनकाल में दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द ने भी रयणसार में दान प्रचलित रही है। अनेक आगमों में तत्सम्बन्धी उल्लेख हैं। श्वेताम्बर और पूजा को गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य माना है, वे लिखते हैंपरम्परा में प्रचलित 'तिखुत्तो' के पाठ का भी एक परिवर्तित रूप हमें दाणं पूजा मुक्ख सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। षट्खण्डागम के कर्म अनुयोगद्वार के २८वें सूत्र में मिलता है। तुलनात्मक झाणज्झयणं मुक्ख जइ धम्मे ण तं विणा सो वि॥६ अध्ययन के लिए दोनों पाठ विचारणीय हैं। गुरुवंदन के लिए 'खमासमना' अर्थात् गृहस्थ के कर्तव्यों में दान और पूजा मुख्य और यति/ के पाठ की प्रक्रिया उसकी अपेक्षा परवर्ती है। यद्यपि यह पाठ आवश्यकसूत्र श्रमण के कर्तव्यों में ध्यान और स्वाध्याय मुख्य हैं। इस प्रकार उसमें भी जैसे अपेक्षाकृत प्राचीन आगम में मिलता है, फिर भी इसमें प्रयुक्त पूजा सम्बन्धी अनुष्ठानों को गृहस्थ के कर्तव्य के रूप में प्रधानता मिली। क्षमाश्रमण या क्षपकश्रमण (खमासमणो) शब्द के आधार पर इसे चौथी, परिणामत: गृहस्थों के लिए अहिंसादि अणुव्रतों का पालन उतना महत्त्वपूर्ण
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