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जैन धर्म में पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठान
४९१ वर्णन इस प्रकार है।- “सूर्याभदेव ने व्यवसाय सभा में रखे हुए पुस्तकरत्न
पञ्चोपचार पूजा में गंध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य- ये पांच को अपने हाथ में लिया, हाथ में लेकर उसे खोला, खोलकर उसे पढ़ा वस्तुएं देवता को समर्पित की जाती हैं। दशोपचार पूजा पादप्रक्षालन, और पढ़कर धार्मिक क्रिया करने का निश्चय किया, निश्चय करके पुस्तकरत्न अर्यसमर्पण, आचमन, मधुपर्क, जल, गंध, पुष्प, धूप, दीप और को वापस रखा, रखकर सिंहासन से उठा और नन्दा नामक पुष्करिणी नैवेद्यसमर्पण इन दस प्रक्रियाओं द्वारा पूजा-विधि सम्पन्न की जाती है। पर आया। नन्दा पुष्करिणी में प्रविष्ट होकर उसने अपने हाथ-पैरों का इसी प्रकार षोडशोपचार पूजा में १. आह्वान, २. आसन-प्रदान ३, प्रक्षालन किया तथा आचमन कर पूर्णरूप से स्वच्छ और शुचिभूत होकर स्वागत, ४. पाद-प्रक्षालन, ५. आचमन, ६. अर्ध्य, ७. मधुपर्क, ८. स्वच्छ श्वेत जल से भरी हुई श्रृंगार (झारी) तथा उस पुष्करिणी में उत्पन्न जल, ९. स्नान, १०, वस्त्र ११, आभूषण, १२ गन्ध, १३. पुष्प, शतपत्र एवं सहस्रपत्र कमलों को ग्रहण किया, फिर वहाँ से चलकर जहाँ १४. धूप, १५. दीप और १६. नैवेद्य से पूजा की जाती है। सिद्धायतन (जिनमंदिर) था, वहाँ आया। उसमें पूर्वद्वार से प्रवेश करके प्रकारान्तर से गायत्रीतंत्र में षोडपोपचार पूजा के निम्न अंग भी जहाँ देवछन्दक और जिन-प्रतिमा थी वहाँ आकर जिन-प्रतिमाओं को मिलते हैंप्रणाम किया। प्रणाम करके लोममयी प्रमार्जनी हाथ में ली, प्रमार्जनी से १. आह्वान २. आसन-प्रदान, ३. पाद-प्रक्षालन, ४. जिन-प्रतिमा को प्रमार्जित किया। प्रमार्जित करके सुगन्धित जल से उन अर्यसमर्पण, ५. आचमन, ६. स्नान, ७. वस्त्रअर्पण, ८. लेपन, ९. जिन-प्रतिमाओं का प्रक्षालन किया। प्रक्षालन करके उन पर गोशीर्ष चंदन यज्ञोपवीत, १० पुष्प, ११. धूप, १२. दीप (आरती) १३. नैवेद्यका लेप किया। गोशीर्ष चंदन का लेप करने के पश्चात् उन्हें सुवासित प्रसाद, १४. प्रदक्षिणा १५. मंत्रपुष्प और १६ शय्या। वस्त्रों से पोंछा, पोंछकर जिन-प्रतिमाओं को अखण्ड देवदूष्य युगल षोडशोपचार पूजा की उक्त दोनों सूचियों में मात्र नाम और पहनाया। देवदूष्य पहनाकर पुष्पमाला, गंधचूर्ण एवं आभूषण चढ़ाये। क्रम का आंशिक अन्तर है। इस पञ्चोपचार, दशोपचार और षोडशोपचार तदनन्तर नीचे लटकी लम्बी-लम्बी गोल मालाएँ पहनायीं। मलाएँ, पूजा के स्थान पर जैन धर्म में अष्टप्रकारी और सतरह भेदी पूजा प्रचलित पहनाकर पंचवर्ण के पुष्पों की वर्षा की। फिर जिन-प्रतिमाओं के समक्ष रही है। पूजा-विधान के दोनों प्रकार पूजा के द्रव्यों की संख्या एवं पूजा विभिन्न चित्रांकन किये एवं श्वेत तन्दुलों से अष्टमंगल का आलेखन के अंगों के आधार पर हैं। सिद्धान्ततः इनमें कोई भिन्नता नहीं है। किया। उसके पश्चात् जिन-प्रतिमाओं के समक्ष धूपक्षेप किया। धूपक्षेप . जैनों की सतरहभेदी पूजा में निम्न विधि से पूजा सम्पन्न की करने के पश्चात् विशुद्ध, अपूर्व, अर्थसम्पन्न महिमाशाली १००८ छन्दों जाती हैसे भगवान् की स्तुति की । स्तुति करके सात-आठ पैर पीछे हटा। पीछे १. स्नान, २. विलेपन, ३. वस्त्र युगल समर्पण ४. वासक्षेप हटकर बाँया घुटना ऊँचा किया तथा दायाँ घुटना जमीन पर झुकाकर समर्पण, ५. पुष्पसमर्पण, ६. पुष्पमालासमर्पण, ७. पंचवर्ण की अंगरचना तीन बार मस्तक पृथ्वीतल पर नमाया। फिर मस्तक ऊँचा कर दोनों हाथ (अंगविन्यास), ८. गन्ध समर्पण, ९. ध्वजा समर्पण, १०. आभूषण जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके 'नमोत्थुणं अरहन्ताणं........ठाणं समर्पण, ११. पुष्पगृहरचना, १२. पुष्पवृष्टि १३. अष्ट मंगल रचना, संपत्ताणं नामक शक्रस्तव का पाठ किया। इस प्रकार अर्हन्त और सिद्ध १४. धूप समर्पण, १५. स्तुति, १६. नृत्य और १७. वाजिंत्र पूजा भगवान् की स्तुति करके फिर जिनमंदिर के मध्य भाग में आया। उसे (वाद्य बजना)। प्रमार्जित कर दिव्य जलधारा से सिंचित किया और गोशीर्ष चंदन का लेप यहां दोनों परम्पराओं के पूजा-विधानों में जो बहुत अधिक किया तथा पुष्पसमूहों की वर्षा की। तत्पश्चात् उसी प्रकार उसने मयूरपिच्छि समरूपता है, वह उनके पारस्परिक प्रभाव की सूचक है इनमें भी पञ्च के से द्वारशाखाओं, पुतलियों एवं व्यालों को प्रमार्जित किया तथा उनका स्थान पर अष्ट और षोडश के स्थान पर सप्तदश उपचारों के उल्लेख प्रक्षालन कर उनको चंदन से अर्चित किया तथा धूपक्षेप करके पुष्प एवं यह बताते हैं कि जैनों ने हिन्दू परम्परा से इसे ग्रहण किया है।
आभूषण चढ़ाये। इसी प्रकार उसने मणिपीठिकाओं एवं उनकी जिन- इसी प्रकार जहां तक पूजा के अंगों का प्रश्न है, जैन परम्परा प्रतिमाओं की, चैत्यवृक्ष की तथा महेन्द्र ध्वजा की पूजा-अर्चना की। में भी हिन्दू तांत्रिक परम्पराओं के ही समान आह्वान, स्थापना, सत्रिधिकरण, इससे स्पष्ट है कि राजप्रश्नीयसूत्र के काल में पूजा सम्बन्धी मन्त्रों के पूजन और विसर्जन की प्रक्रिया समान रूप से सम्पन्न की जाती है। इसमें अतिरिक्त जिन-पूजा की एक सुव्यवस्थिति प्रक्रिया निर्मित हो चुकी थी। देवता के नाम को छोड़कर शेष सम्पूर्ण मन्त्र भी समान ही हैं। पूजालगभग ऐसा ही विवरण वरांगचरित के २३वें सर्ग में भी है। विधान की इन समरूपताओं का फलितार्थ यही है कि जैन परम्परा इन
विधि-विधानों के सम्बन्ध में हिन्दू परम्परा से प्रभावित हुई है। जैन तांत्रिक पूजा-विधानों की तुलना
'राजप्रश्नीयसूत्र' के अतिरिक्त अष्टप्रकारी एवं सतरह भेदी इष्ट देवता की पूजा भक्तिमार्गीय एवं तांत्रिक साधना का भी पूजा का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति एवं उमास्वाति के 'पूजाविधि- प्रकरण आवश्यक अंग हैं- इन सम्प्रदायों में सामान्यतया पूजा के तीन रूप में भी उपलब्ध है। यद्यपि यह कृति उमास्वाति की ही है अथवा उनके प्रचलित रहे हैं- १. पञ्चोपचार पूजा, २. दशोपचार पूजा और ३. नाम से अन्य किसी की रचना है, इसका निर्णय करना कठिन है। षोडशोपचार पूजा।
अधिकांश विचारक इसे अन्यकृत मानते हैं। इस पूजाविधि-प्रकरण में
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