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तन्त्र-साधना और जैन जीवन दृष्टि
४८७ पाँचवीं शताब्दी के पूर्व ही प्रारम्भ हो गया था। कल्पसूत्र पट्टावली में आकर्षित होने का भय था। जैन श्रमणों की जो प्राचीन आचार्य परम्परा वर्णित है उसमें विद्याधरकुल अध्यात्म के आदर्श की बात करना तो सुखद लगता है का उल्लेख मिलता है। सम्भवत: विद्याधर कुल जैन श्रमणों का वह वर्ग किन्तु उन आदर्शों को जीवन में जीना सहज नहीं है। जैन धर्म का रहा होगा जो विविध विद्याओं की साधना करता होगा। यहाँ विद्या का उपासक भी वही व्यक्ति है जिसे अपने लौकिक और भौतिक मंगल की तात्पर्य बुद्धि नहीं, अपितु देव अधिष्ठित अलौकिक शक्ति की प्राप्ति ही आकांक्षा रहती है। जैन धर्म को विशुद्ध रूप से मात्र आध्यात्मिक और है। प्राचीन जैन साहित्य में हमें जंघाचारी और विद्याचारी, ऐसे दो प्रकार निवृत्तिमार्गी बनाए रखने पर भक्तों या उपासकों के एक बड़े भाग से के श्रमणों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। यह माना जाता है कि ये मुनि जैन धर्म के विमुख हो जाने की समभावनाएँ थीं। इन परिस्थितियों में अपनी विशिष्ट साधना द्वारा ऐसी अलौकिक शक्ति प्राप्त कर लेते थे जैन आचार्यों की यह विवशता थी कि वे अपने अनुयायियों की श्रद्धा जिसकी सहायता से वे आकाश में गमन करने में समर्थ होते थे। जैन-धर्म में बनी रहे इसके लिए उन्हें यह आवश्वासन दें कि चाहे
यह माना जाता है कि आर्य वज्रस्वामी (ईसा की प्रथमशती) तीर्थंकर उनके लौकिक-भौतिक कल्याण करने में असमर्थ हों किन्तु उन ने दुर्भिक्षकाल में पट्टविद्या की सहायता से सम्पूर्ण जैन संघ को सुरक्षित तीर्थंकरों के शासन रक्षक देव उनका लौकिक और भौतिक मगल करने स्थान पर पहुँचाया था। वज्रस्वामी द्वारा किया गया विद्या का यह प्रयोग में समर्थ हैं। जैन देवमण्डल में विभिन्न यक्ष-यक्षियों, विद्यादेवियों, परवर्ती आचार्यों और साधुओं के लिए एक उदाहरण बन गया। वज्रस्वामी क्षेत्रपालों आदि को जो स्थान मिला, उसका मुख्य लक्ष्य तो अपने के सन्दर्भ में आवश्यकनियुक्ति में स्पष्टरूप से कहा गया है कि उन्होंने अनुयायियों की श्रद्धा जैन-धर्म में बनए रखना ही था। अनेक विद्याओं का उद्धार किया था। लगभग दूसरी शताब्दी के मथुरा यही कारण था कि आठवीं-नौवीं शताब्दी में जैन आचार्यों ने के एक शिल्पांकन में आकाशमार्ग से गमन करते हुए एक जैन श्रमण अनेक तांत्रिक विधि-विधानों को जैन-साधना और पूजा-पद्धति का को प्रदर्शित भी किया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि ईसा की अंग बना दिया। यह सत्य है कि जैन साधना में तांत्रिक साधना की दूसरी-तीसरी शताब्दी से भी जैनों में अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति हेतु अनेक विधाएँ यथा मन्त्र, यन्त्र, जप, पूजा, ध्यान आदि क्रमिक रूप से तांत्रिक साधना के प्रति निष्ठा का विकास हो गया था।
विकसित होती रही है, किन्तु यह सब अपनी सहवर्ती परम्पराओं के वस्तुत: जैन धर्मसंघ में ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी से प्रभाव का परिणाम थी, जिसे जैन धर्म के उपासकों की निष्ठा को जैन चैत्यवास का आरम्भ हुआ और उसी के परिणामस्वरूप तन्त्र-मन्त्र की धर्म के बनाए रखने के लिए स्वीकार किया गया था। साधना को जैन संघ में स्वीकृति भी मिली।
संदर्भजैन परम्परा में आर्य खपुट, (प्रथम शती), आर्य रोहण १. पञ्चाशक, प्रका०- ऋषभदेव श्री, केशरीमलजी श्वे० संस्था, २/४४ (द्वितीय शती), आचार्य नागार्जुन (चतुर्थ शती) यशोभद्रसूरि, मानदेवसूरि, २. ललितविस्तरा, हरिभद्र, प्रका०- ऋषभदेव, केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, सिद्धसेनदिवाकर (चतुर्थशती), मल्लवादी (पंचमशती) मानतुङ्गसूरि (सातवीं वी०नि०सं० २४६१, पृ० ५७-५८.
शती), हरिभद्रसूरि (आठवीं शती), बप्पभट्टिसूरि (नवीं शती), सिद्धर्षि ३. गुह्यसमाजतन्त्र, संपा०- विनयतोष भट्टाचार्य, प्रका०- ओरिएण्टल (नवीं शती), सूराचार्य (ग्यारहवीं शती), जिनेश्वरसूरि (ग्यारहवीं शती), इंस्टिट्यूट, बरोदा, १९३१, ५/४० अभयदेवसूरि (ग्यारहवीं शती) वीराचार्य (ग्यारहवीं शती), जिनदत्तसूरि ५. सूत्रकृताङ्गसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन (बारहवीं शती), वादिदेवसूरि (बारहवीं शती), हेमचन्द्र (बारहवीं शती), समिति, ब्यावर, १९८२, २/३/१८ आचार्य मलयगिरि (बारहवीं शती), जिनचन्द्रसूरि (बारहवीं शती) ६. उत्तराध्ययनसूत्र संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन पार्श्वदेवगणि (बारहवीं शती), जिनकशल सूरि (तेरहवीं शती) आदि आगरा १९७२, १५/७ अनेक आचार्यों का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने मन्त्र और विद्याओं की ७. दशवैकालिकसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन साधना के द्वारा जैन धर्म की प्रभावना की। यद्यपि विविध ग्रंथों, प्रबन्धों समिति, ब्यावर, १९८५, ८/५० और पट्टावलियों में वर्णित इनके कथानकों में कितनी सत्यता है, यह एक
८. आचारांगसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन भिन्न विषय है, किन्तु जैन साहित्य में जो इनके जीवनवृत्त मिलते हैं वे
समिति, ब्यावर, १९८०, १२/६/१६३ इतना तो अवश्य सूचित करते हैं कि लगभग चौथी-पाँचवी शताब्दी से
९. स्थानांगसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन जैन आचार्यों का रुझान तांत्रिक साधनाओं की ओर बढ़ा था और वे जैन
समिति, ब्यावर, १९८०, ६/४१. धर्म की प्रभावना के निमित्त उसका उपयोग भी करते थे।
१०. मरणसमाधि, पइण्णय सुत्ताई, संपा०- पुण्यविजयजी, प्रका०- श्री मेरी दृष्टि से जैन परम्परा में तांत्रिक साधनाओं का जो उद्भव
महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, १९८४ और विकास हुआ है, वह मुख्यत: दो कारणों से हुआ है-प्रथम तो यह
११. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन,
आगरा, १९२२, २३/७३ कि जब वैयक्तिक साधना की अपेक्षा संघीय जीवन को प्रधानता दी गई तो संघ की रक्षा और अपने श्रावक भक्तों के भौतिक कल्याण को भी
१२. निशीथभाष्य, संपा०- मुनि अमरचंदजी, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ,
आगरा, १९८२, ४१५७ साधना का आवश्यक अंग मान लिया गया। दूसरे तंत्र के बढ़ते हुए
१३. आचारांगसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन प्रभाव के कारण जैन आचार्यों के लिए यह अपरिहार्य हो गया था कि
समिति, ब्यावर, १९८०, २/१५/१३०-१३४ वे मूलत: निवृत्तिमार्गी और आत्मविशुद्धिपरक इस धर्म को जीवित
१४. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, बनाए रखने के लिए तांत्रिक उपासना और साधना-पद्धति को किसी
आगरा, १९७२, ३२/१००। सीमा तक स्वीकार करे, अन्यथा उपासको का इतर परम्पराओं की ओर १५. प्रश्नव्याकरणसत्र, संपा०- मनि हस्तिमलजी. प्रका०- हस्तीमल सराणा,
पाली, १९५०, २/९/२
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