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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
ध्यान का सामान्य अर्थ
अवस्था है, वह ध्यान है।४३ इस गाथा में पण्डित बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री 'ध्यान' शब्द का सामान्य अर्थ चेतना का किसी एक विषय ने "दंसणणाणसमग्गं" का अर्थ सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान से परिपूर्ण या बिन्दु पर केन्द्रित होना है।३७ चेतना जिस विषय पर केन्द्रित होती है किया है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह अर्थ उचित नहीं है। दर्शन और ज्ञान वह प्रशस्त या अप्रशस्त दोनों ही हो सकता है। इसी आधार पर ध्यान की समग्र (समग्गं) का अर्थ है ज्ञान का भी निर्विकल्प अवस्था में होना। के दो रूप निर्धारित हुए- १. प्रशस्त और २. अप्रशस्त। उसमें भी सामान्यतया ज्ञान विकल्पात्मक होता है और दर्शन निर्विकल्प। किन्तु अप्रशस्त ध्यान के पुन: दो रूप माने गये १. आर्त और ३.रौद्र। प्रशस्त जब ज्ञान चित्त की विकल्पता से रहित होकर दर्शन से अभिन्न हो जाता ध्यान के भी दो रूप माने गये १. धर्म और २. शुक्ल। जब चेतना राग है, तो वही ध्यान हो जाता है। इसीलिए अन्यत्र कहा भी है कि ज्ञान से या आसक्ति में डूब कर किसी वस्तु और उसकी उपलब्धि की आशा पर ही ध्यान की सिद्धि होती है।४४ ध्यान शब्द की इन परिभाषाओं में हमें केन्द्रित होती है तो उसे आर्तध्यान कहा जा सकता है। अप्राप्त वस्तु की स्पष्ट रूप से एक विकासक्रम परिलक्षित होता है। फिर भी मूल रूप में प्राप्ति की आकांक्षा या प्राप्त वस्तु के वियोग की संभावना की चिन्ता में ये परिभाषाएं एक दूसरे की विरोधी नहीं हैं। चित्त का विधि-विकल्पों से चित्त का डूबना आर्तध्यान है।३८ आर्तध्यान चित्त के अवसाद/विषाद की रहित होकर एक विकल्प पर स्थिर हो जाना और अन्त में निर्विकल्प हो अवस्था है।
जाना ही ध्यान है क्योंकि ध्यान की अन्तिम अवस्था में सभी विकल्प जब कोई उपलब्ध अनुकूल विषयों के वियोग का या अप्राप्त समाप्त हो जाते हैं। अनुकूल विषयों की उपलब्धि में अवरोध का निमित्त बनता है तो उस पर आक्रोश का जो स्थायीभाव होता है, वही रौद्रध्यान है।३६ इस प्रकार ध्यान का क्षेत्र आर्तध्यान रागमूलक होता है और रौद्रध्यान द्वेषमूलक होता है। राग-द्वेष ध्यान-साधना के दो प्रकार माने गये हैं- एक बहिरंग और के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों ध्यान संसार के जनक हैं, दूसरा अन्तरंग। ध्यान के बहिरंग साधनों में ध्यान के योग्य स्थान (क्षेत्र), अत: अप्रशस्त माने गये हैं। इनके विपरीत धर्म-ध्यान और शुक्लध्यान आसन, काल आदि का विचार किया जाता है और अन्तरंग साधनों में प्रशस्त माने गये हैं। मेरी दृष्टि में स्व-पर के लिये कल्याणकारी विषयों ध्येय विषय और ध्याता के संबंध में यह विचार किया जाता है कि ध्यान पर चित्तवृत्ति का स्थिर होना धर्मध्यान है। यह लोकमंगल और आत्मविशुद्धि के योग्य क्षेत्र कौन से हो सकते हैं। आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं कि 'जो का साधक होता है। चूंकि धर्म ध्यान में भोक्ताभाव होता है, अत: यह स्थान निकृष्ट स्वभाव वाले लोगों से सेवित हो, दुष्ट राजा से शासित हो, शुभ आस्रव का कारण होता है। जब आत्मा की चित्त-वृत्तियाँ साक्षीभाव पाखण्डियों के समूह से व्याप्त हो, जुआरियों, मद्यपियों और व्यभिचारियों या ज्ञाता द्रष्टा भाव में अवस्थित होती हैं, तब साधक न तो कर्ताभाव से से युक्त हो, जहां का वातवरण अशान्त हो, जहां सेना का संचार हो रहा जुड़ता है और न भोक्ताभाव से जुड़ता है, यही साक्षीभाव की अवस्था ही हो, गीत वादन आदि के स्वर गुंज रहे हों, जहां जन्तुओं तथा नपुंसक शुक्ल ध्यान है। इसमें चित्त शुभ-अशुभ दोनों से ऊपर उठ जाता है। आदि निकृष्ट प्रकृति के जनों का विचरण हो, वह स्थान ध्यान के योग्य
नहीं है। इस प्रकार कांटे, पत्थर, कीचड़, हड्डी, रुधिर आदि से दूषित 'ध्यान' शब्द की जैन परिभाषाएँ
तथा कौवे, उल्लू, शृगाल, कुत्तों आदि से सेवित स्थान भी ध्यान के सामान्यतया अध्यवसायों (चित्तवृत्ति) का स्थिर होना ही ध्यान योग्य नहीं होते हैं।४५ कहा गया है। दूसरे शब्दों में मन की एकाग्रता को प्राप्त होना ही ध्यान यह बात स्पष्ट है कि परिवेश का प्रभाव हमारी चित्तवृत्तियों पर है। इसके विपरीत जो मन चंचल है उसे भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता पड़ता है। धर्म स्थलों एवं नीरव साधना-क्षेत्रों आदि में जो निराकुलता कहा जाता है।४० इस प्रकार ध्यान वह स्थिति है जिसमें चित्त की होती है तथा उनमें जो एक विशिष्ट प्रकार की शान्ति होती है, वह चंचलता समाप्त हो जाती है और वह किसी एक विषय पर केन्द्रित हो ध्यान-साधना के लिए उपयुक्त होती है। अत: ध्यान करते समय साधक जाती है। तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि को क्षेत्र का विचार करना आवश्यक है। संयमी साधक को समुद्र तट, अनेक अर्थों का आलम्बन देने वाली चिन्ता का निरोध ध्यान है।४१ नदी तट, अथवा सरोवर के तट, पर्वत शिखर अथवा गुफा किंवा दूसरे शब्दों में जब चिन्तन को अन्यान्य विषयों से हटा कर किसी एक प्राकृतिक दृष्टि से नीरव और सुन्दर प्रदेशों को अथवा जिनालय आदि ही वस्तु पर केन्द्रित कर दिया जाता है तो वह ध्यान बन जाता है। यद्यपि धर्म स्थानों को ही ध्यान के क्षेत्र रूप में चुनना चाहिए। ध्यान की दिशा भगवती आराधना में एक ओर चिन्ता निरोध से उत्पन्न एकाग्रता को के संबंध में विचार करते हुए कहा गया है कि ध्यान के लिए पूर्व या ध्यान कहा गया है, तो दूसरी ओर उसमें राग-द्वेष और मिथ्यात्व से उत्तर दिशा में अभिमुख होकर बैठना चाहिये। रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है, उसे ध्यान कहा गया है।४२ आचार्य ध्यान के आसन कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय में ध्यान को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि दर्शन ध्यान के आसनों को लेकर भी जैन ग्रन्थों में पर्याप्त रूप से और ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य के संसर्ग से रहित चेतना की जो विचार हुआ है। सामान्य रूप से पद्मासन, पर्यंकासन एवं खड्गासन
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