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जैन साधना में ध्यान
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है वह विषय अन्त में उसके मन को प्रमथित करके उद्वेलित ही बनाता साधु को? वस्तुत: निर्लिप्त जीवन जीने वाला व्यक्ति चाहे वह साधु हो है। अत: उसके ध्यान में यद्यपि कुछ काल तक चित्त तो स्थिर रहता है, या गृहस्थ, उसके लिए धर्मध्यान संभव हो सकता है। दूसरी ओर किन्तु उसका फल चित्तवृत्तियों की स्थिरता न होकर अस्थिरता ही होती आसक्त, दंभी और साकांक्ष व्यक्ति, चाहे वह मुनि ही क्यों न हो, उसके है। जिस ध्यान के अन्त में चित्त उद्वेलित होता हो वह ध्यान साधनात्मक लिए धर्मध्यान असंभव होता है। ध्यान की संभावना साधु और गृहस्थ ध्यान की कोटि में नहीं आता है। यही कारण है कि परवर्ती जैन होने पर निर्भर नहीं करती। उसकी संभावना का आधार ही व्यक्ति के दार्शनिकों ने अपने ग्रन्थों में आर्तध्यान और रौद्रध्यान को ध्यान के रूप चित्त की निराकुलता या अनासक्ति है। जो चित्त अनासक्त और निराकुल में परिगणित ही नहीं किया, क्योंकि वे अन्ततोगत्वा चित्त की उद्विग्नता है, फिर वह चित्त गृहस्थ का हो या मुनि का, इससे अन्तर नहीं पड़ता। के ही कारण बनते हैं। यही कारण था कि दिगम्बर परम्परा ने यह मान ध्यान के अधिकारी बनने के लिए आवश्यक यह है कि व्यक्ति का मानस लिया कि गृहस्थ का जीवन वासनाओं, आकांक्षाओं और उद्विग्नताओं से निराकांक्ष, अनाकुल और अनुद्विग्न रहे। यह अनुभूत सत्य है कि कोईपरिपूर्ण है, अत: वे ध्यान- साधना करने में असमर्थ हैं।
कोई व्यक्ति गृहस्थ जीवन में रहकर भी निराकांक्ष, अनाकुल और __ ज्ञानार्णव में इस मत का प्रतिपादन हुआ है कि गृहस्थ ध्यान अनुद्विग्न बना रहता है। दूसरी ओर कुछ साधु, साधु होकर भी सदैव का अधिकारी नहीं है।५८ इस संबंध में उसका कथन है कि गृहस्थ आसक्त, आकुल और उद्विग्न रहते हैं। अत: ध्यान का संबंध गृही जीवन प्रमाद को जीतने में समर्थ नहीं होता, इसलिए वह अपने चंचल मन या मुनि जीवन से न होकर चित्त की विशुद्धि से है। चित्त जितना विशुद्ध को वंश में नहीं रख पाता। फलत: वह ध्यान का अधिकारी नहीं हो होगा ध्यान उतना ही स्थिर होगा। पुनः जो श्वेताम्बर और यापनीय सकता। ज्ञानार्णवकार का कथन है कि गृहस्थ का मन सैंकड़ों झंझटों परम्परायें गृहस्थ में भी १४ गुणस्थान सम्भव मानती हैं, उनके अनुसार से व्यथित तथा दुष्ट तृष्णा रूप पिशाच से पीड़ित रहता है, इसलिए तो आध्यात्मिक विकास के अग्रिम श्रेणियों का अरोहण करता हुआ उसमें रहकर व्यक्ति ध्यान आदि की साधना नहीं कर सकता। जब गृहस्थ भी न केवल धर्मध्यान का अपितु शुक्ल -ध्यान का भी अधिकारी प्रलयकालीन तीक्ष्ण वायु के द्वारा स्थिर स्वभाववाले बड़े-बड़े पर्वत होता है। भी स्थान भ्रष्ट कर दिये जाते हैं, तो फिर स्त्री-पुत्र आदि के बीच रहने वाले गृहस्थ को जो स्वभाव से ही चंचल है, क्यों नहीं भ्रष्ट किया जा ध्यान के प्रकार सकता।५९ इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए ज्ञानार्णवकार तो यहां तक सामान्यतया जैनाचार्यों ने ध्यान का अर्थ चित्तवृत्ति का किसी कहता है कि कदाचित् आकाश-कुसुम और गधे को सींग (श्रृंग) एक विषय पर केन्द्रित होना ही माना है। अत: जब उन्होंने ध्यान के संभव भी हो६° लेकिन गृहस्थ जीवन में किसी भी देश और काल में प्रकारों की चर्चा की तो उसमें प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ही प्रकार के ध्यान संभव नहीं होता। इसके साथ ही ज्ञानार्णवकार मिथ्यादृष्टियों, ध्यानों को गृहीत कर लिया। उन्होंने आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये अस्थिर अभिप्राय वालों तथा कपटपूर्ण जीवन जीने वालों में भी ध्यान ध्यान के चार प्रकार माने।६३ ध्यान के इन चार प्रकारों में प्रथम दो को की संभावना को स्वीकार नहीं करता है।६१
अप्रशस्त अर्थात् संसार का हेतु और अन्तिम दो को प्रशस्त अर्थात् मोक्ष यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या गृहस्थ जीवन में का हेतु कहा गया है।६४ इसका आधार यह माना गया है कि आर्त और ध्यान संभव नहीं है। यह सही है कि गृहस्थ जीवन में अनेक द्वन्द्व होते रौद्रध्यान राग-द्वेष जनित होने से बंधन के कारण हैं, इसलिए वे हैं और गृहस्थ आर्त और रौद्रध्यान से अधिकांश समय तक जुड़ा रहता अप्रशस्त हैं। जबकि धर्मध्यान और शुक्लध्यान कषाय भाव से रहित है। किन्तु एकान्त रूप से गृहस्थ में धर्म-ध्यान की संभावना को अस्वीकार होने से मुक्ति के कारण हैं, इसलिए वे प्रशस्त हैं। ध्यानशतक की टीका नहीं किया जा सकता। अन्यथा गृहस्थ लिंग की अवधारणा खण्डित हो में तथा अमितगति के श्रावकाचार में इन चार ध्यानों को क्रमश: जायेगी। अत: गृहस्थ में भी धर्म-ध्यान की संभावना है।
तिर्यंचगति, नरकगति, देवगति और मुक्ति का कारण कहा गया है। यह सत्य है कि जो व्यक्ति जीवन के प्रपंचों में उलझा हुआ है, यद्यपि प्राचीन जैन आगमों में ध्यान का यह चतुर्विध वर्गीकरण ही मान्य उसके लिए ध्यान संभव नहीं है। किन्तु गृहस्थ जीवन और गृही वेश में रहा है। किन्तु जब ध्यान का संबंध मुक्ति की साधना से जोड़ा गया तो रहने वाले सभी व्यक्ति आसक्त ही होते हैं, यह नहीं कहा जा सकता। आर्त और रौद्रध्यान को बंधन का कारण होने से ध्यान की कोटि में ही अनेक सम्यग्दृष्टि गृहस्थ ऐसे होते हैं, जो जल में कमलवत् गृहस्थ परिगणित नहीं किया गया। अत: दिगम्बर परम्परा की धवला टीका६५ जीवन में अलिप्त भाव से रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए धर्म ध्यान की में तथा श्वेताम्बर परम्परा के हेमचन्द्र के योगशास्त्र६६ में ध्यान के दो ही संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। स्वयं ज्ञानार्णवकार यह प्रकार माने गए-धर्म और शुकल। ध्यान में भेद-प्रभेदों की चर्चा से स्पष्ट स्वीकार करता है कि जो साधु मात्र वेश में अनुराग रखता हुआ अपने रूप से यह ज्ञात होता है कि उसमें क्रमशः विकास होता गया है। प्राचीन को महान समझता है और दूसरों को हीन समझता है, वह साधु भी ध्यान आगमों यथा-स्थानांग, समवायांग, भगवतीसूत्र में तथा झाणाज्झया के योग्य नहीं है।६२ अत: व्यक्ति में मुनिवेशधारण करने से ध्यान की (ध्यानशतक) और तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान के चार विभागों की चर्चा करके पात्रता नहीं आती है। प्रश्न यह नहीं कि ध्यान गृहस्थ को संभव होगा या क्रमश: उनके चार-चार विभाग किये गए हैं, किन्तु उनमें कहीं भी ध्यान
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