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तन्त्र-साधना और जैन जीवन दृष्टि
सूत्रकृताङ्गसूत्र' में चौंसठ प्रकार की विद्याओं के अध्ययन या साधना करने वालों के निर्देश तो हैं, किन्तु उसमें इन विद्याओं को पापाश्रुत - अध्ययन कहा गया है। मात्र यह नहीं उसमें स्पष्ट रूप से यही भी कहा गया है कि जो इन विद्याओं की साधना करता है वह अनार्य है, विप्रतिपत्र है और समय आने पर मृत्यु को प्राप्त करके आसुरी और किल्यिधिक योनियों को प्राप्त होता है।
पुन: उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो छिद्रविद्या, स्वरविद्या, स्वप्नलक्षण, अंगविद्या आदि के द्वारा जीवन जीता है वह भिक्षु नहीं है। इसी प्रकार दशवैकालिकसूत्र" में भी स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि मुनि नक्षत्रविद्या, स्वप्नविद्या, निमित्तविद्या, मन्त्रविद्या और भैषज्यशास्त्र का उपदेश गृहस्थों को न करे। इनसे स्पष्टरूप से यह फलित होता है कि वैयक्तिक वासनाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार की विद्याओं की साधना को जैन आचार्यों ने सदैव ही हेय दृष्टि से देखा है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सांसारिक विषय-वासनाओं की पूर्ति के निमित्त पशुबलि देना, मद्य, मांस, मत्स्य, मैथुन और मुद्राओं का सेवन करना एवं मारण, मोहन, वशीकरण आदि षट्कर्मों की साधना करके अपने क्षुद्र लौकिक स्वार्थों और वासनाओं की पूर्ति करना जैन आचार्यों को मान्य नहीं हो सका, क्योंकि यह उनकी निवृत्तिप्रधान अहिंसक जीवनदृष्टि के विरुद्ध था। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि जैन धर्म ऐसी तान्त्रिक साधनाओं से पूर्णतः असंपृक्त रहा है। प्रथमतः विषय वासनाओं के प्रहाण के लिए अर्थात् अपने में निहित पाशविक वृत्तियों के निराकरण के लिए मंत्र, जाप, पूजा, ध्यान आदि की साधना-विधियाँ जैन धर्म में ईस्वी सन् के पूर्व से ही विकसित हो चुकी थीं। मात्र यही नहीं परवर्ती जैनग्रन्थों में तो ऐसे भी अनेक उल्लेख मिलते हैं जहाँ धर्म और संघ की रक्षा के लिए जैन आचार्यों को तांत्रिक और मान्त्रिक प्रयोगों की अनुमति भी दी गई है। किन्तु उनका उद्देश्य लोककल्याण ही रहा है।
मात्र यही नहीं, जहाँ आचारांगसूत्र' (ई०पू० पांचवी शती) में शरीर को धुन डालने या सुखा देने की बात कही गई थी, वहीं परवर्ती आगमों और आगमिक व्याख्याओं में शरीर और जैविक मूल्यों के संरक्षण की बात कही गई। स्थानांगसूत्र' में अध्ययन एवं संयम के पालन के लिए आहार के द्वारा शरीर के संरक्षण की बात कही गई । मरणसमाधि १° में कहा गया है कि उपवास आदि तप उसी सीमा तक करणीय हैं- जब तक मन में किसी प्रकार के अमंगल का चिन्तन न हो, इन्द्रियों की हानि न हो और मन, वचन तथा शरीर की प्रवृत्ति शिथिल न हो । मात्र यही नहीं, जैनाचार्यों ने अपने गुणस्थान सिद्धान्त में कषायों एवं वासनाओं के दमन को भी अनुचि मानते हुए यहाँ तक कह दिया कि उपशम श्रेणी अर्थात् वासनाओं के दमन की प्रक्रिया से आध्यात्मिक विकास की सीढ़ियों पर चढ़ने वाला साधक अनन्तः वहाँ से पतित हो जाता है फिर भी जैनाचार्यों ने वासनाओं की पूर्ति का कोई मार्ग नहीं खोला। हिन्दू तांत्रिकों एवं वज्रयानी बौद्धों के विरुद्ध वे यही कहते रहे कि वासनाओं की पूर्ति से वासनाएं शान्त नहीं होती हैं, अपितु वे घृत सिञ्चित अग्नि की तरह अधिक बढ़ती ही हैं। उनकी दृष्टि में वासनाओं का दमन तो अनुचित है, किन्तु उनका विवेकपूर्वक संयमन और
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निरसन आवश्यक है। यहाँ इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करने के पूर्व यह विचार कर लेना आवश्यक है कि सामान्यतः भारतीय धर्मों में और विशेषरूप से जैन धर्म में तान्त्रिक साधना का विकास क्यों हुआ और किस क्रम में हुआ?
प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों का विकास
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मानव प्रकृति में वासना और विवेक के तत्व उसके अस्तित्व काल से ही रहे हैं, पुनः यह भी एक सर्वमान्य तथ्य है कि पाशविक वासनाओं, अर्थात् पशु तत्त्व से ऊपर उठकर देवत्व की ओर अभिगमन करना ही मनुष्य के जीवन का मूलभूत लक्ष्य है। मानव प्रकृति में निहित इन दोनों तत्त्वों के आधार पर दो प्रकार की साधना पद्धतियों का विकास कैसे हुआ इसे निम्न सारिणी द्वारा समझा जा सकता है
देह
वासना
भोग
|
अभ्युदय (प्रेष)
1
स्वर्ग
1
कर्म
1
प्रवृत्ति
प्रवर्तक धर्म
समर्पणमूलक I
भक्तिमार्ग
'अलौकिक शक्तियों की उपासना
मनुष्य
1
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यशमूलक
कर्ममार्ग
चेतना
T
विवेक
त्याग
I निःश्रेयस्
मोक्ष (निर्वाण )
कर्मसंन्यास
निवृत्ति
निवर्तक धर्म
आत्मोपलब्धि
चिन्तन प्रधान देहदण्डनमूलक
1 ज्ञानमार्ग
तपमार्ग
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