________________
४६६
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
समत्व की स्थिति आवश्यक है। एक में उस निष्पकम्पता या समत्व का अर्थात देह-त्याग। लेकिन जब तक जीवन है तब तक शरीर का त्याग अभ्यास होता है और दूसरे में वह अवस्था सहज हो जाती है। तो संभव नहीं है। अत: कायोत्सर्ग का मतलब है- देह के प्रति ममत्व का
त्याग, दूसरे शब्दों में शारीरिक गतिविधियों का कर्ता न बनकर द्रष्टा बन ध्यान और योग
जाना। वह शरीर की मात्र ऐच्छिक गतिविधियों का नियन्त्रण है। शारीरिक यहां ध्यान का योग से क्या संबंध है? यह भी विचारणीय है। गतिविधियां भी दो प्रकार ही होती हैं-एक स्वचालित और दूसरी ऐच्छिक। जैन परम्परा में सामान्यतया मन, वाणी और शरीर की गतिशीलता को कायोत्सर्ग में स्वचालित गतिविधियों का नहीं, अपितु ऐच्छिक गतिविधियों योग कहा जाता है।२८ उसके अनुसार सामान्य रूप से समग्र साधना का नियन्त्रण किया जाता है। कायोत्सर्ग करने से पूर्ण जो आगारसूत्र का
और विशेष रूप से ध्यान-साधना का प्रयोजन योग-निरोध ही है। पाठ बोला जाता है उसमें श्वसन-प्रक्रिया, छींक, जम्हाई आदि स्वचालित वस्तुतः मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रियाओं में जिन्हें जैन परम्परा शारीरिक गतिविधियों के निरोध नहीं करने का भी स्पष्ट उल्लेख है।३२ में योग कहा गया है, मन की प्रधानता होती है। वाचिक योग और अत: कायोत्सर्ग ऐच्छिक शारीरिक गतविधियों के निरोध का प्रयत्न है। कायिकयोग, मनोयोग पर ही निर्भर करते हैं। जब मन की चंचलता यद्यपि ऐच्छिक गतिविधियों का केन्द्र मानवीय मन अथवा चेतना ही है। समाप्त होती है तो सहज ही शारीरिक और वाचिक-क्रियाओं में शैथिल्य अत: कायोत्सर्ग की प्रक्रिया ध्यान की प्रक्रिया के साथ अपरिहार्य रूप से आ जाता है, क्योंकि उनके मूल में व्यक्त या अव्यक्त मन ही है। अतः जुड़ी हुई है। मन की सक्रियता के निरोध से ही योग-निरोध संभव है। योग दर्शन भी, एक अन्य दृष्टि से कायोत्सर्ग को देह के प्रति निर्ममत्व की जो योग पर सर्वाधिक बल देता है, यह मानता है कि चित्तवृत्तियों का साधना भी कहा जा सकता है। वह देह में रहकर भी कर्ताभाव से उपर निरोध ही योग है।२९ वस्तुत: जहां चित्त की चंचलता समाप्त होती है, उठकर द्रष्टाभाव में स्थित होना है। यह भी स्पष्ट है कि चित्तवृत्तियों के वहीं साधना की पूर्णता है और वही पूर्णता ध्यान है। चित्त की चंचलता विचलन में शरीर भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। हम शरीर अथवा मन की भाग दौड़ को समाप्त करना ही जैन साधना और योग और इन्द्रियों के माध्यम से ही बाह्य विषयों से जुड़ते हैं और उनकी साधना दोनों का लक्ष्य है। इस दृष्टि से देखें तो जैन दर्शन में ध्यान की अनुभूति करते हैं इस अनुभूति का अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव हमारी जो परिभाषा दी जाती है वही परिभाषा योग दर्शन में योग की दी जाती चित्तवृत्ति पर पड़ता है, जो चित्त विचलन का या राग-द्वेष का कारण है। इस प्रकार ध्यान और योग पर्यायवाची बन जाते हैं।
होता है। 'योग' शब्द का एक अर्थ जोड़ना (Unification) भी है।३० इस दृष्टि से आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला को योग कहा गया चित्त (मन) और ध्यान है और इसी अर्थ से योग को मुक्ति का साधन माना गया है। अपने इस
जैन दर्शन में मन की चार अवस्थाएं- जैन, बौद्ध और दूसरे अर्थ में भी योग शब्द ध्यान का समानार्थक ही सिद्ध होता है, वैदिक परम्पराओं में चित्त या मन ध्यान-साधना की आधारभूमि है, अत: क्योंकि ध्यान ही साधक को अपने में ही स्थित परमात्मा (शुद्धात्मा) या चित्त की विभिन्न अवस्थाओं पर व्यक्ति के ध्यान-साधना के विकास को मुक्ति से जोड़ता है। वस्तुत: जब चित्तवृत्तियों की चंचलता समाप्त हो आँका जा सकता है। जैन परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र ने मन की चार जाती है, चित्त प्रशान्त और निष्पकम्प हो जाता है, तो वही ध्यान होता अवस्थाएँ मानी हैं- १. विक्षिप्त मन, २. यातायात मन, ३. श्लिष्ट मन है, वही समाधि होता है और उसे ही योग कहा जाता है। किन्तु जब और ४. सुलीन मन।३३ । कार्य-कारण भाव अथवा साध्य-साधना की दृष्टि से विचार करते हैं, तो १. विक्षिप्त मन- यह मन की अस्थिर अवस्था है, इसमें ध्यान साधना होता है, समाधि साध्य होती है। साधन से साध्य की चित्त चंचल होता है, इधर-उधर भटकता रहता है, इसके आलम्बन उपलब्धि ही योग कही जाती है।
प्रमुखतया बाह्य विषय ही होते हैं, इसमें संकल्प-विकल्प या विचारों की
भाग-दौड़ मची रहती है, अतः इस अवस्था में मानसिक शान्ति का ध्यान और कायोत्सर्ग
अभाव होता है। यह चित्त पूरी तरह बहिर्मखी होती है। जैन साधना में तप के वर्गीकरण में आभ्यन्तर तप के जो छ: प्रकार बतलाए गये हैं, उनमें ध्यान और कायोत्सर्ग इन दोनों का अलग- जाता है तो कभी अपने में स्थिर होने का प्रयत्न करता है। यह योगाभ्यास अलग उल्लेख किया गया है।३१ इसका तात्पर्य यह है कि जैन आचार्यों के प्रारम्भ की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त अपने पूर्वाभ्यास के की दृष्टि से ध्यान और कायोत्सर्ग दो भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। ध्यान कारण बाहरी विषयों की ओर दौड़ता रहता है, वैसे थोड़े बहुत प्रयत्न से चेतना को किसी विषय पर केन्द्रित करने का अभ्यास है तो कायोत्सर्ग उसे स्थिर कर लिया जाता है। कुछ समय उस पर स्थिर रहकर पुन: बाह्य शरीर के नियन्त्रण का एक अभ्यास। यद्यपि यहाँ काया (शरीर) व्यापक विषयों के संकल्प-विकल्प में उलझ जाता है। जब-जब कुछ स्थिर होता अर्थ में गृहीत है। स्मरण रहे कि मन और वाक् ये शरीर के आश्रित ही है तब मानसिक शान्ति एवं आनन्द का अनुभव करने लगता है। हैं। शाब्दिक दृष्टि से कायोत्सर्ग शब्द का अर्थ होता है 'काया' का उत्सर्ग यातायात चित्त कथंचित् अन्तर्मुखी और कथंचित् बहिर्मुखी होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org