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भावनाएँ और उसकी विधि की चर्चा है।
महाप्रत्याख्यान नामक प्रकीर्णक में १४२ गाथाएँ हैं। इसमें बाह्य एवं आभ्यन्तर परिग्रह का परित्याग, सर्वजीवों से क्षमा-याचना, आत्मालोचन, ममत्व का छेदन, आत्मस्वरूप का ध्यान, मूल एवं उत्तर गुणों की आराधना, एकत्व भावना, संयोग सम्बन्धों के परित्याग आदि की चर्चा करते हुए आलोचक के स्वरूप का भी विवरण दिया गया है। इसी प्रसङ्ग में पाँच महाव्रतों एवं समिति गुप्ति के स्वरूप की चर्चा भी है। साथ ही साथ तप के महत्त्व को बताया गया है। फिर अकृत- योग एवं कृत योग की चर्चा करके पण्डितमरण की प्ररूपणा की गयी है। इसी प्रसङ्ग में ज्ञान की प्रधानता का भी चित्रण हुआ है। अन्त में संसारतरण एवं कर्मों से निस्तार पाने का उपदेश देते हुए आराधना रूपी पताका को फहराने का निर्देश है। साथ ही पाँच प्रकार की आराधना व उनके फलों की चर्चा करते हुए धीरमरण (समाधिमरण) की प्रशंसा की गयी है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
संस्तारक प्रकीर्णक का विषय भी समाधिमरण ही है। इस प्रकीर्णक में १२२ गाथाएँ हैं। प्रारम्भ में मङ्गल के साथ-साथ कुछ श्रेष्ठ वस्तुओं और सद्गुणों की चर्चा है। इसमें कहा गया है कि समाधिमरण परमार्थ, परम- आयतन, परमकल्प और परमगति का साधक है। जिस प्रकार पर्वतों में मेरुपर्वत एवं तारागणों में चन्द्र श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सुविहित जनों के लिए संथारा श्रेष्ठ है। इसी में आगे १२ गाथाओं में संस्तारक के स्वरूप का विवेचन है। इस प्रसन में यह बताया गया है कि कौन व्यक्ति समाधिमरण को ग्रहण कर सकता है? यह ग्रन्थ क्षपक के लाभ एवं सुख की चर्चा करता है। इसमें संथारा ग्रहण करने वाले कुछ व्यक्तियों के उल्लेख हैं, यथा सुकोशल ऋषि, अवन्ति-सुकुमाल, कार्तिकेय, पाटलीपुत्र के चंदक- पुत्र (सम्भवत: चन्द्रगुप्त ) तथा चाणक्य आदि।
ज्ञातव्य है कि इसकी अधिकांश कथाएँ यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना में भी उपलब्ध होती हैं। विद्वानों से अनुरोध है कि संस्तारक एवं मरणविभक्ति में वर्णित इन कथाओं की बृहत्कथाकोश तथा आराधना कोश से तुलना करें अन्त में संस्तारक की भावनाओं का चित्रण है। इसकी अनेक गाथाएँ आतुरप्रत्याख्यान एवं चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में भी मिलती हैं।
श्वेताम्बर आगम साहित्य में समाधिमरण के सम्बन्ध में सबसे विस्तृत ग्रन्थ मरणविभक्ति है। वस्तुतः मरणविभक्ति एक ग्रन्थ न होकर
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समाधिमरण से सम्बन्धित प्राचीन आठ अन्यों के आधार पर निर्मित हुआ एक सङ्कलन ग्रन्थ है । यद्यपि इसमें इन आठ ग्रन्थों की गाथाएँ कहीं शब्द रूप में, तो कहीं भाव रूप से ही गृहीत हैं। फिर भी समाधिमरण सम्बन्धित सभी विषयों को एक स्थान पर प्रस्तुत करने की दृष्टि से यह ग्रन्थ अति महत्त्वपूर्ण है। इसमें ६६३ गाथाएँ हैं। यह ग्रन्थ संक्षिप्त होते हुए भी भगवती आराधना के समान ही अपने विषय को समग्र रूप से प्रस्तुत करता है । विस्तार भय से यहाँ इसकी समस्त विषय-वस्तु का प्रतिपादन कर पाना सम्भव नहीं है इसमें १४ द्वार अर्थात् अध्ययन हैं। इस ग्रन्थ में भी संस्तारक के समान ही पण्डित - मरणपूर्वक मुक्ति प्राप्त करने वाले साधकों के दृष्टान्त हैं। जिनमें से अधिकांश भगवती आराधना एवं संस्तारक में मिलते हैं। इसी ग्रन्थ में अनित्य आदि बारह भावनाओं का भी विवेचन है।
इसके अतिरिक्त आराधनापताका नामक एक ग्रन्थ और है। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। कुछ विद्वानों का ऐसा कहना है कि यह ग्रन्थ यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना के आधार पर आचार्य वीरभद्र द्वारा निर्मित हुआ है, किन्तु इस ग्रन्थ में भक्तपरिज्ञा, पिण्डनिर्युक्ति और आवश्यकनियुक्ति की अनेकों गाथाएँ भी हैं। अतः यह किस ग्रन्थ के आधार पर निर्मित हुआ है, यह शोध का विषय है।
इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में समाधिमरण से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ परवर्ती श्वेताम्बराचार्यों द्वारा भी लिखे गये हैं, जिनमें पूर्ण विस्तार के साथ समाधिमरण सम्बन्धी विवरण है, किन्तु ये ग्रन्थ परवर्तीकाल के हैं और हम अपने विषय को अर्धमागधी आगम साहित्य तक ही सीमित रखने के कारण इनकी विशेष चर्चा यहाँ नहीं करना चाहेंगे। यह समस्त चर्चा भी हमने सङ्केत रूप में ही की है। विद्वानों से अनुरोध है कि वे इस तुलनात्मक अध्ययन को आगे बढ़ायें। इस सम्बन्ध में अनेक आगमिक व्याख्या ग्रन्थ जैसे आचाराङ्गनिर्युक्ति, सूत्रकृताङ्गनिर्युक्ति, आवश्यकनियुक्ति, निशीषभाष्य बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णि आदि भी उनके उपजीव्य हो सकते हैं। इसी प्रकार आगमों की शीलाइ और अभयदेव की वृत्तियाँ भी बहुत कुछ सूचनायें प्रदान कर सकती हैं। उदाहरण के रूप में क्षपक अर्थात् संलेखना लेने वाले श्रमण के मरणोपरान्त देह को किस प्रकार विसर्जित किया जाये, इसकी चर्चा भगवती आराधना और निशीथचूर्णि में समान रूप से मिलती है। आशा है विद्वानों की आगामी पीढ़ी इस तुलनात्मक चर्चा को पूर्णता प्रदान करेंगी।
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