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जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा
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कहा गया है कि जो वृद्ध, रोगी आदि की सेवा करता है, वह भगवान् की ही सेवा करता है। इस प्रकार भक्ति में सेवा की जो अवधारणा
थी, उसने एक लोक-कल्याणकारी रूप ग्रहण किया, यही जैन भक्ति की विशेषता है।
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समिति, ब्यावर, १९८०। सूत्रकृताङ्गसूत्र, संपा०मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८२, १/१४/२०॥ ६. ज्ञाताधर्मकथा, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन
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संस्थान, वाराणसी, १९७६, ६/२३। आवश्यकनियुक्ति, संपा० बी०के०कोठारी, प्रका० रिलीजियस
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११. दशवैकालिकसूत्र, संपा० मधुकरमुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९७४, ४/३४। १२. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८४, २८/३५। १३. वही। १४. नियमसार, अनु० आर्यिका ज्ञानमती, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला,
हस्तिनापुर, १९८४, १३४-१४०। १५. आवश्यकनियुक्ति, संपा० बी०के०कोठारी, प्रका०रिलीजिएस ट्रस्ट,
बम्बई, १९८१, १११०। आनन्दघन ग्रन्थावली, संपा० महताबचन्द खारैड विशारद, प्रका० श्री विजयचन्द जरगड, जौहरी बाजार, ईमली वाले पंसारी के ऊपर,
जयपुर, वि० सं० २०३१, शांति जिनस्तवन, १६/११,१२। १७. वही, विमल जिनस्तवन- १३/१७। १८. वही, पद्मप्रभ जिनस्तवन, - ६/१,२। १९. वही, ६/६। २०. वही, ऋषभ जिनस्तन, १/१,२ तथा वही पद २६, ४९-३२,
४४-३०॥
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