________________
जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन
४५१
उपस्थिति से श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र सम्यक् बनते हैं। सम्यक्स्व का ग्रन्थकर्ता की दृष्टि में यद्यपि सम्यक्त्व यथार्थता की अभिव्यक्ति करता है अर्थ-विस्तार सम्यग्दर्शन से अधिक व्यापक है, फिर भी सामान्यतया लेकिन यथार्थता जिस ज्ञानात्मक तथ्य के रूप में उपस्थित होती है, सम्यग्दर्शन और सम्यक्त्व शब्द एक ही अर्थ में प्रयोग किए गए हैं। वैसे उसके लिए सत्याभीप्सा या रुचि आवश्यक है। सम्यक्त्व शब्द में सम्यकदर्शन निहित ही है।
दर्शन का अर्थ सम्यक्त्व का अर्थ
दर्शन शब्द भी जैनागमों में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। सबसे पहले हमें इसे स्पष्ट कर लेना होगा कि सम्यक्त्व या जीवादि पदार्थों के स्वरूप को देखना, जानना, श्रद्धा करना दर्शन कहा सम्यक् शब्द का क्या अभिप्राय है। सामान्य रूप में सम्यक् या सम्यक्त्व जाता है।३० सामान्यतया दर्शन शब्द देखने के अर्थ में व्यवहार किया शब्द सत्यता या यथार्थता का परिचायक है, उसे हम उचितता भी कह जाता है लेकिन यहाँ पर दर्शन शब्द का अर्थ मात्र नेत्रजन्य बोध नहीं है। सकते हैं। सम्यक्त्व का अर्थ तत्त्वरुचि२९ भी है। इस अर्थ में सम्यक्त्व उसमें इन्द्रियबोध, मनबोध और आत्मबोध सभी सम्मिलित हैं। दर्शन सत्याभिरुचि या सत्य की अभीप्सा है। दूसरे शब्दों में, इसको सत्य के शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जैन परम्परा में काफी विवाद रहा है। दर्शन प्रति जिज्ञासावृत्ति या मुमुक्षुत्व भी कहा जा सकता है। अपने दोनों ही शब्द को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तबोध और अर्थों में सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है। ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है।३१ नैतिक जीवन की दृष्टि से विचार करने जैन नैतिकता का चरम आदर्श आत्मा के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि है, पर दर्शन शब्द का दृष्टिकोणपरक अर्थ किया गया है।३२ दर्शन शब्द के लेकिन यथार्थ की उपलब्धि भी तो यथार्थता से सम्भव होगी, अयथार्थ स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग, उसके दृष्टिकोणपरक अर्थों का द्योतक से तो यथार्थ पाया नहीं जा सकता। यदि साध्य यथार्थता की उपलब्धि है है। प्राचीन जैन आगमों में दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग तो साधना भी यथार्थ ही चाहिए। जैन विचारणा साध्य और साधना की बहुलता से देखा जाता है। तत्त्वार्थसूत्र३३ और उत्तराध्ययनसूत्र३४ में एकरूपता में विश्वास करती है। वह यह मानती है कि अनुचित साधना दर्शन शब्द का अर्थ तत्त्वश्रद्धा माना गया है। परवर्ती जैन साहित्य में से प्राप्त किया लक्ष्य भी अनुचित ही है, वह उचित नहीं कहा जा सकता। दर्शन शब्द का देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी सम्यक् को सम्यक् से ही प्राप्त करना होता है। असम्यक् से जो भी व्यवहार किया गया है।३५ इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन तत्त्वमिलता है, पाया जाता है, वह असम्यक् ही होता है। अत: आत्मा के साक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, अन्तबोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि के लिए उन्होंने जिन साधनों का विधान आदि अर्थों को अपने में समेटे हुए हैं। इन पर थोड़ी गहराई से विचार किया उनका सम्यक् होना आवश्यक माना गया। वस्तुत: ज्ञान, दर्शन करना अपेक्षित है।
और चारित्र का नैतिक मूल्य उनके सम्यक् होने में समाहित है। जब ज्ञान; दर्शन और चारित्र सम्यक् होते हैं तो वे मुक्ति या निर्वाण के साधन बनते क्या सम्यग्दर्शन के उपरोक्त अर्थ परस्पर विरोधी हैं हैं। लेकिन यदि वे ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र मिथ्या होते हैं तो बन्धन सम्यग्दर्शन शब्द के विभिन्न अर्थों पर विचार करने से पहले का कारण बनते हैं। बन्धन और मुक्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र पर निर्भर हमें यह देखना होगा कि इनमें से कौन-सा अर्थ ऐतिहासिक दृष्टि से नहीं वरन् उनकी सम्यक्तलाऔर मिथ्यात्व पर आधारित है। सम्यक ज्ञान, प्रथम था और उसके पश्चात् किन-किन ऐतिहासिक परिस्थितियों के सम्यग्दर्शन और सम्यक-चारित्र मोक्ष का मार्ग है जबकि मिथ्याज्ञान, कारण यही शब्द अपने दूसरे अर्थों में प्रयुक्त हुआ। प्रथमतः हम देखते मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र ही बन्धन का मार्ग है।
हैं कि बुद्ध और महावीर के अपने समय में प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक अपने आचार्य जिनभद्र की धारणा के अनुसार यदि सम्यक्त्व का सिद्धान्त को सम्यग्दृष्टि और दूसरे के सिद्धान्त को मिथ्यादृष्टि कहता था। अर्थ तत्त्वरुचि या सत्याभीप्सा करते हैं तो सम्यक्त्व का नैतिक साधना बौद्धागमों में ६२ मिथ्यादृष्टियों एवं जैनागम सूत्रकृतांग में६३ मिथ्यादृष्टियों में महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। नैतिकता की साधना आदर्शोन्मुख का विवेचन मिलता है। लेकिन वहाँ पर मिथ्यादृष्टि शब्द अश्रद्धा अथवा गति है लेकिन जिसके कारण वह गति है, साधना है, वह तो सत्याभीप्सा मिथ्याश्रद्धा के अर्थ में नहीं वरन् गलत दृष्टिकोण के अर्थ में ही प्रयुक्त ही है। साधक में जब तक सत्याभीप्सा या तत्त्वरुचि जाग्रत नहीं होती तब हुआ है। बाद में जब यह प्रश्न उठा कि गलत दृष्टिकोण को किस सन्दर्भ तक वह नैतिक प्रगति की ओर अग्रसर ही नहीं हो सकता। सत्य की चाह में माना जाय, तो कहा गया कि जीव (आत्मतत्त्व) और जगत के या सत्य की प्यास ही ऐसा तत्त्व है जो उसे साधना-मार्ग में प्रेरित करता सम्बन्ध में जो गलत दृष्टिकोण है, वही मिथ्यादर्शन या मिथ्यादृष्टि है। है। जिसे प्यास नहीं, वह पानी की प्राप्ति का क्यों प्रयास करेगा? जिसमें इस प्रकार मिथ्यादृष्टि से तात्पर्य हुआ आत्मा और जगत के विषय में सत्य की उपलब्धि की चाह (तत्त्वरुचि) नहीं वह क्यों साधना करने गलत दृष्टिकोण। उस युग में प्रत्येक धर्म-मार्ग का प्रवर्तक आत्मा और लगा? प्यासा ही पानी की खोज करता है। तत्त्वरुचि या सत्याभीप्सा से जगत के स्वरूप के विषय में अपने दृष्टिकोण को सम्यक् दृष्टिकोण युक्त व्यक्ति ही आदर्श की प्राप्ति के निमित्त साधना के मार्ग पर आरूढ़ अथवा सम्यग्दर्शन और अपने विरोधी के दृष्टिकोण को मिथ्यादृष्टि होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में दोनों अर्थों को समन्वित कर दिया गया है। अथवा मिथ्यादर्शन कहता था। बाद में प्रत्येक सम्प्रदाय जीवन और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org