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जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा
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माने गये हैं। जैन परम्परा में जो वंदन के पाठ उपलब्ध हैं उनके अनुसार देवदूष्य-युगल पहनाया। देवदूष्य पहनाकर पुष्प, माला, गन्ध, चूर्ण, वंदन में पूज्य-बुद्धि या सम्मान का भाव आवश्यक माना गया है। वस्त्र और आभूषण चढ़ाये। इन सबको चढ़ाने के अनन्तर फिर ऊपर पूज्य-बुद्धि के अभाव में वंदन का कोई अर्थ नहीं रह जाता। से नीचे तक लटकती हुई लम्बी-लम्बी गोला मालाएँ पहनाईं। मालाएँ स्तुति एवं वंदन दोनों में ही गुण-संकीर्तन की भावना स्पष्ट रूप से पहनाकर पञ्चरङ्गे पुष्पगणों को हाथ में लेकर उनकी वर्षा की और मांडने जुड़ी है।
मांडकर उस स्थान को सुशोभित किया। फिर उन जिन-प्रतिमाओं के
सन्मुख शुभ्र, सलौने, रजतमय अक्षत तन्दुलों (चावलों) से आठ-आठ पूजा, अर्चा और भक्ति
मङ्गलों का आलेखन किया, यक्ष, स्वास्तिक यावत् दर्पण। जैन परम्परा में मूर्ति-पूजा की अवधारणा अति प्राचीन काल से तदनन्तर उन जिन-प्रतिमाओं के सम्मुख श्रेष्ठ काले अगर, कुन्दरु, पायी जाती है। तीर्थङ्करों की प्रतिमाओं की पूजा का विधान आगमों तुरूष्क और धूप की महकती सुगन्ध से व्याप्त और धूपबत्ती के समान में उपलब्ध है। परवर्ती काल में शासन-देवता के रूप में यक्ष-यक्षी सुरभिगन्ध को फैलाने वाले स्वर्ण एवं मणिरत्नों से रचित, चित्र-विचित्र एवं क्षेत्रपालों (भैरव) की पूजा भी होने लगी। जैन परम्परा में तीर्थङ्कर रचनाओं से युक्त वैडूर्यमन धूपदान को लेकर धूपक्षेप किया तथा विशुद्ध प्रतिमाओं का निर्माण ई.पू. तीसरी शती से तो स्पष्ट रूप से होने अपूर्व अर्थ सम्पन्न अपुनरुक्त महिमाशाली एक सौ आठ छन्दों में स्तुति लगा था, क्योंकि मौर्यकाल की जिन-प्रतिमा उपलब्ध होती है। इससे की। स्तुति करके सात-आठ पग पीछे हटा और फिर पीछे हटकर पूर्व भी नन्द राजा के द्वारा कलिङ्ग-जिन की प्रतिमा को उठाकर ले बायां घुटना ऊँचा किया और दायां घुटना जमीन पर टिकाकर तीन जाने का जो खारवेल का अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध है, उसके आधार बार मस्तक को भूमि तल पर नमाया। नमाकर कुछ ऊँचा उठा तथा पर यह माना जा सकता है कि मौर्य काल से पूर्व भी तीर्थङ्कर प्रतिमाओं मस्तक ऊँचा करके दोनों हाथ जोड़कर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अञ्जलि का निर्माण प्रारम्भ हो गया था। किन्तु उस युग की जिन-प्रतिमा की करके प्रभु की स्तुति की। पूजा-अर्चा की विधि को बताने वाला कोई ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं इससे यह फलित होता है कि मुनिजन जो सचित्त द्रव्य का स्पर्श है। जैन परम्परा में पूजा-अर्चा के विधि-विधान एवं मन्दिर-निर्माण नहीं करते थे, वे केवल वंदन या गुण-स्तवन ही करते थे किन्तु गृहस्थ कला आदि को सूचित करने वाले जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे लगभग पूजन-सामग्री में सचित्त द्रव्यों का उपयोग करते थे। यद्यपि उस सम्बन्ध ई० सन् की प्रारम्भिक सदियों के हैं। जैन आगमों में स्थानाङ्ग, ज्ञाताधर्म में अनेक सतर्कताएँ बरती जाती थीं, जिनका उल्लेख ७-८वीं शती एवं राजप्रश्नीय सूत्र में मन्दिर-संरचना एवं जिन-प्रतिमाओं की पूजन के जैन आचार्यों ने किया है। जैनों की पूजा-विधि की जब हम विधि के उल्लेख हैं। मथुरा के प्रथम शती के अङ्कनों से भी इस तथ्य वैष्णव-विधि से तुलना करते हैं तब हम पाते हैं कि दोनों में काफी की पुष्टि होती है, क्योंकि उनमें कमल-पुष्प ले जाते हुए श्रावक- समानता थी। मात्र यही नहीं जैनों ने अपनी पूजा-विधि को वैष्णव श्राविकाओं को अंकित किया गया है। जो पूजा-विधि राजप्रश्नीयसूत्र परम्परा से गृहीत किया था। उनके आह्वान, विसर्जन आदि के मन्त्र
और परवर्ती ग्रन्थों में उपलब्ध है उसके अनुसार मुनि और साध्वियाँ न केवल हिन्दु परम्परा की नकल हैं, अपितु उनकी दार्शनिक मान्यताओं तो जिन-प्रतिमाओं की वंदना एवं स्तुति के रूप में भाव-पूजा ही करते के विरोध में भी हैं। इसकी स्वतन्त्रचर्चा हमने अन्य लेख में की है हैं। मात्र गृहस्थ ही उनकी पूजा-सामग्री से द्रव्य पूजा करता है। गृहस्थ (श्रमण १९९०) वीतराग परमात्मा की जिसने त्याग, वैराग्य व तप की पूजा विधि के अनुसार कूप अथवा पुष्करणी में स्नान करके वहाँ का उपदेश दिया उसकी पूजा, पुष्प, फल, नैवेद्य, धूप, दीप आदि से कमल-पुष्प और जल लेकर जिन-प्रतिमा का पूजन किया जाता से की जाय यह स्पष्ट रूप से अन्य परम्परा का प्रभाव है। चूँकि वैष्णव था। ज्ञाताधर्म द्रोपदी द्वारा मात्र पूजा करने का उल्लेख है। परम्परा में यह विधि प्रचलित थी, जैनों ने उन्हीं से गृहीत कर लिया किन्तु राजप्रश्नीय में जिन-प्रतिमा की पूजा-विधि निम्न प्रकार से और वे जिन-पूजा के अङ्ग मान लिये गए। वैष्णव परम्परा में वर्णित है
पञ्चोपचार-पूजा व षोडषोचार-पूजा के उल्लेख मिलते हैं। जैनों में उसके “तत्पश्चात् सूर्याभदेव चार हजार सामानिक देवों यावत् और दूसरे स्थान पर अष्टप्रकारी-पूजा एवं सतरह भेदी पूजा के उल्लेख हैं। दोनों बहुत से देवों और देवियों से परिवेष्ठित होकर अपनी समस्त ऋद्धि, में नाम क्रम आदि देखने पर यह सिद्ध होता है कि जैन परम्परा में वैभव यावत् वाद्यों की तुमुल ध्वनिपूर्वक जहाँ सिद्धायतन था, वहाँ पूजा-विधि का विकास वैष्णव परम्परा से प्रभावित है। सामान्यतया आया। पूर्व द्वार से प्रवेश करके जहाँ देवछंदक और जिन-प्रतिमाएँ भक्ति के क्षेत्र में विग्रह-पूजा की प्राथमिकता रही है और जैन परम्परा थीं, वहाँ आया। वहाँ आकर उसने जिन-प्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम में भी चाहे किंचित परवर्ती क्यों न हों, किन्तु जिन-मूर्तियों की पूजा करके लोममयी प्रमार्जनी (मयूर-पिच्छ की पूंजनी) हाथ में ली और के रूप में इसका प्रचलन हुआ। जैन पूजा-पद्धति वैष्णव भक्ति परम्परा प्रमार्जनी को लेकर जिन-प्रतिमाओं को प्रमार्जित किया। प्रमार्जित करके से न केवल प्रभावित रही, अपितु उसका अनुकरण मात्र है तथा जैन सुरभि गन्धोदक से उन जिन-प्रतिमाओं का प्रक्षालन किया। प्रक्षालन दर्शन की मान्यताओं के विरुद्ध है, इस तथ्य की पं० फूलचन्द्र जी करके सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप किया। लेप करके काषायिक सुरभि सिद्धान्त शास्त्री ने भी ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि में विस्तार से चर्चा की है। गन्ध से सुवासित वस्त्र से उनको पोछा। उन जिन-प्रतिमाओं को अखण्ड मैंने भी अपने लेख जैन धर्म के धार्मिक अनुष्ठान एवं कला तत्त्व
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