________________
जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा
४४१
साधक तीर्थंकरों के गुणकीर्तन या स्तवन के द्वारा निज में जिनत्व की किन्तु उसमें कही भी कुछ प्राप्त करने की कामना नहीं की गई है। शोध कर लेता है, स्वयं में निहित परमात्मशक्ति को प्रकट कर लेता इसी प्रकार शक्रस्तव अर्थात् इन्द्र के द्वारा की गई तीर्थकर की स्तुति है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि जैन साधना में भगवान् की के नाम से जाने वाले 'नमोत्थुणं' नामक स्तोत्र (ई० पू० ३री शती) स्तुति निरर्थक है। जैन साधना यह स्वीकार करती है कि भगवान् की में भी अरहंत एवं तीर्थंकर के गुणों का चित्रण होते हुए भी उनसे स्तुति प्रसुप्त अन्तश्चेतना को जाग्रत करती है और हमारे सामने साधना कहीं कोई उपलब्धि की आकांक्षा प्रदर्शित नहीं की गई है। जहाँ तक के आदर्श का एक जीवन्त चित्र उपस्थित करती है। इतना ही नहीं, मुझे स्मरण है, जैन परम्परा में सर्वप्रथम परमात्मा या प्रभु से कोई वह उस आदर्श की प्राप्ति के लिए प्रेरणा बनती है। जैन विचारकों याचना की गयी तो वह चतुर्विंशतिस्तवन (ई० सन् १ली शती) में ने यह भी स्वीकार किया है कि भगवान् की स्तुति के माध्यम से मनुष्य है। इस स्तवन में सर्वप्रथम प्रभु से आरोग्य, बोधि और समाधि की अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है। यद्यपि प्रयत्न व्यक्ति का याचना की गयी है। इसमें भी बोधि एवं समाधि तो आध्यात्मिक प्रत्यय ही होता है, तथापि साधना के आदर्श उन महापुरुषों का जीवन उसकी है, किन्तु आरोग्य को चाहे आध्यात्मिक साधना में आवश्यक माना प्रेरणा का निमित्त होता है। उत्तराध्ययनसूत्र (२९/९०) में कहा है कि जाय फिर भी वह एक लौकिक प्रत्यय ही है। प्रभु से आरोग्य की स्तवन से व्यक्ति की दर्शन-विशुद्धि होती है। यह भी कहा है कि कामना करना यह सूचित करता है कि जैन परम्परा की भक्ति की भगवद्भक्ति के फलस्वरूप पूर्वसंचित कर्मों का क्षय होता है। यद्यपि अवधारणा में अपनी सहवर्ती हिन्दू परम्परा का प्रभाव आया है, क्योंकि इसका कारण परमात्मा की कृपा नहीं, वरन् व्यक्ति के दृष्टिकोण की जैन दार्शनिक मान्यता के अनुसार तो प्रभु किसी को आरोग्य भी प्रदान विशुद्धि ही है। आचार्य भद्रबाहु ने इस बात को बड़े ही स्पष्ट रूप नहीं करते है। अरहंत के रूप में वह हमें मोक्ष-मार्ग या मुक्ति-पथ में स्वीकार किया है कि भगवान् के नाम-स्मरण से पापों का पुंज नष्ट का मात्र बोध कराते है, उसे भी चल कर पाना तो हमें ही होता है। होता है। आचार्य विनयचन्द्र भगवान् की स्तुति करते हुए कहते हैं- अतः इस चतुर्विंशति स्तवन में जो आरोग्य की कामना है वह निश्चित
पाप-पराल को पुंज वण्यो अति, मानो मेरू आकारो। रूप से जैन परम्परा पर अन्य परम्परा के प्रभाव का सूचक है। भविष्य ते तुम नाम हुताशन सेती, सहज ही प्रजलत सारो।। में तो इस प्रकार अन्य प्रयत्न भी हुए। जैन परम्परा में उवसग्गहर
इस प्रकार जैन धर्म में स्तुति या गुण-संकीर्तन को पाप का प्रणाशक स्तोत्र भी पर्याप्त रूप से प्रसिद्ध है। यह सामान्यतया भद्रबाहु द्वितीय तो माना गया किन्तु इसे ईश्वरीय कृपा का फल मान लेना उचित नहीं की कृति मानी जाती है। इसमें प्रभु से भक्त को उपसर्ग से छुटकारा है। जैन धर्म के अनुसार व्यक्ति के पापों के क्षय का कारण परमात्मा दिलाने की प्रार्थना की गई है। जिन विपत्तियों की चर्चा है उनमें ज्वर, की कृपा नहीं, किन्तु प्रभु स्तुति के माध्यम से हुए उसके शुद्ध सर्पदंश आदि भी सम्मिलित हैं। यह स्तोत्र इस बात का प्रमाण है आत्म-स्वरूप का बोध है। प्रभु की स्तुति के माध्यम से जब साधक कि जैन परम्परा में भक्ति का सकाम स्वरूप भी अन्ततोगत्वा विकसित अपने शुद्ध आत्म स्वरूप को जान लेता है, अपनी शक्ति का पहचान हो ही गया। यद्यपि जैन आचार्यों ने यहाँ जिन की स्तुति के साथ लेता है तो वह ज्ञाता-द्रष्टा भाव में अर्थात् आत्म-स्वभाव में स्थित पार्श्व-यक्ष की स्तुति को भी जोड़ दिया है। हो जाता है। फलतः वासनायें स्वतः ही क्षीण होने लगती हैं। इस वस्तुत: जब आचार्यों ने देखा होगा कि उपासकों को जैन धर्म प्रकार जैन धर्म में स्तुति से पापों का क्षय और आत्मविशुद्धि तो मानी में तभी स्थित रखा जा सकता है, जब उन्हें उनके भौतिक मङ्गल का गई किन्तु इसका कारण ईश्वरीय कृपा नहीं, अपितु अपने शुद्ध स्वरूप आश्वासन दिया जा सके। चूँकि तीर्थङ्कर द्वारा किसी भी स्थिति में भक्तों का बोध माना गया।
के भौतिक मङ्गल की कोई सम्भावना नहीं थी, इसलिए तीर्थङ्कर के इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में स्तवन या गुण- शासन-संरक्षक देवों के रूप में शासन देवता (यक्ष-यक्षी) की कल्पना संकीर्तन के रूप में जिस भक्ति तत्त्व का विकास हुआ, वह निष्काम। आयी और इस रूप में हिन्दू परम्परा के ही अनेक देव-देवियों को भक्ति का ही एक रूप था।
न केवल समाहित किया गया, अपितु यह भी माना गया कि उनकी
उपासना या भक्ति करने पर वे प्रसन्न होकर भौतिक दुःखों को दूर जैनधर्म और सकाम भक्ति
करते हैं। यक्ष-यक्षिणियों के जैन धर्म में प्रवेश के साथ ही उसमें हिन्दू निष्काम भक्ति की यह अवधारणा आदर्श होते हुए भी सामान्यजन धर्म की कर्म-काण्डपरक तान्त्रिक उपासना पद्धति भी कुछ संशोधनों के लिए दुःसाध्य ही है। सामान्यजन एक ऐसे भगवान् की कल्पना एवं परिवर्तनों के साथ समाहित कर ली गई। करते हैं जो प्रसन्न होकर उसके दुःखों को दूर कर उसे इहलौकिक जैन स्तोत्र साहित्य में संस्कृत में जो सुन्दर स्तुतियाँ लिखी गईं सुख प्रदान कर सके। यही कारण रहा कि जैन धर्म में स्तुति की निष्कामता उनमें सिद्धसेन दिवाकर की द्वात्रिंशिकाएँ तथा समन्तभद्र के देवागम धीरे-धीरे कम होती गयी और स्तुतियाँ तथा प्रार्थनायें ऐहिक लाभ आदि स्तोत्र प्रसिद्ध हैं। संस्कृत में रचित ये स्तुतियाँ न केवल जिन-स्तुति के साथ जुड़ती गयीं। जैन परम्परा में स्तुति का सबसे प्राचीन रूप हैं, अपितु जिन-स्तुति के ब्याज से प्रचलित दार्शनिक मान्यताओं की सूत्रकृतांग (ई०पू०४थी-३री शती) के छठे अध्ययन में 'वीर-स्तुति' सुन्दर समीक्षा भी हैं। इन स्तुतियों में जैन धर्म का दार्शनिक स्वरूप के नाम से उपलब्ध है। इसमें महावीर के गुणों का संकीर्तन तो है अधिक उभरकर सामने आया है। इसलिए इन स्तुतियों को भक्तिपरक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org