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कम और दर्शनपरक अधिक माना जा सकता है।
आठवीं नवीं शती के पश्चात् जिन भक्तिपरक स्तोत्रों की रचना जैन परम्परा में हुई, उनमें भक्तामरस्तोत्र, कल्याणमंदिरस्तोत्र आदि • प्रसिद्ध हैं। यद्यपि ये स्तोत्र जैन परम्परा में सकाम भक्ति की अवधारणा के विकास के बाद ही रचित है। इनमें पद-पद पर लौकिक कल्याण की प्रार्थनाएँ भी हैं। परवर्ती काल में तो मरू गुर्जर, पुरानी हिन्दी आदि में बहुत सी स्तुतियाँ लिखी गईं, जिनमें आध्यात्मिक कल्याण के साथ-साथ लौकिक कल्याण की प्रार्थना की गई। आनन्दघन और देवचन्द जैसे कवियों की चौबीसियाँ भक्तिरस से ओत-प्रोत हैं । मध्यकाल में विष्णुसहस्रनाम के समान जैन परम्परा में भी जिनसहस्त्रनाम जैसे ग्रन्थ लिखे गए। इस प्रकार हम देखते है कि जैन परम्परा में स्तुतियों एवं स्तुतिपरक साहित्य की रचना अति प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान युग तक जीवित रही है और हजारों की संख्या में भक्ति गीत लिखे गये जिनका सम्पूर्ण विवरण प्रस्तुत करना इस लेख में सम्भव नहीं है।
यद्यपि जैन धर्म में सकाम स्तुतियों या प्रार्थनाओं के रूप यत्र-तत्र परिलक्षित होते हैं, किन्तु वीतरागता और मुक्ति की आकांक्षी जैन परम्परा में फलाकांक्षा से युक्त सकाम भक्ति का कोई स्थान नहीं हो सकता है, यह हमें स्मरण रहना चाहिए, क्योंकि जैन परम्परा में फलाकांक्षा को शल्य (कांटा) कहा गया है। फलाकांक्षा सहित भक्ति को निदान शल्य कहा गया है। जैन परम्परा में भक्ति का यथार्थ आदर्श क्या है? इसे जैन कवि धनञ्जय ने निम्न शब्दों में अभिव्यक्त किया है इति स्तुतिं देव विधाय दैन्याद्, वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि । छाया तरुं सश्रयतः स्वतः स्यात् कश्छाया याचितयाऽऽत्मलाभः । अथास्ति दित्सा यदिवोपरोधः त्वय्येव सक्तां दिश भक्ति बुद्धिं । करिष्यते देव तथा कुपां मे को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरीः ।
"हे प्रभु! इस प्रकार आपकी स्तुति करके मैं आपसे कोई वरदान नहीं मांगना चाहता हूँ, क्योंकि कुछ मांगना तो एक प्रकार की दीनता है, पुनः आप राग-द्वेष से रहित है, बिना राग के कौन किस की आकांक्षा पूरी करता है, पुनः छायावाले वृक्ष के नीचे बैठकर छाया की याचना करना तो व्यर्थ ही है। वह तो स्वतः ही प्राप्त हो जाती है।" इस प्रकार जैन दर्शन में भक्ति का उत्स तो निष्कामता ही है उसमें सकामता जो तत्त्व प्रविष्ट हुआ है, वह हिन्दू परम्परा और समसामयिक परिस्थितियों का प्रभाव है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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जैन परम्परा में स्तुति या स्तवन का महत्त्व तो इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाता है, उसमें मुनि अथवा गृहस्थ के जो दैनिक षट् आवश्यक कर्तव्य बताये गए हैं, उसमें दूसरे क्रम पर स्तुति का निरुपण है । अतः हम कह सकते हैं कि श्रद्धा के साथ-साथ जैन धर्म में भक्ति का दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष स्तुति भी स्वीकृत रहा है।
स्तुति वस्तुतः उपास्य के गुणों का ही संकीर्तन है। जैन परम्परा में जो स्तुतियाँ उपलब्ध हैं, उनमें अरहंत, सिद्ध या तीर्थङ्कर के गुणों का संकीर्तन किया जाता है, किन्तु इसका मुख्य उद्देश्य तो आत्मा की शुद्ध स्वभाव-दशा की उपलब्धि ही है संत आनन्दघन जी लिखते हैं"
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आपनो आतम भावजे एक चेतननो अधार रे । अवर सवि साथ संजोगथी, ए निज परिकर सार रे ।। प्रभु मुख थी इम सांभली, कहै आतमराम रे । थाहरै दरिसणे निस्तरयो, मुझ सीधा सवि काम रे || शांति जिन स्तवन
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वंदन
वंदन का जैन परम्परा में मुनि व गृहस्थ दोनों के षट् आवश्यक कर्त्तव्यों में तीसरा स्थान है । पुण्य कर्म के विवेचन में भी नमस्कार
पुण्य कहा गया है। नमस्कार या वंदन तभी सम्भव होता है जब उसमें वंदनीय के प्रति पूज्य - बुद्धि या समादर भाव हो। इस प्रकार वंदन भी भक्ति का एक रूप है। जैनों के पवित्र नमस्कार मन्त्र में पाँच पदों को वंदन किया गया है। वे पाँच पद हैं— १. अरहंत, २. सिद्ध, ३. आचार्य, ४. उपाध्याय और ५. साधु यहाँ विशेष रूप से ज्ञातव्य यह है कि इस नमस्कार मन्त्र में विशिष्ट गुणों के धारण करने वाले पदों को नमस्कार किया गया है। वंदन में मुख्य रूप से अरहंत, सिद्ध आचार्य, गुरु एवं अपने से पद योग्यता, दीक्षा आदि में ज्येष्ठ व्यक्ति को वंदनीय माना जाता है। वंदन का यह तत्त्व एक ओर व्यक्ति के अहंकार को विगलित करने का साधन है तो दूसरी ओर विनय गुण का भी विकास करता है। यह सुस्पष्ट है कि अहंकार को सभी धर्म और परम्पराओं में दुर्गुण माना गया है। जैन धर्म में विनय को धर्म का मूल या आधार कहा गया है।
जैन परम्परा में इस प्रश्न पर भी गम्भीरता से विचार किया गया है कि वंदनीय कौन है? जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं, जैन परम्परा में उपर्युक्त पाँच पद को धारण करने वाले व्यक्ति ही वंदनीय माने गये हैं । किन्तु साथ ही यह भी कहा गया है कि जिन व्यक्तियों में इन पदों के लिए वर्णित योग्यता का अभाव है वे वेश या पद पर स्थापित हो जाने मात्र से वंदनीय नहीं बन जाते। जैन परम्परा स्पष्ट रूप से शिथिलाचारियों के वंदन और संसर्ग का निषेध करती है, क्योंकि इनके माध्यम से समाज में दुष्प्रवृत्तियों को न केवल बढ़ावा मिलता है अपितु सामाजिक जीवन में भी शिथिलाचार आने की सम्भावना रहती है। अतः वंदन किसको किया जाय और किसे न किया जाय, इस सम्बन्ध में विवेक को आवश्यक माना गया है। वंदन कैसे किया जाय, इस सम्बन्ध में भी जैन परम्परा में विस्तार से चर्चा उपलब्ध होती है, साथ ही उसमें सदोष वंदन के ३२ दोषों का चित्रण भी हुआ है। विस्तारभय से उसकी चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है। जैनों के नमस्कार मन्त्र में जो पाँच पद वंदनीय है उनमें नीर या अर्हत् के लिए केवल सिद्ध पद वंदनीय होता है। आचार्य के लिए अरहंत और सिद्ध ये दो पद वंदनीय हैं। इसीलिए प्राचीन अभिलेखों में सामान्यतया अरहंत व सिद्ध ऐसे दो पदों के नमस्कार का उल्लेख है उपाध्याय के लिए अरहंत, सिद्ध एवं आचार्य, ये तीन पद वंदनीय है। जबकि सामान्य मुनियों के लिए अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और अपने से दीक्षा में ज्येष्ठ मुनि इस प्रकार पाँचों ही पद वंदनीय होते हैं। इसी प्रकार गृहस्थ के लिए भी उपर्युक्त पाँचों ही पद वंदनीय
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