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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
जिन
ग्रहण किया, किन्तु उसे अपनी तत्त्व योजना के चौखटे में प्रस्तुत से किसी प्रकार की उपलब्धि की अपेक्षा नहीं होती। तीर्थकर एवं सिद्ध करने का प्रयास किया है, यद्यपि कहीं-कहीं इसमें स्खलना भी परमात्मा मात्र साधना के आदर्श हैं। वे न तो किसी को संसार से
पार करा सकते हैं और न उसकी किसी प्रकार की उपलब्धि में सहायक
होते हैं। फिर भी स्तुति के माध्यम से साधक उनके गुणों के प्रति जैन धर्म में स्तुति, गुण-संकीर्तन एवं प्रार्थना का प्रयोजन अपनी श्रद्धा को सजीव बना लेता है। साधक के सामने उनका महान्
जैन धर्म में भक्ति के जो दूसरे रूप स्तुति, गुण-संकीर्तन, प्रार्थना आदर्श जीवन्त रूप में उपस्थित हो जाता है। वह अपने हृदय में तीर्थंकरों आदि हैं, उनका स्वरूप वर्तमान में तो बहुत कुछ हिन्दु परम्परा के के आदर्श का स्मरण करता हुआ आत्मा में एक आध्यात्मिक पूर्णता समान ही हो गया है और जैन भक्त भी अपने प्रभु से सब कुछ माँगने की भावना प्रकट करता है। वह विचार करता है कि आत्मतत्त्व के लगा है। किन्तु अपने प्राथमिक रूप में जैन स्तुतियों का हिन्दू परम्परा रूप में मेरी आत्मा और तीर्थकरों की आत्मा समान ही है, यदि मैं की स्तुतियों से एक अन्तर रहा है। हिन्दु परम्परा अपने प्राचीन काल स्वयं प्रयत्न करूँ, तो उनके समान ही बन सकता हूँ। मुझे अपने से ही इस तथ्य में विश्वास करती रही है कि स्तुति या भक्ति के माध्यम पुरुषार्थ से उनके समान बनने का प्रयत्न करना चाहिए। जैन मान्यता हम जिस प्रभु की आराधना करते हैं, वह प्रसन्न होकर हमारे कष्टों तो यह है कि व्यक्ति अपने ही प्रयत्नों से अपना आध्यात्मिक उत्थान को मिटा देता है। उसमें ईश्वरीय या देवीकृपा का तत्त्व सदैव ही स्वीकृत या पतन कर सकता है। स्वयं पाप से मुक्ति होने का प्रयत्न न करके रहा है। गीता में भक्त और भक्ति के चार रूपों की चर्चा है-१. अर्थार्थी, केवल भगवान् से मुक्ति की प्रार्थना करना जैन विचारणा की दृष्टि से २. आर्त, ३. जिज्ञासु एवं ४. ज्ञानी। यद्यपि गीता ने जिज्ञासु या सर्वथा निरर्थक है। ऐसी विवेक शून्य प्रार्थनाओं ने मानव जाति को ज्ञानी को ही सच्चा भक्त निरूपति किया है, किन्तु भक्ति का जो रूप सब प्रकार से हीन, दीन एवं परापेक्षी बनाया है। जब मनुष्य किसी हिन्दू धर्म में प्रचलित रहा है, उसमें ईश्वरीय या दैवीय कृपा की प्राप्ति ऐसे उद्धारक में विश्वास करने लगता है, जो उसकी स्तुति से प्रसन्न का प्रयोजन तो सदैव ही प्रमुख रहा है, किन्तु जैनधर्म में उसको कोई होकर उसे पाप से उबार लेगा, तो ऐसी निष्ठा से सदाचार की मान्यताओं खास स्थान नहीं है, क्योंकि जैनों का परमात्मा किसी का कल्याण को भी गहरा धक्का लगता है। जैन विचारकों की यह स्पष्ट मान्यता या अकल्याण करने में समर्थ नहीं है।सामान्यतया व्यक्ति दुःख या पीड़ा है कि केवल तीर्थंकरों की स्तुति करने से मोक्ष एवं समाधि की प्राप्ति की स्थिति में उससे त्राण पाने के लिए प्रभु की भक्ति करता है। वह नहीं होती, जब तक कि मनुष्य स्वयं उसके लिए प्रयास न करे। भक्ति के नाम पर भगवान् से भी कोई सौदा ही करता है। वह कहता जैन विचारकों के अनुसार तीर्थंकर तो साधना मार्ग के प्रकाशस्तम्भ है कि यदि मेरी अमुक मनोकामना पूर्ण होगी तो मैं आप की विशिष्ट हैं। जिस प्रकार गति करना जहाज का कार्य है, उसी प्रकार साधना रूप से पूजा करूँगा या विशिष्ट प्रसाद समर्पित करुंगा। चूँकि जैन की दिशा में आगे बढ़ना साधक का कार्य है। जैसे प्रकाश-स्तम्भ की धर्म में प्रारम्भ से ही तीर्थंकर को वीतराग माना गया है, अत: वह उपस्थिति में भी जहाज समुद्र में बिना गति के उस पार नहीं पहुँचता, न तो भक्तों का कल्याण कर सकता है और न दुष्टों का संहार। जहाँ वैसे ही केवल नाम-स्मरण या भक्ति साधक को निर्वाण-लाभ नहीं गीता तथा अन्य ग्रन्थों में प्रभु के अवतरण का मुख्य प्रयोजन दुष्टों करा सकती, जब तक कि उसके लिए सम्यक् प्रयत्न न हो। हमें स्मरण का संहार एवं धर्म-मार्ग की स्थापना माना गया है, वहाँ जैन परम्परा रखना चाहिए कि जैन परम्परा में भक्ति का लक्ष्य आत्मा के शुद्धमें तीर्थंकर का उद्देश्य मात्र धर्म-मार्ग की संस्थापना करना है। जैनों स्वरूप का बोध या साक्षात्कार है, अपने में निहित परमात्मशक्ति को का परमात्मा गीता के परमात्मा के समान इस प्रकार का कोई आश्वासन अभिव्यक्त करना है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं- “सम्यग्ज्ञान और नहीं दे पाता है कि तुम मेरे प्रति पूर्णत: समर्पित हो जाओ, मैं तुम्हें आचरण से युक्त हो निर्वाणाभिमुख होना ही गृहस्थ और श्रमण की सब पापों से मुक्ति दूँगा। जैन धर्म में प्राचीन काल में स्तुति का प्रयोजन वास्तविक भक्ति है। मुक्ति को प्राप्त पुरुषों के गुणों का कीर्तन करना प्रभु से कुछ पाना नहीं रहा है। स्तुति के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए व्यावहारिक भक्ति है। वास्तविक भक्ति तो आत्मा को मोक्षपथ में योजित आचार्य समन्तभद्र अपने ग्रन्थ देवागमस्तोत्र में कहते हैं कि- . करना है। राग-द्वेष एवं विकल्पों का परिहार करके विशुद्ध आत्मतत्त्व
हे प्रभु ! न तो मैं आपको प्रसन्न करने के लिए आपकी भक्ति से योजित होना ही वास्तविक भक्ति-योग है। ऋषभ आदि सभी तीर्थकर या पूजा करता हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि आप वीतराग हैं अतः इसी भक्ति के द्वारा परमपद को प्राप्त हुए हैं।" इस प्रकार भक्ति या मेरी पूजा से प्रसन्न होने वाले नहीं है।
स्तवन मूलत: आत्मबोध है, वह अपना ही कीर्तन और स्तवन है। इसी प्रकार आप निन्दा करने पर कुपित भी नही होंगे चूँकि आप जैन दर्शन में भक्ति के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय विवान्त-वैर हैं, मै तो आप की भक्ति केवल इसलिए करता हूँ कि देवचन्द्रजी लिखते हैंआप के पुण्य गुणों की स्मृति से मेरा चित्त पाप रूपी मल से रहित अज-कुल-गत केशरी लहरे, निज पद सिंह निहाल। होगा।
तिम प्रभु भक्ति भवी लहेरे, आतम शक्ति संभाल।। स्मरण रखना चाहिए कि जैन विचारधारा के अनुसार साधना जिस प्रकार अज कुल में पालित सिंहशावक वास्तविक सिंह के आदर्श के रूप में जिनकी स्तुति की जाती है, उन आदर्श पुरुषों के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर लेता है, उसी प्रकार
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