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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ में झांकने की प्रक्रिया है। स्वयं को जानने और पहचानने की वृत्ति के स्पष्टीकरण के निमित्त प्रश्न-उत्तर करना। के अभाव से सूत्रों या ग्रन्थों के अध्ययन का कोई भी लाभ नहीं होता। ३. पूर्व पठित ग्रन्थ की पुनरावृत्ति या पारायण करना, यह अन्तर्चक्षु के उन्मीलन के बिना ज्ञान का प्रकाश सार्थक नहीं बन पाता परावर्तना है। है। कहा भी है
४.पूर्व पठित विषय के सन्दर्भ में चिन्तन-मनन करना सुबहंपि सुयमहीयं, किं काही? चरणविप्पहीणस्स।
अनुप्रेक्षा है। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्स कोडिवि ।।
५. इसी प्रकार अध्ययन के माध्यम से जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, अप्पंपि सुयमहीयं, पयासयं होई चरणजुत्तस्स।।
उसे दूसरों को प्रदान करना या धर्मोपदेश देना धर्मकथा है। इक्को वि जह पईवो, सचक्खुअस्स पयासेई ।।
यहाँ यह भी स्मरण रखना है कि स्वाध्याय के क्षेत्र में इन पाँच अर्थात् जैसे अंधे व्यक्ति के लिए करोड़ों दीपकों का प्रकाश भी अवस्थाओं का एक क्रम है। इनमें प्रथम स्थान वाचना का है। अध्ययन व्यर्थ है, किन्तु आँख वाले व्यक्ति के लिए एक भी दीपक का प्रकाश किए गए विषय के स्पष्ट बोध के लिए प्रश्नोत्तर के माध्यम से शंका सार्थक होता है, उसी प्रकार जिसके अन्तर्चक्षु खुल गये हैं, जिसकी का निवारण करना, इसका क्रम दूसरा है, क्योंकि जब तक अध्ययन अन्तर्यात्रा प्रारम्भ हो चुकी है, ऐसे आध्यात्मिक साधक के लिए स्वल्प नहीं होगा तब तक शंका आदि भी नहीं होगें। अध्ययन किए गए अध्ययन भी लाभप्रद होता है, अन्यथा आत्म-विस्मृत व्यक्ति के लिए विषय के स्थिरीकरण के लिए उसका पारायण आवश्यक है। इससे करोड़ों पदों का ज्ञान भी निरर्थक है। स्वाध्याय में अन्तर्चक्षु का खुलना, एक ओर स्मृति सुदृढ़ होती है तो दूसरी ओर क्रमश: अर्थ-बोध में आत्मद्रष्टा बनना, स्वयं में झांकना, पहली शर्त है तथा शास्त्र का पढ़ना स्पष्टता का विकास होता है। इसके पश्चात् अनुप्रेक्षा या चिन्तन का या अध्ययन करना उसका दूसरी शर्त है।
क्रम आता है। चिन्तन के माध्यम से व्यक्ति पठित विषय को न केवल स्वाध्याय शब्द की दूसरी व्याख्या सु+आ+अधि ईङ्- इस रूप स्थिर करता है, अपितु वह उसके अर्थबोध की गहराई में जाकर स्वत: में भी की गई है। इस दृष्टि से स्वाध्याय की परिभाषा होती है- की अनुभूति के स्तर पर उसे समझने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार शोभनोऽध्याय: स्वाध्यायः अर्थात् सत्साहित्य का अध्ययन करना ही चिन्तन एवं मनन के द्वारा जब विषय स्पष्ट हो जाय, तो व्यक्ति को स्वाध्याय है। स्वाध्याय की इन दोनों परिभाषाओं के आधार पर एक धर्मोपदेश देने या अध्ययन कराने का अधिकार मिलता है। बात जो उभर कर सामने आती है वह यह कि सभी प्रकार का पठनपाठन स्वाध्याय नहीं है। आत्म-विशुद्धि के लिए किया गया अपनी स्वाध्याय के लाभ स्वकीय वृत्तियों, भावनाओं व वासनाओं अथवा विचारों का अध्ययन उत्तराध्ययनसूत्र में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि स्वाध्याय या निरीक्षण तथा ऐसे सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन, जो हमारी चैत्तसिक से जीव को क्या लाभ होता है? इसके उत्तर में कहा गया है कि विकृतियों के समझने और उन्हें दूर करने में सहायक हों, ही स्वाध्याय स्वाध्याय से ज्ञानावरणकर्म का क्षय होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा के अन्तर्गत आता है। विषय-वासनावर्द्धक, भोगाकांक्षाओं को उदीप्त मिथ्याज्ञान का आवरण दूर करके सम्यग्ज्ञान का अर्जन करता है। करने वाले, चित्त को विचलित करने वाले तथा आध्यात्मिक शान्ति स्वाध्याय के इस सामान्य लाभ की चर्चा के साथ उत्तराध्ययनसूत्र में
और समता को भंग करने वाले साहित्य का अध्ययन स्वाध्याय की स्वाध्याय के पाँचों अंगों-वाचना, प्रतिपृच्छना, धर्मकथा आदि के कोटि में नहीं आता है। उन्हीं ग्रन्थों का अध्ययन ही स्वाध्याय की अपने-अपने क्या लाभ होते हैं इसकी भी चर्चा की गयी है, जो निम्न कोटि में आता है जिससे चित्तवृत्तियों की चंचलता कम होती हो, मन रूप में पायी जाती हैप्रशान्त होता हो और जीवन में सन्तोष की वृत्ति विकसित भन्ते! वाचना (अध्ययन) से जीव को क्या प्राप्त होता है? होती हो।
वाचना से जीव कर्मों की निर्जरा करता है, श्रुतज्ञान की आशातना
के दोष से दूर रहने वाला वह तीर्थ-धर्म का अवलम्बन करता है तथा स्वाध्याय का स्वरूप
गणधरों के समान जिज्ञासु शिष्यों को श्रुत प्रदान करता है। तीर्थ-धर्म स्वाध्याय के अन्तर्गत कौन सी प्रवृत्तियाँ आती हैं, इसका का अवलम्बन लेकर कर्मों की महानिर्जरा करता है और महापर्यवसान विश्लेषण जैन परम्परा में विस्तार से किया गया है। स्वाध्याय के पाँच (संसार का अन्त) करता है। अंग माने गये हैं.-१. वाचना २. प्रतिपच्छना ३. परावर्तन ४. अनुप्रेक्षा भन्ते! प्रतिपृच्छना से जीव को क्या प्राप्त होता है? और ५. धर्मकथा।
प्रतिपृच्छना (पूर्वपठित शास्त्र के सम्बन्ध में शंका निवृत्ति के लिए १. गुरु के सानिध में सद्ग्रन्थों का अध्ययन करना वाचना है। प्रश्न करना) से जीव सूत्र, अर्थ और तदुभय अर्थात् दोनों से सम्बन्धित वर्तमान सन्दर्भ में हम किसी सद्ग्रन्थों के पठन-पाठन एवं अध्ययन कांक्षामोहनीय (संशय) का निराकरण करता है। को वाचना के अर्थ में गृहित कर सकते हैं।
भन्ते! परावर्तना से जीव को क्या प्राप्त होता है? २. प्रतिपृच्छना का अर्थ है पठित या पढ़े जाने वाले ग्रन्थ के परावर्तना से अर्थात् पठित पाठ के पुनरावर्तन से व्यंजन (शब्दअर्थबोध में सन्देह आदि की निवृत्ति हेतु जिज्ञासावृत्ति से, या विषय पाठ) स्थिर होता है और जीव पदानुसारिता आदि व्यंजना-लब्धि को
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