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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
अन्य अङ्ग-आगम और समाधिमरण
उपासकदशासूत्र में भगवान् महावीर के आनन्द, कामदेव, सकडालपुत्र, आचाराङ्गसूत्र व उत्तराध्ययनसूत्र के पश्चात् अर्धमागधी में चुलिनीपिता आदि दश गृहस्थ उपासकों द्वारा समाधिमरण ग्रहण करने स्थानाङ्गसूत्र और समवायाङ्गसूत्र में समाधिमरण से सम्बन्धित मात्र कुछ और उनमें विघ्नों के उपस्थित होने तथा आनन्द को इस अवस्था में सङ्केत हैं। स्थानाङ्गसूत्र (२/४) में दो-दो के वर्गों में विभाजित करते विस्तृत अवधिज्ञान उत्पन्न होने, गौतम के द्वारा आनन्द से क्षमा-याचना हुए श्रमण भगवान् महावीर द्वारा अनुमोदित मरणों का उल्लेख है। करने आदि के उल्लेख हैं। इसी प्रकार अन्तकृत्दशासूत्र में कुछ श्रमणों महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के मरण कभी भी वर्णित, और आर्यिकाओं द्वारा समाधिमरण स्वीकार करने और उस दशा में कीर्तित, उक्त, प्रशंसित और अननुमोदित नहीं किये हैं- वलन्मरण कैवल्य एवं मोक्ष प्राप्त करने के निर्देश हैं। किन्तु विस्तार भय से और वशार्तमरण। इसी प्रकार निदानमरण और तद्भवमरण, गिरिपतन इन सबकी चर्चा में जाना हम यहाँ आवश्यक नहीं समझते। इतना और तरुपतनमरण, जलप्रवेशमरण और अग्निप्रवेशमरण, विषभक्षणमरण अवश्य ज्ञातव्य है कि इनमें से कुछ कथाओं के निर्देश श्वेताम्बर परम्परा और शास्त्रावपातनमरण। ये दो-दो प्रकार के मरण श्रमण-निर्ग्रन्थों के में मरणविभक्ति में तथा अचेल परम्परा के भगवती आराधना में भी लिए श्रमण भगवान् महावीर ने कभी भी वर्णित, कीर्तित, उक्त, प्रशंसित पाये जाते हैं। यहाँ हम केवल अन्तकृत्दशासूत्र (वर्ग८, अध्याय१)
और अनुमोदित नहीं किये हैं। किन्तु कारण-विशेष होने पर वैहायस का वह उल्लेख करना चाहेंगे जिसमें साधक किस स्थिति में समाधिमरण (वैरवानस) और गृद्धपृष्ठ ये दो मरण अनुमोदित किये हैं। श्रमण महावीर ग्रहण करता था, इसका सुन्दर चित्रण किया गया है - ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के मरण सदा वर्णित, कीर्तित, “तत्पश्चात् काली आर्या, उस उराल-प्रधान, विपुल, दीर्घकालीन, उक्त, प्रशंसित और अनुमोदित किये हैं- प्रायोपगमनमरण और भक्त विस्तीर्ण, सश्रीक-शोभासम्पन्न, गुरु द्वारा प्रदत्त अथवा प्रयत्नसाध्य, प्रत्याख्यानमरण। प्रायोपगमनमरण दो प्रकार का कहा गया है- निर्हारिम बहुमानपूर्वक गृहीत, कल्याणकारी, निरोगता-जनक, शिव-मुक्ति के
और अनिर्हारिम। प्रायोपगमनमरण नियमतः अप्रतिकर्म होता है। कारण-भूत, धन्य, माङ्गल्य, पापविनाशक, उदग्र-तीव्र, उदार-निष्काम भक्तप्रत्याख्यानमरण दो प्रकार का कहा गया है- निरिम और होने के कारण औदार्य वाले, उत्तम, अज्ञान अन्धकार से रहित और अनि रिम। भक्तप्रत्याख्यानमरण नियमतः सप्रतिकर्म होता है। महान् प्रभाव वाले, तप-कर्म से शुष्क, नीरस शरीर वाली, रुक्ष, मांस
समवायाङ्गसूत्र (समवाय १७) में मरण के निम्न सतरह प्रकारों रहित और नसों से व्याप्त हो गयी थी। जैसे कोई कोयलों से भरी का उल्लेख हुआ है -
गाड़ी हो, सूखी लकड़ियों से भरी गाड़ी हो, पत्तों से भरी गाड़ी हो, १. आवीचिमरण, २. अवधिमरण, ३. आत्यान्तिकमरण, धूप में डालकर सुखाई हो अर्थात् कोयला, लकड़ी पत्ते आदि खूब ४. वलन्मरण, ५. वशार्तमरण, ६. अन्त:शल्यमरण, ७. तद्भव मरण, सूखा लिये गये हों और फिर गाड़ी में भरे गये हों, तो वह गाड़ी ८. बालमरण, ९. पण्डितमरण, १०. बालपण्डितमरण, ११. छद्मस्थ- खड़-खड़ आवाज करती हुई चलती है और ठहरती है, उसी प्रकार मरण, १२. केवलिमरण, १३. वैखानसमरण, १४. गृद्धपृष्टमरण, काली आर्या हाड़ों की खड़-खड़ाहट के साथ चलती थी और १५. भक्तप्रत्याख्यानमरण, १६. इङ्गितिमरण एवं १७. पादोपगमनमरण।। खड़-खड़ाहट के साथ ठहरती थी। वह तपस्या से तो उपचित-वृद्धि
इनमें से बालपण्डितमरण, पण्डितमरण, छद्मस्थमरण, केवलीमरण, को प्राप्त थी, मगर मांस और रुधिर से अपचित-ह्रास को प्राप्त हो भक्तप्रत्याख्यानमरण, इङ्गितिमरण व प्रायोपगमनमरण का सम्बन्ध गयी थी। भस्म के समूह से आच्छादित अग्नि की तरह तपस्या के समाधिमरण से है। किन्हीं स्थितियों में वैखानसमरण, गृद्धपृष्टमरण तेज से देदीप्यमान वह तपस्तेज की लक्ष्मी से अतीव शोभायमान हो को जैन परम्परा में भी उचित माना गया है। किन्तु ये दोनों अपवादिक रही थी। स्थिति में ही उचित माने गये हैं, जैसे जब ब्रह्मचर्य के पालन और एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में काली आर्या के हृदय में स्कन्दमुनि जीवन के संरक्षण में एक ही विकल्प हो, तो ऐसी स्थिति में वैखानसमरण के समान यह विचार उत्पन्न हुआ- "इस कठोर तपसाधना के कारण द्वारा शरीर त्याग को उचित माना गया है। ज्ञातव्य है कि भगवती मेरा शरीर अत्यन्त कृश हो गया है। तथापि जब तक मेरे इस शरीर आराधना में भी समवायाङ्ग के समान ही मरण के उपर्युक्त सतरह प्रकारों में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार-पराक्रम है, मन में श्रद्धा, का उल्लेख है। यद्यपि कहीं-कहीं उनके नाम एवं क्रम में अन्तर दिखायी धैर्य एवं वैराग्य है तब तक मेरे लिये उचित है कि कल सूर्योदय देता है। उदाहरणार्थ समवायाङ्ग में छद्मस्थमरण का उल्लेख है जबकि होने के पश्चात् आर्या चन्दना से पूछकर, उनकी आज्ञा प्राप्त होने पर, भगवती आराधना में इसका उल्लेख नहीं है। इसके स्थान पर उसमें संलेखना झूषणा का सेवन करती हुई भक्तपान का त्याग करके, मृत्यु
ओसन्नमरण का उल्लेख है। समवायाङ्गसूत्र के पश्चात् ज्ञाताधर्मकथासूत्र, के प्रति निष्काम होकर विचरण करूँ।" ऐसा सोचकर वह अगले दिन उपासकदशासूत्र, अन्तकृत्शासूत्र, अनुत्तरौपपातिकदशासूत्र तथा विपाकदशा- सूर्योदय होते ही जहाँ आर्या चन्दना थी वहाँ आई और वन्दना-नमस्कार सूत्र, आदि अङ्ग आगमों में जीवन के अन्तिम काल में संलेखना द्वारा कर इस प्रकार बोली- "हे आयें! आपकी आज्ञा हो तो मैं संलेखना शरीर त्यागने वाले साधकों की कथाएँ हैं। इसमें भगवतीसूत्र में अम्बड़ झूषणा करती हुई विचरना चाहती हूँ।" आर्या चन्दना ने कहा- “हे संन्यासी और उसके ५०० शिष्यों के द्वारा अदत्त जल का सेवन नहीं देवानुप्रिये! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसा करो। सत्कार्य में विलम्ब न करो।" करते हुए गङ्गा की बालू पर समाधिमरण लेने का उल्लेख है। तब आर्या चन्दना की आज्ञा पाकर काली आर्या संलेखना झूषणा ग्रहण
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