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जैन धर्म का त्रिविध साधना-मार्ग
४११ प्राथमिक मानते हैं तो कुछ ज्ञान को, कुछ ने दोनों का यौगपत्य में प्राप्त हुई श्रद्धा से नहीं हो सकता। ज्ञानाभाव में जो श्रद्धा होती (समानान्तरता) स्वीकार किया है। यद्यपि आचारमीमांसा की दृष्टि से है, उसमें संशय होने की सम्भावना हो सकती है। ऐसी श्रद्धा यथार्थ दर्शन की प्राथमिकता ही प्रबल रही है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है श्रद्धा नहीं वरन् अन्धश्रद्धा ही हो सकती है। जिन प्रणीत तत्त्वों में कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। इस प्रकार ज्ञान की अपेक्षा भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके स्वानुभव एवं तार्किक परीक्षण के पश्चात् दर्शन को प्राथमिकता दी गयी है। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति ने भी ही हो सकती है। यद्यपि साधना के लिए, आचरण के लिए श्रद्धा अपने ग्रन्थ में दर्शन को ज्ञान और चारित्र के पहले स्थान दिया है।६ अनिवार्य तत्त्व है, लेकिन वह ज्ञानप्रसूत होनी चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनपाहुड में कहते हैं कि धर्म (साधना-मार्ग) में स्पष्ट कहा है कि धर्म की समीक्षा प्रज्ञा के द्वारा करें, तर्क से तत्त्व दर्शन-प्रधान है।
का विश्लेषण करें। इस प्रकार मेरी मान्यता के अनुसार यथार्थ दृष्टिपरक लेकिन दूसरी ओर कुछ सन्दर्भ ऐसे भी हैं जिनमें ज्ञान को प्रथम अर्थ में सम्यग्दर्शन को ज्ञान के पूर्व लेना चाहिए, जबकि श्रद्धापरक माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में, उसी अध्याय में मोक्ष-मार्ग की विवेचना अर्थ में उसे ज्ञान के पश्चात् स्थान देना चाहिए। में जो क्रम है उसमें ज्ञान का स्थान प्रथम है। वस्तुत: साधनात्मक जीवन की दृष्टि से भी ज्ञान और दर्शन में किसे प्राथमिक माना जाय, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र का पूर्वापर सम्बन्य यह निर्णय करना सहज नहीं है। इस विवाद के मूल में यह तथ्य चारित्र और ज्ञान दर्शन के पूर्वापर सम्बन्ध को लेकर जैन विचारणा है कि श्रद्धावादी दृष्टिकोण सम्यग्दर्शन को प्रथम स्थान देता है, जबकि में कोई विवाद नहीं है। चारित्र की अपेक्षा ज्ञान और दर्शन को प्राथमिकता ज्ञानवादी दृष्टिकोण श्रद्धा के सम्यक् होने के लिए ज्ञान की प्राथमिकता प्रदान की गई है। चारित्र साधना-मार्ग में गति है, ज्ञान साधना पक्ष को स्वीकार करता है। वस्तुतः इस विवाद में कोई ऐकान्तिक निर्णय का बोध है और दर्शन यह विश्वास जाग्रत करता है कि वह पथ उसे लेना अनुचित ही होगा। यहाँ समन्वयवादी दृष्टिकोण ही संगत होगा। अपने लक्ष्य की ओर ले जाने वाला है। सामान्य पथिक भी यदि पथ नवतत्त्वप्रकरण में ऐसा ही समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया गया है, के ज्ञान एवं इस दृढ़ विश्वास के अभाव में कि वह पथ उसके वांछित जहाँ दोनों को एक-दूसरे का पूर्वापर बताया है। कहा है कि जो जीवादि लक्ष्य को ले जाता है, अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता तो नव पदार्थों को यथार्थ रूप से जानता है उसे सम्यक्त्व होता है। इस फिर आध्यात्मिक साधना-मार्ग का पथिक बिना ज्ञान और आस्था (श्रद्धा) प्रकार ज्ञान को दर्शन के पूर्व बताया गया है, लेकिन अगली पंक्ति के कैसे आगे बढ़ सकता है? उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि में ही ज्ञानाभाव में केवल श्रद्धा से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति मान ली गई ज्ञान से (यथार्थ साधना मार्ग को) जानें, दर्शन के द्वारा उस पर विश्वास है और कहा गया है कि जो वस्तुतत्त्व को स्वत: नहीं जानता हुआ करें और चारित्र से उस साधना-मार्ग पर आचरण करता हुआ तप भी उसके प्रति भाव से श्रद्धा करता है उसे सम्यक्त्व हो जाता है। से अपनी आत्मा का परिशोधन करें।१२
हम अपने दृष्टिकोण से इनमें से किसे प्रथम स्थान दें, इसका यद्यपि लक्ष्य को पाने के लिए चारित्र रूप प्रयास आवश्यक है, निर्णय करने के पूर्व दर्शन के अर्थ का निश्चय कर लेना जरुरी है। लेकिन प्रयास को लक्ष्योन्मुख और सम्यक् होना चाहिए। मात्र अन्धे दर्शन शब्द के तीन अर्थ हैं- (१) यथार्थ दृष्टिकोण, (२) श्रद्धा और प्रयासों से लक्ष्य प्राप्त नहीं होता। यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ (३) अनुभूति। इसमें अनुभूतिपरक अर्थ का सम्बन्ध तो ज्ञानमीमांसा नहीं है तो ज्ञान यथार्थ नहीं होगा और ज्ञान के यथार्थ नहीं होने पर है और उस सन्दर्भ में वह ज्ञान का पूर्ववर्ती है। यदि हम दर्शन का चारित्र या आचरण भी यथार्थ नहीं होगा। इसलिए जैन आगमों में यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ लेते हैं तो साधना-मार्ग की दृष्टि से उसे चारित्र से दर्शन (श्रद्धा) की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि प्रथम स्थान देना चाहिए, क्योकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही मिथ्या सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यग्चारित्र नहीं होता।१३ है, अयथार्थ है तो न तो उसका ज्ञान सम्यक् (यथार्थ) होगा और न भक्तपरिज्ञा में कहा गया है कि दर्शन से भ्रष्ट (पतित) ही वास्तविक चारित्र ही। यथार्थ दृष्टि के अभाव में यदि ज्ञान और चारित्र सम्यक् भ्रष्ट है, चारित्र से भ्रष्ट नहीं है, क्योंकि जो दर्शन से युक्त है वह प्रतीत भी हों, तो भी वे सम्यक् नहीं कहे जा सकते। वह तो सांयोगिक संसार में अधिक परिभ्रमण नहीं करता जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति प्रसङ्ग मात्र है। ऐसा साधक दिग्भ्रान्त भी हो सकता है। जिसकी दृष्टि संसार से मुक्त नहीं होता। कदाचित् चारित्र से रहित सिद्ध भी हो जाये, दूषित है, वह क्या सत्य को जानेगा और क्या उसका आचरण करेगा? लेकिन दर्शन से रहित कभी भी मुक्त नहीं होता।१४ दूसरी ओर यदि हम सम्यग्दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ लेते हैं तो उसका वस्तुत: दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्त्व है जो व्यक्ति के स्थान ज्ञान के पश्चात् ही होगा। क्योंकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के ज्ञान और आचरण का सही दिशा-निर्देश करता है। आचार्य भद्रबाहु बाद ही उत्पन्न हो सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी दर्शन का श्रद्धापरक आचाराङ्गनियुक्ति में कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि से ही तप, ज्ञान और अर्थ करते समय उसे ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है, उसमें सदाचरण सफल होते हैं।५ सन्त आनन्दघन दर्शन की महत्ता को सिद्ध कहा गया है कि ज्ञान से पदार्थ (तत्त्व) स्वरूप को जानें और दर्शन करते हुए अनन्त जिन के स्तवन में कहते हैं - के द्वारा उस पर श्रद्धा करें। व्यक्ति के स्वानुभव (ज्ञान) के पश्चात्
शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरिया करी, ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, उसमें जो स्थायित्व होता है वह ज्ञानाभाव
छार (राख) पर लीपणु तेह जाणो रे।
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