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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की पूर्वापरता
इस प्रकार जैन आचार्यों ने साधना-त्रय में ज्ञान को अत्यधिक जैन विचारकों ने चारित्र को ज्ञान के बाद ही रखा है। दशवैकालिक महत्त्व दिया है। आचार्य अमृतचन्द्र का उपर्युक्त दृष्टिकोण तो जैनदर्शन सूत्र में कहा गया है कि जो जीव और जीव के स्वरूप को नहीं जानता, को शङ्कर के निकट खड़ा कर देता है। फिर भी यह मानना कि जैन ऐसा जीव और अजीव के विषय में अज्ञानी साधक क्या धर्म (संयम) दृष्टि में ज्ञान ही मात्र मुक्ति का साधन है, जैन विचारणा के मौलिक का आचरण करेगा? १६ उत्तराध्ययनसूत्र में भी यही कहा है कि सम्यग्ज्ञान मन्तव्य से दूर होना है। यद्यपि जैन साधना में ज्ञान मोक्ष-प्राप्ति का के अभाव में सदाचरण नहीं होता। इस प्रकार जैन दर्शन ज्ञान को प्राथमिक एवं अनिवार्य कारण है, फिर भी वह एकमात्र कारण नहीं चारित्र से पूर्व मानता है। जैन दार्शनिक यह तो स्वीकार करते हैं कि माना जा सकता। ज्ञानाभाव में मुक्ति सम्भव नहीं है, किन्तु मात्र ज्ञान सम्यक् आचरण के पूर्व सम्यक् ज्ञान का होना आवश्यक है, फिर से भी मुक्ति सम्भव नहीं है। जैन आचार्यों ने ज्ञान को मुक्ति का अनिवार्य भी वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि अकेला ज्ञान ही मुक्ति का साधन कारण स्वीकार करते हुए यह बताया कि श्रद्धा और चारित्र का है। ज्ञान आचरण का पूर्ववर्ती अवश्य है, यह भी स्वीकार किया गया आदर्शोन्मुख एवं सम्यक् होने के लिए ज्ञान महत्त्वपूर्ण तथ्य है, सम्यग्ज्ञान है कि ज्ञान के अभाव में चारित्र सम्यक् नहीं हो सकता। १८ लेकिन के अभाव में अन्धश्रद्धा होगी और चारित्र या सदाचरण एक ऐसी कागजी यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या ज्ञान ही मोक्ष का मूल हेतु है? मुद्रा के समान होगा, जिसका चाहे बाह्य मूल्य हों, लेकिन आन्तरिक
मूल्य शून्य ही होगा। आचार्य कुन्दकुन्द, जो ज्ञानवादी परम्परा का साधना-प्रय में ज्ञान का स्थान
प्रतिनिधित्व करते हैं, वे भी स्पष्ट कहते हैं कि कोरे ज्ञान से निवार्ण जैनाचार्य अमृतचन्द्रसूरि ज्ञान की चारित्र से पूर्वता को सिद्ध करते नहीं होता यदि श्रद्धा न हो और केवल श्रद्धा से भी निर्वाण नहीं होता हुए एक चरम सीमा स्पर्श कर लेते हैं। वे अपनी समयसार टीका यदि संयम (सदाचरण) न हो। २३ । में लिखते हैं कि ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है, क्योंकि ज्ञान का अभाव जैन दार्शनिक शङ्कर के समान न तो यह स्वीकार करते हैं कि होने से अज्ञानियों में अन्तरङ्ग व्रत, नियम, सदाचरण और तपस्या मात्र ज्ञान से मुक्ति हो सकती है, न रामानुज प्रभृति भक्ति-मार्ग के आदि की उपस्थिति होते हुए भी मोक्ष का अभाव है। क्योंकि अज्ञान आचार्यों के समान यह स्वीकार करते हैं कि मात्र भक्ति से मुक्ति होती तो बन्ध का हेतु है, जबकि ज्ञानी में अज्ञान का सद्भाव न होने से है। उन्हें मीमांसा दर्शन की यह मान्यता भी ग्राह्य नहीं है कि मात्र बाह्य व्रत, नियम, सदाचरण, तप आदि की अनुपस्थिति होने पर भी कर्म से मुक्ति हो सकती है। वे तो श्रद्धा-समन्वित ज्ञान और कर्म दोनों मोक्ष का सद्भाव है। १९ आचार्य शङ्कर भी यह मानते हैं कि एक ही से मुक्ति की सम्भावना स्वीकार करते हैं। कार्य ज्ञान के अभाव में बन्धन का हेतु और ज्ञान की उपस्थिति में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र का पूर्वापर सम्बन्ध भी मोक्ष का हेतु होता है। इससे यही सिद्ध होता है कि कर्म नहीं ज्ञान ऐकान्तिक नहीं है। जैन विचारणा के अनुसार साधना-त्रय में एक क्रम ही मोक्ष का हेतु है। आचार्य अमृतचन्द्र भी ज्ञान को त्रिविध साधनों तो माना गया है, यद्यपि इस क्रम को भी ऐकान्तिक रूप में स्वीकार में प्रमुख मानते हैं। उनकी दृष्टि में सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र भी करना उसकी स्याद्वाद की धारणा का अतिक्रमण ही होगा, क्योंकि जहाँ ज्ञान के ही रूप हैं। वे लिखते हैं कि मोक्ष के कारण सम्यग्दर्शन, आचरण के सम्यक् होने के लिए सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन आवश्यक ज्ञान और चारित्र हैं। जीवादि तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धान् रूप से जो ज्ञान है वहीं दूसरी ओर सम्यग्ज्ञान एवं दर्शन की उपलब्धि के पूर्व भी आचरण है वह तो सम्यग्दर्शन है और उनका ज्ञान-स्वभाव में ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान का सम्यक् होना आवश्यक है। जैन दर्शन के अनुसार जब तक तीव्रतम है तथा रागादि के त्याग-स्वभाव के ज्ञान का होना सम्यग्चारित्र है। (अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान, माया और लोभ चार कषायें समाप्त नहीं इस प्रकार ज्ञान ही परमार्थत: मोक्ष का कारण है।२१
होती, तब तक सम्यग्दर्शन और ज्ञान भी प्राप्त नहीं होता। आचार्य यहाँ पर आचार्य दर्शन और चारित्र को ज्ञान के अन्य दो पक्षों शङ्कर ने भी ज्ञान की प्राप्ति के पूर्व वैराग्य का होना आवश्यक माना के रूप में सिद्ध कर मात्र ज्ञान को ही मोक्ष का हेतु सिद्ध करते हैं। है। इस प्रकार सदाचरण और संयम के तत्त्व सम्यग्दर्शन और ज्ञान उनके दृष्टिकोण के अनुसार दर्शन और चारित्र भी ज्ञानात्मक हैं, ज्ञान की उपलब्धि के पूर्ववर्ती भी सिद्ध होते हैं।, दूसरे, इस क्रम या पूर्वापरता की पर्यायें हैं। यद्यपि यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आचार्य के आधार पर भी साधन-त्रय में किसी एक को श्रेष्ठ मानना और दूसरे मात्र ज्ञान की उपस्थिति में मोक्ष के सद्भाव की कल्पना करते हैं, फिर को गौण मानना जैन दर्शन को स्वीकृत नहीं है। वस्तुत: साधन-त्रय भी वे अन्तरङ्ग चारित्र की उपस्थिति से इन्कार नहीं करते हैं। अन्तरङ्ग मानवीय चेतना के तीन पक्षों के रूप में ही साधना-मार्ग का निर्माण चारित्र तो कषाय आदि के क्षय के रूप में सभी साधकों में करते हैं। धार्मिक चेतना के इन तीन पक्षों में जैसी पारस्परिक प्रभावकता उपस्थित होता है। साधक आत्मा पारमार्थिक दृष्टि से ज्ञानमय ही है और अवियोज्य सम्बन्ध रहा है, वैसी ही पारस्परिक प्रभावकता और और वही ज्ञानमय आत्मा उसका साध्य है। इस प्रकार ज्ञानस्वभावमय अवियोज्य सम्बन्ध मानवीय तीनों पक्षों में है। आत्मा ही मोक्ष का उपादान कारण है क्योकि जो ज्ञान है, वह आत्मा है और जो आत्मा है वह ज्ञान है।२२ अत: मोक्ष का हेतु ज्ञान ही ज्ञान और क्रिया के सहयोग से मुक्ति सिद्ध होता है।
साधना-मार्ग में ज्ञान और क्रिया (विहित आचरण) के श्रेष्ठत्व
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