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जैन आगमों में समाधिमरण की अवधारणा
अर्धमागधी आगम साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा का अति विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। पौर्वात्य एवं पाश्चात्य विद्वानों ने अर्धमागधी आगम साहित्य के गन्धों का जो कालक्रम निर्धारित किया है, उसके आधार पर समाधिमरण से सम्बन्धित आगमों को हम निम्न क्रम में रख सकते हैं। अति प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों में आचाराङ्गसूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र ये दो ऐसे प्रन्थ है जिनमें समाधिमरण के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण मिलता है। आचाराङ्गसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का 'विमोक्ष' नामक अष्टम अध्ययन समाधिमरण के तीन प्रकारों— भक्त प्रत्याख्यान, इङ्गितिमरण एवं प्रायोपगमन की विस्तृत चर्चा करता है। इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र का पञ्चम "अकाम-मरणीय" अध्ययन भी अकाम-मरण और सकाम-मरण (समाधिमरण) की चर्चा से सम्बन्धित है। इसके साथ ही किंचित् परवर्ती माने गये उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्ययन में भी समाधिमरण की विस्तृत चर्चा है। इसमें समयावधि की दृष्टि से उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य ऐसे तीन प्रकार के समाधिमरणों का उल्लेख है। प्राचीन स्तर के अर्धमागधी आगमों में दशवैकालिक का भी महत्वपूर्ण स्थान है इसके आठवें 'आचार-प्रणिधी' नामक अध्ययन में समाधिमरण के पूर्व की साधना का उल्लेख हुआ है। इसमें कषायों को अल्प करने या उन पर विजय प्राप्त करने का निर्देश है।
इसके अतिरिक्त कालक्रम की दृष्टि से किंचित् परवर्ती माने गये अर्धमागधी आगमों में तृतीय अङ्ग - आगम स्थानाङ्गसूत्र के द्वितीय अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में मरण के विविध प्रकारों की चर्चा के प्रसङ्ग में समाधिमरण के विविध रूपों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। चतुर्थ अङ्ग - आगम समवायाङ्ग में मरण के सतरह भेदों की चर्चा है। ज्ञातव्य है कि नाम एवं क्रम के कुछ अन्तरों को छोड़कर मरण के इन सतरह भेदों की चर्चा भगवती आराधना में भी मिलती है। इसमें बालमरण, बाल- पण्डितमरण, पण्डितमरण, भक्त - प्रत्याख्यान, इङ्गितिमरण, प्रायोपगमन आदि की चर्चा है। इसी प्रकार पाचवें अङ्ग-आगम भगवतीसूत्र में अम्बड संन्यासी एवं उसके शिष्यों के द्वारा गङ्गा की बालू पर अदत्त जल का सेवन नहीं करते हुए समाधिमरण करने का उल्लेख पाया जाता है। सातवें अङ्ग उपासकदशसूत्र में भगवान् महावीर के १० गृहस्थ उपासकों के द्वारा लिये गये समाधिमरण और उसमें उपस्थित विघ्नों की विस्तृत चर्चा मिलती है। आठवें अङ्ग- आगम अन्तकृतदशासूत्र एवं नवें अङ्ग- आगम अनुत्तरौपपातिकदशासूत्र में भी अनेक श्रमणों एवं श्रमणियों के द्वारा लिये गये समाधिमरण का उल्लेख मिलता है। अन्तकृतदशासूत्र की विशेषता यह है कि उसमें समाधिमरण लेने वालों की समाधिमरण के पूर्व की शारीरिक स्थिति कैसी हो गई थी, इसका सुन्दर विवरण उपलब्ध है।
उपाङ्ग - साहित्य में मात्र औपपातिकसूत्र और रायप्रश्रीयसूत्र में समाधिमरण ग्रहण करने वाले कुछ साधकों का उल्लेख है, किन्तु इनमें समाधिमरण की अवधारणा के सम्बन्ध में कोई विवेचन उपलब्ध नहीं
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है । इस सम्बन्ध में जो स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, उन्हें अर्धमागधी आगम साहित्य में प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत रखा गया है। प्रकीर्णकों में आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, संस्तारक, आराधनापताका, मरणविभक्ति, मरणसमाधि एवं मरणविशुद्धि प्रमुख हैं। वर्तमान में जो मरणविभक्ति के नाम से प्रकीर्णक उपलब्ध हो रहा है, उसमें मरणविभक्ति सहित मरणविशुद्धि, मरणसमाधि, संलेखनासूत्र, भक्तपरिज्ञा, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, आराधना पताका इन आठ ग्रन्थों को समाहित कर लिया गया है। यद्यपि भक्तपरिज्ञा, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, संलेखनासूत्र, संस्तारक, आराधनापताका आदि अन्य स्वतन्त्र रूप से भी उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त तन्दुल- वैचारिक नामक प्रकीर्णक के अन्त में भी समाधिमरण का विस्तृत विवरण पाया जाता है। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में समाधिमरण का विस्तृत विवरण एवं उपदेश देने वाले संस्कृत एवं प्राकृत के परवर्ती आचार्यों के अनेक ग्रन्थ हैं, किन्तु प्रस्तुत विवेचन में हम अपने को मात्र अर्धमागधी आगम साहित्य तक ही सीमित रखेंगे शौरसेनी आगम साहित्य में समाधिमरण का विवरण प्रस्तुत करने वाले आगमतुल्य जो ग्रन्थ हैं, उनमें मूलाचार एवं भगवती आराधना नामक यापनीय परम्परा के दो ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इनमें मूलाचार समाधिमरण का विवरण प्रस्तुत करने के साथ ही मुनि आचार के अन्य पक्षों पर भी प्रकाश डालता है। यद्यपि इसके संक्षिप्त प्रत्याख्यान एवं बृहत प्रत्याख्यान नामक अध्यायों में आतुरमहाप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक प्रकीर्णकों की शताधिक गाथाएँ यथावत अपने शौरसेनी रूपान्तर में मिलती हैं। इसी प्रकार इसमें आवश्यकनिर्युक्ति की भी शताधिक गाथाएँ आवश्यकनियुक्ति के नाम से ही मिलती हैं।
जहाँ तक भगवती आराधना का प्रश्न है, उसमें भी अर्धमागधी आगम साहित्य की विशेष रूप से समाधिमरण से सम्बन्धित प्रकीर्णकों की शताधिक गाथाएँ उपलब्ध होती हैं। ज्ञातव्य है कि भगवती आराधना का मूल प्रतिपाद्य समाधिमरण है और यह ग्रन्थ अनेक दृष्टियों से मरणसमाधि, अपरनाम मरणविभक्ति और आराधनापताका से तुलनीय हैं। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि आराधनापताका नामक ग्रन्थ श्वेताम्बर आचार्य वीरभद्र के द्वारा भवगती आराधना का अनुकरण करके लिखा गया है। यद्यपि यह अभी शोध का विषय है। इसमें भक्तपरिज्ञा, पिण्डनिर्युक्ति और आवश्यकनुिर्यक्ति की भी सैकड़ो गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं। इसमें कुल १११० गाथाएँ हैं ।
इस प्रकार मरणविभक्ति और संस्तारक में समाधिमरण ग्रहण करने वालों के जो विशिष्ट उल्लेख उपलब्ध होते हैं, वे ही उल्लेख भगवती आराधना में भी बहुत कुछ समान रूप से मिलते हैं आज मरणविभक्ति आदि प्रकीर्णकों का भगवती आराधना से तुलनात्मक अध्ययन बहुत ही अपेक्षित है, क्योंकि यह ग्रन्थ यापनीय परम्परा में निर्मित हुआ है और यापनीय अर्धमागधी आगमों को मान्य करते थे। अतः दोनों
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