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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ सहचारी पाँच सौ साधक शिष्यों को उपस्थित मृत्यु की विषम परिस्थिति सहमत नहीं हैं। वस्तुत: स्वेच्छामरण की आवश्यकता उस व्यक्ति में समत्व की साधना के द्वारा निर्वाण का अमृतपान कराया वही साधक के लिए नहीं है जो जीवनमुक्त है और जिसकी देहासक्ति समाप्त हो स्वयं की मृत्यु के अवसर पर क्रोध के वशीभूत हो किस प्रकार अपने गई है, वरन् उस व्यक्ति के लिए है, जिसमें देहासक्ति रही हुई है, साधना-पथ से विचलित हो गया। वैदिक परम्परा में जड़भरत का कथानक क्योकि समाधिमरण तो इसी देहासक्ति को समाप्त करने के लिए है। भी यही बताता है कि इतने महान साधक को भी मरण बेला में हरिण पर समाधिमरण एक साधन है, इसलिए वह जीवनमुक्त के लिए (सिद्ध आसक्ति रखने के कारण पशु योनि को प्राप्त होना पड़ा। उपरोक्त कथानक के लिए) आवश्यक नहीं है। जीवनमुक्त को तो समाधिमरण सहज हमारे सामने मृत्यु का मूल्य उपस्थित कर देते हैं। मृत्यु इस जीवन की ही प्राप्त होता है । उसके लिए इसकी साधना का कोई अर्थ नहीं साधना का परीक्षा काल है। वह इस जीवन में लक्षोपलब्धि का अन्तिम रह जाता है। जहाँ तक उनके इस आक्षेप का प्रश्न है कि समाधिअवसर और भावी जीवन की कामना का आरम्भ बिन्दु है। इस प्रकार मरण में यथार्थ की आपेक्षा आडम्बर ही अधिक परिलक्षित होता है, वह अपने में दो जीवनों का मूल्य संजोए हुए है। मरण जीवन का उसमें आंशिक सत्यता अवश्य हो सकती है लेकिन इसका सम्बन्ध अवश्यम्भावी अंग है। उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। वह जीवन संथारे या समाधिमरण के सिद्धान्त से नहीं, वरन् उसके वर्तमान में का उपसंहार है, जिसे सुन्दर बनाना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य है। प्रचलित विकृत रूप से है, लेकिन इस आधार पर उसके सैद्धान्तिक
इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्प्रति युग के प्रबुद्ध विचारक भी मूल्य में कोई कमी नहीं आती है। यदि व्यावहारिक जीवन में अनेक समाधिमरण को अनैतिक नहीं मानते हैं। अत: जैन दर्शन पर लगाया व्यक्ति असत्य बोलते हैं तो क्या उससे सत्य के मूल्य पर कोई आँच जाने वाला यह आक्षेप कि वह जीवन के मूल्य को अस्वीकार करता आती है? वस्तुत: स्वेच्छामरण के सैद्धान्तिक मूल्य को अस्वीकार नहीं है, उचित नहीं माना जा सकता। वस्तुतः समाधिमरण पर जो आपेक्ष किया जा सकता है। लगाये जाते हैं उनका सम्बन्ध समाधिमरण से न होकर आत्महत्या मृत्युवरण तो मृत्यु की वह कला है, जिसमें न केवल जीवन से है। कुछ विचारकों ने समाधिमरण और आत्महत्या के वास्तविक ही सार्थक होता है वरन् मरण भी सार्थक हो जाता है। आदरणीय अन्तर को नहीं समझा और इसी आधार पर समाधिमरण को अनैतिक काका कालेलकर ने खलील जिबान की यह वचन उद्धृत किया है कहने का प्रयास किया, लेकिन जैसा कि हम पूर्व में सिद्ध कर चुके कि “एक आदमी ने आत्मरक्षा के हेतु खुदकशी की, आत्महत्या की, हैं, कि समाधिमरण या मृत्युवरण आत्महत्या नहीं है और इसलिए यह वचन सुनने में विचित्र सा लगता है।"२८ आत्महत्या से आत्मरक्षा उसे अनैतिक भी नहीं कहा जा सकता। जैन आचार्यों ने स्वयं भी का क्या सम्बन्ध हो सकता है? वस्तुत: यहाँ आत्मरक्षा का अर्थ आत्महत्या को अनैतिक माना है, लेकिन उनके अनुसार आत्महत्या आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का संरक्षण है और आत्महत्या का मतलब समाधिमरण से भिन्न है।
शरीर का विसर्जन। जब नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के संरक्षण डॉ० ईश्वरचन्द्र ने जीवनमुक्त व्यक्ति के स्वेच्छामरण को तो के लिए शारीरिक मूल्यों का विसर्जन आवश्यक हो तो उस स्थिति आत्महत्या नहीं माना है लेकिन उन्होंने जैन परम्परा में किये जाने वाले में देह-विसर्जन या स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण ही उचित है। आध्यात्मिक संथारे को आत्महत्या की कोटि में रख कर उसे अनैतिक भी बताया मूल्यों की रक्षा प्राणरक्षा से श्रेष्ठ है। गीता में स्वयं अकीर्तिकर जीवन है।२७ इस सम्बन्ध में उनके तर्क का पहला भाग यह है कि स्वेच्छा- की अपेक्षा मरण को श्रेष्ठ मान कर ऐसा ही संकेत दिया है।२९ काका मरण का व्रत लेने वाले सामान्य जैन मुनि जीवनमुक्त एवं अलौकिक कालेलकर के शब्दों में जब मनुष्य देखता है कि विशिष्ट परिस्थिति शक्ति से युक्त नहीं होते और अपूर्णता की दशा में लिया गया आमरण में यदि जीना है तो हीन स्थिति और हीन विचार या हीन सिद्धान्त व्रत (संथारा) नैतिक नहीं हो सकता। अपने तर्क के दूसरे भाग में मान्य रखना जरूरी ही है, तब श्रेष्ठ पुरुष कहता है कि जीने से नहीं वे कहते हैं कि जैन परम्परा में स्वेच्छामृत्युवरण (संथारा) करने में मर कर ही आत्मरक्षा होती है।३० यथार्थता की अपेक्षा आडम्बर अधिक होता है इसलिए वह अनैतिक वस्तुत: समाधिमरण का यह व्रत हमारे आध्यात्मिक एवं नैतिक भी है। जहाँ तक उनके इस दृष्टिकोण का प्रश्न है कि जीवनमुक्त एवं मूल्यों के संरक्षण के लिए ही लिया जाता है और इसलिए यह पूर्णत: अलौकिक शक्ति सम्पन्न व्यक्ति ही स्वेच्छामरण का अधिकारी है, हम नैतिक है। १. अकाममरणं चेव सकाममरणं तहा। -उत्तराध्ययन, संपा० मधुकरमुनि, धर्माय तनुविमोचनमाहुः संल्लेखनामार्याः ।। प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८४, ५/२।
-- रत्नकरण्डश्रावकाचार, समन्तभद्र, प्रका० माणिकचन्द्र दिगम्बर बालाणं अकामं तु मरणं असई भवे।
जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, १९२६, अध्याय ५। पंडियाणं सकामं तु उक्कोसेण सई भवे।।
देखिये--अतंकृतदशांगसूत्र के अर्जुनमाली के अध्याय में सुदर्शन - वही, १९८४, ५/३।
सेठ के द्वारा किया गया सागारी संथारा। अहकालम्मि संपत्ते आघायाय समुस्सयं।
देखिये--अंतकृतदशांगसूत्र, संपा० मधुकरमुनि, प्रका० श्री आगम सकाममरणं मरई निण्हमन्नयरं मुणी।। - वही, ५/३२॥
प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८१, वर्ग ८ अध्याय१। ४. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे।
प्रतिक्रमण सूत्र, संल्लेखना का पाठ, संपा० रत्नाकर विजय जी,
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