________________
४२२
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ देहत्याग का समर्थन मिलता है। जैन परम्परा शस्त्र आदि से होने वाली ने इसीलिए सामान्य स्थिति में शस्त्रवध, अग्निप्रवेश या गिरिपतन आदि तात्कालिक मृत्यु की अपेक्षा उपवास द्वारा होने वाली क्रमिक मृत्यु साधनों के द्वारा तात्कालिक मृत्युवरण को अनुचित ही माना है क्योंकि को ही अधिक प्रशस्त मानती है। यद्यपि ब्रह्मचर्य की रक्षा आदि कुछ उनके पीछे मरणाकांक्षा की सम्भावना रही हुई है। समाधिमरण में प्रसंगों में तात्कालिक मृत्युवरण को स्वीकार किया गया है, तथापि आहारादि के त्याग में मृत्यु की चाह नहीं होती, मात्र देह-पोषण का सामान्यतया जैन आचार्यों ने तात्कालिक मृत्युवरण जिसे प्रकारान्तर विसर्जन किया जाता है। मृत्यु उसका परिणाम अवश्य है लेकिन उसकी से आत्महत्या भी कहा जा सकता है, की आलोचना की है। आचार्य आकांक्षा नहीं। जैसे ब्रण की चीर फाड़ के परिणामस्वरूप वेदना अवश्य समन्तभद्र ने गिरिपतन या अग्निप्रवेश के द्वारा किये जाने वाले मृत्युवरण होती है लेकिन उसमें वेदना की आकांक्षा नहीं होती है। जैन आचार्य को लोकमूढ़ता कहा है। जैन आचार्यों की दृष्टि में समाधि-मरण ने कहा है कि समाधिमरण की क्रिया मरण के निमित्त नहीं होकर उसके का अर्थ मृत्यु की कामना नहीं, वरन् देहासक्ति का परित्याग है। उनके प्रतिकार के लिए है। जैसे व्रण का चीरना वेदना के निमित्त नहीं होकर अनुसार तो जिस प्रकार जीवन की आकांक्षा दूषित मानी गई है, उसी वेदना के प्रतिकार के लिए होता है। यदि ऑपरेशन की क्रिया में प्रकार मृत्यु की आकांक्षा को भी दूषित मानी गयी है।
हो जाने वाली मृत्यु हत्या नहीं हैं तो फिर समाधिमरण में हो जाने
वाली मृत्यु आत्महत्या कैसे हो सकती है? एक दैहिक जीवन की समाधिमरण के दोष
रक्षा के लिए है तो दूसरी आध्यात्मिक जीवन की रक्षा के लिए है। जैन आचार्यों ने समाधिमरण के लिए निम्न पाँच दोषों से बचने समाधिमरण और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है। आत्महत्या में व्यक्ति का निर्देश किया है- १. जीवन की आकांक्षा, २. मत्यु की आकांक्षा, जीवन के संघर्षों से ऊब कर जीवन से भागना चाहता है, उसके मूल ३. ऐहिक सुखों की कामना, ४. पारलौकिक सुखों की कामना और में कायरता है। जबकि समाधिमरण में देह और संयम की रक्षा के ५. इन्द्रियों के विषयों के भोग की आकांक्षा।
अनिवार्य विकल्पों में से संयम की रक्षा के विकल्प को चुनकर मृत्यु जैन परम्परा के समान बुद्ध ने भी जीवन की तृष्णा और मृत्यु का साहसपूर्वक सामना किया जाता है। समाधिमरण में जीवन से भागने की तृष्णा दोनों को ही अनैतिक माना है। बुद्ध के अनुसार भवतृष्णा का प्रयास नहीं वरन् जीवन-बेला की अन्तिम संध्या में द्वार पर खड़ी और विभवतृष्णा क्रमशः जीविताशा और मरणाशा की प्रतीक हैं और हई मृत्यु का स्वागत है। आत्महत्या में जीवन से भय होता है, जबकि जब तक ये आशाएँ या तृष्णाएँ उपस्थित हैं तब तक नैतिक पूर्णता समाधिमरण में मृत्यु से निर्भयता होती है। आत्महत्या असमय मृत्यु सम्भव नहीं है। अत: साधक को इनसे बच के ही रहना चाहिए। लेकिन का आमंत्रण है जबकि संथारा या समाधिमरण मात्र मृत्यु के उपस्थित फिर भी यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या समाधिमरण मृत्यु की होने पर उसका सहर्ष आलिंगन है। आत्महत्या के मूल में या तो भय आकांक्षा नहीं है?
होता है या कामना, जबकि समाधिमरण में भय और कामना दोनों
की अनुपस्थिति आवश्यक होती है। समाधिमरण और आत्महत्या
समाधिमरण आत्म-बलिदान से भी भिन्न है। पश-बलि के समान जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों की परम्पराओं में जीविताशा और आत्म-बलि की प्रथा भी शैव और शाक्त सम्प्रदायों में प्रचलित रही मरणाशा दोनों को अनुचित माना गया है तो यह प्रश्न स्वाभाविक है। लेकिन समाधिमरण को आत्म-बलिदान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि रूप से खड़ा होता है कि क्या समाधिमरण मरणाकांक्षा नहीं है? वस्तुत: आत्म-बलिदान भी भावना का अतिरेक है। भावातिरेक आत्म-बलिदान यह न तो मरणाकांक्षा है और न आत्महत्या ही। व्यक्ति आत्महत्या की अनिवार्यता है जबकि समाधिमरण में भावातिरेक नहीं वरन् विवेक या तो क्रोध के वशीभूत होकर करता है या फिर सम्मान या हितों का प्रकटन आवश्यक है। को गहरी चोट पहुँचने पर अथवा जीवन के निराश हो जाने पर करता समाधिमरण के प्रत्यय के आधार पर आलोचकों ने यह कहने है, लेकिन ये सभी चित्त की सांवेगिक अवस्थाएँ हैं जब की समाधि- का प्रयास भी किया है कि जैन दर्शन जीवन से इकरार नहीं करता मरण तो चित्त की समत्व की अवस्था है। अत: वह आत्महत्या नहीं वरन् जीवन से इन्कार करता है, लेकिन गम्भीरतापूर्वक विचार करने कही जा सकती। दूसरे आत्महत्या या आत्मबलिदान में मृत्यु को निमंत्रण पर यह धारणा भ्रान्त ही सिद्ध होती है। उपाध्याय अमर मुनिजी लिखते दिया जाता है। व्यक्ति के अन्तस् में मरने की इच्छा छिपी हुई होती हैं-वह (जैन दर्शन) जीवन से इन्कार नहीं करता है अपितु जीवन है, लेकिन समाधिमरण में मरणाकांक्षा का अभाव ही अपेक्षित है, क्योंकि के मिथ्या मोह से इन्कार करता है। जीवन जीने में यदि कोई महत्त्वपूर्ण समाधिमरण के प्रतिज्ञा-सूत्र में ही साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि लाभ है और वह स्व-पर की हित साधना में उपयोगी है तो जीवन मैं मृत्यु की आकांक्षा से रहित होकर आत्मरमण करुंगा (काल अकंखमाणं सर्वतोभावेन संरक्षणीय है। आचार्य भद्रबाहु भी ओघनिर्यक्ति में कहते विहरामि) यदि समाधिमरण में मरने की इच्छा ही प्रमुख होती तो उसके हैं-साधक का देह ही नहीं रहा तो संयम कैसे रहेगा, अत: संयम प्रतिज्ञा-सूत्र में इन शब्दों के रखने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। की साधना के लिए देह का परिपालन इष्ट है। लेकिन देह के परिगलन जैन विचारकों ने तो मरणाकांक्षा को समाधिमरण का दोष ही माना की क्रिया संयम के निमित्त है, अत: देह का ऐसा परिपालन जिसमें है। अत: समाधिमरण को आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। जैन विचारकों संयम ही समाप्त हो, किस काम का! साधक का जीवन न तो जीने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org