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समाधिमरण (मृत्युवरण) : एक तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन
४२१ उपरोक्त सभी प्रकार के समाधि-मरणों में मन का समभाव में वैदिक परम्परा में मृत्युवरण स्थित होना अनिवार्य माना गया है।
सामान्यतया हिन्दू धर्मशास्त्रों में आत्महत्या को महापाप माना
गया है। पाराशरस्मृति में कहा गया है कि जो क्लेश, भय, घमण्ड समाधिमरण ग्रहण करने की विधि
और क्रोध के वशीभूत होकर आत्महत्या करता है, वह साठ हजार जैन आगमों में समाधिमरण ग्रहण करने की विधि निम्नानुसार वर्ष तक नरकवास करता है, लेकिन इनके अतिरिक्त हिन्दू धर्मशास्त्रों बताई गयी है-सर्वप्रथम मलमूत्रादि अशुचि विसर्जन के स्थान का में ऐसे भी अनेक सन्दर्भ हैं जो स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का समर्थन अवलोकन कर नरम तृणों की शैय्या तैयार कर ली जाती है। तत्पश्चात् करते हैं। प्रायश्चित्त के निमित्त से मृत्युवरण का समर्थन मनुस्मृति (११/ अरिहन्त, सिद्ध और धर्माचार्यों को विनयपूर्वक नमस्कार कर पूर्वगृहीत ९०-९१) याज्ञवल्क्यस्मृति (३/२५३, गौतमस्मृति (२३/१), प्रतिज्ञाओं में लगे हुए दोषों की आलोचना और उनका प्रायश्चित ग्रहण वशिष्ठधर्मसूत्र (२०/२२, १३/१४) और आपस्तंबसूत्र (१/९/२५/ किया जाता है। इसके बाद समस्त प्राणियों से क्षमा-याचना की जाती १-३, ६) में भी किया गया है। मात्र इतना ही नहीं, हिन्दू धर्मशास्त्रों है और अन्त में अठारह पापस्थानो, अन्नादि चतुर्विध आहारों का त्याग में ऐसे. भी अनेक स्थल हैं, जहाँ मृत्युवरण को पवित्र एवं धार्मिक करके शरीर के ममत्व एवं पोषणक्रिया का विसर्जन किया जाता है। आचरण के रूप में देखा गया है। महाभारत के अनुशासनपर्व (२५/ साधक प्रतिज्ञा करता है कि मैं पूर्णत: हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, ६२-६४), वनपर्व (८५/८३) एवं मत्स्यपुराण (१८६/३४/३५) में क्रोध, मान, माया, लोभ यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से विरत होता हूँ, अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, गिरिपतन, विषयप्रयोग या उपवास आदि के अन्न आदि चारो प्रकार के आहार का यावज्जीवन के लिए त्याग करता द्वारा देह त्याग करने पर ब्रह्मलोक या मुक्ति प्राप्त होती है ऐसा माना हूँ। मेरा यह शरीर जो मुझे अत्यन्त प्रिय था, मैने इसकी बहुत रक्षा गया है। अपरार्क ने प्राचीन आचार्यों के मत को उद्धृत करते हुए की थी, कृपण के धन के समान इसे सम्भालता रहा था, इस पर लिखा है कि यदि कोई गृहस्थ असाध्य रोग से पीड़ित हो, जिसने मेरा पूर्ण विश्वास था (कि यह मुझे कभी नहीं छोड़ेगा), इसके समान अपने कर्तव्य पूरे कर लिए हों, वह महाप्रस्थान हेतु अग्नि या जल मुझे अन्य कोई प्रिय नहीं था, इसलिए मैंने इसे शीत, गर्मी, क्षुधा, में प्रवेश कर अथवा पर्वतशिखर से गिरकर अपने प्राणों की आहुति तृष्णा आदि अनेक कष्टों से एवं विविध रोगों से बचाया और दे सकता है। ऐसा करके वह कोई पाप नहीं करता। उसकी मृत्यु सावधानीपूर्वक इसकी रक्षा करता रहा था, अब मैं इस देह का विसर्जन तो तपों से भी बढ़कर है। शास्त्रानुमोदित कर्तव्यों के पालन में अशक्त करता हूँ और इसके पोषण एवं रक्षण के प्रयासों का परित्याग होने पर जीवन जीने की इच्छा रखना व्यर्थ है। श्रीमद्भागवत के करता हूँ।
११वें स्कन्ध के १८वें अध्याय में भी स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण को स्वीकार
किया गया है। वैदिक परम्परा में स्वेच्छा मृत्युवरण का समर्थन न केवल बौद्ध परम्परा में मृत्युवरण
शास्त्रीय आधारों पर हुआ है वरन् व्यावहारिक जीवन में इसके अनेक यद्यपि बुद्ध ने जैन परम्परा के समान ही धार्मिक आत्महत्याओं उदाहरण भी परम्परा में उपलब्ध हैं। महाभारत में पाण्डवों के द्वारा को अनुचित माना है, तथापि बौद्ध साहित्य में कुछ ऐसे सन्दर्भ अवश्य हिमालय-यात्रा में किया गया देहपात मृत्युवरण का एक प्रमुख उदाहरण हैं जो स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का समर्थन करते है। संयुक्तनिकाय में है। डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे ने वाल्मीकि रामायण एवं अन्य वैदिक असाध्य रोग से पीड़ित भिक्षु वक्कलि कुलपुत्र भिक्षु छन्न द्वारा की धर्मग्रन्थों तथा शिलालेखों के आधार पर शरभंग, महाराजा रघु, कलचुरी गई आत्महत्याओं का समर्थन स्वयं बुद्ध ने किया था और उन्हें निर्दोष के राजा गांगेय, चंदेल कुल के राजा गंगदेव, चालुक्यराज सोमेश्वर कह कर दोनो ही भिक्षुओं को परिनिर्वाण प्राप्त करने वाला बताया आदि के स्वेच्छा मृत्युवरण का उल्लेख किया है। मैगस्थनीज ने था। जापानी बौद्धों में तो आज भी हरीकरी की प्रथा मृत्युवरण की भी ईश्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दी में प्रचलित स्वेच्छामरण का उल्लेख किया सूचक है।
है। प्रयाग में अक्षयवट से कूद कर गंगा में प्रणान्त करने की प्रथा फिर भी जैन परम्परा और बौद्ध परम्परा में मृत्युवरण के प्रश्न तथा काशी में करवत लेने की प्रथा वैदिक परम्परा में मध्य युग तक को लेकर कुछ अन्तर भी है। प्रथम तो यह कि जैन परम्परा के विपरीत भी काफी प्रचलित थी। यद्यपि ये प्रथाएँ आज नामशेष हो गयी हैं बौद्ध परम्परा में शस्त्रवध से तत्काल ही मृत्युवरण कर लिया जाता फिर भी वैदिक संन्यासियों द्वारा जीवित समाधि लेने की प्रथा आज है। जैन आचार्यों ने शस्त्रवध के द्वारा तात्कालिक मृत्युवरण का विरोध भी जनमानस की श्रद्धा का केन्द्र है। इसलिए किया था कि उन्हें उसमें मरणाकांक्षा की सम्भावना प्रतीत इस प्रकार हम देखते है कि न केवल जैन और बौद्ध परम्पराओं हुई। उनके अनुसार यदि मरणाकांक्षा नहीं है तो फिर मरण के लिए में, वरन् वैदिक परम्परा में भी मृत्युवरण को समर्थन दिया गया है। उतनी आतुरता क्यों? इस प्रकार जहाँ बौद्ध परम्परा शस्त्रवध के द्वारा लेकिन जैन और वैदिक परम्पराओं में प्रमुख अन्तर यह है कि जहाँ की गई आत्महत्या का समर्थन करती है, वहीं जैन परम्परा उसे वैदिक परम्परा में जल एवं अग्नि से प्रवेश, गिरिशिखर से गिरना, अस्वीकार करती है। इस सन्दर्भ में बौद्ध परम्परा वैदिक परम्परा के विष या शस्त्र प्रयोग आदि विविध साधनों से मृत्युवरण का विधान अधिक निकट है।
मिलता है, वहाँ जैन परम्परा में सामान्यतया केवल उपवास द्वारा ही
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