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भेद-विज्ञान : मुक्ति का सिंहद्वार
४१९ बन्धन में रहती है, अत: जब भी इस भेद-विज्ञान के द्वारा अपने यथार्थ तो समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द प्रज्ञा-छैनी से इस आत्म और अनात्म स्वरूप का बोध हो जाता है वह मुक्त हो जाती है। अनात्म में रही (जड़) को अलग-अलग करने की बात करते हैं। १३, १३अ हुई आत्मबुद्धि को समाप्त करना यही भेद-विज्ञान है और यही इस तरह हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैन, बौद्ध और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-ज्ञान है। इसी के द्वारा अनात्म एवं आत्म के यथार्थ स्वरूप गीता सभी में भेद-विज्ञान, अनात्म-विवेक या क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-ज्ञान ज्ञानात्मक का बोध होता है और यही मुक्ति का मार्ग भी है। गीता कहती है- साधना का लक्ष्य है। यह निर्वाण की उपलब्धि का एक आवश्यक 'जो व्यक्ति अनात्म त्रिगुणात्मक प्रकृति और परमात्मस्वरूप ज्ञायक आत्मा अङ्ग है। जब तक अनात्म में आत्मबुद्धि का परित्याग नहीं होगा तब के यथार्थ स्वरूप को तत्त्व-दृष्टि से जान लेता है वह संसार में रहता तक आसक्ति समाप्त नहीं होगी और आसक्ति के समाप्त न होने से हुआ भी तत्त्व रूप से इस संसार से ऊपर उठ जाता है, वह पुर्नजन्म निर्वाण या मुक्ति की उपलब्धि नहीं होगी। आचाराङ्गसूत्र में कहा गया को प्राप्त नहीं होता है'।१२
है- जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता वह 'स्व' से अन्यत्र रमता इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन विचारणा के समान गीता भी भी नहीं है और जो 'स्व' से अन्यत्र रमता नहीं है वह 'स्व से अन्यत्र इसी आत्म-अनात्म-विवेक पर बल देती है। दोनों के निष्कर्ष समान दृष्टि भी. नहीं रखता है।१४ हैं। शरीरस्थ ज्ञायक स्वरूप आत्मा का बोध कर लेना, यही दोनों आचार इस आत्म-दृष्टि का उदय भेद-विज्ञान के द्वारा ही होता है और दर्शनों का मन्तव्य है। गीता में श्रीकृष्ण ज्ञान-असि के द्वारा अनात्म भेद-विज्ञान की कला से निर्वाण या परमपद की प्राप्ति होती है। में आत्मबुद्धि रूप जो अज्ञान है उसके छेदन का निर्देश करते हैं,
सन्दर्भ : १. केनोपनिषद्, प्रका०- संस्कृति संस्थान, बरेली, १/४। २. समयसार, कुन्दकुन्द, प्रका० - अहिंसा प्रकाशन मन्दिर, दरियागंज,
देहली, १९५९, ३९२-४०२। ३. नियमसार, अनु०- अगरसेन, प्रका०- अजिताश्रम, लखनऊ,
१९६३, ७७-८१। संयुक्तनिकाय, संपा०- भिक्षु जगदीश काश्यप एवं भिक्षु धर्मरक्षित, प्रका० - महाबोधिसभा, सारनाथ, वाराणसी, १९५४, परिच्छेद-४, चक्खुसुत्त, २४/१-१०। समयसार, कुन्दकुन्द, अहिंसा प्रका०- प्रकाशन मन्दिर, दरियागंज, देहली, १९५९, २९६। भगवद्गीता, डॉ. राधाकृष्णन्, अनु०- विराज, प्रका०- राजपाल
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गीता, प्रका०- गीता प्रेस, गोरखपुर, वि०सं० २०१८, १३/२। ८. वही, १३/२। ९. वही, १३/५-६। १०. वही, १३/२१। ११. वही, १३/२१॥ १२. वही, १३/२३। १३. वही, ४/४३। १३अ.समयसार, कुन्दकुन्द, प्रका०- अहिंसा प्रकाशन मन्दिर, दरियागंज
देहली, १९५९, २९४। १४. आचाराङ्गसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८०, १/२/६।
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