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भेद-विज्ञान : मुक्ति का सिंहद्वार
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को बहुलता से निर्देश हुआ है। इसे ही 'भेद-विज्ञान' या 'आत्म-अनात्म अपनी भिन्नता का बोध करना होता है, जो अपेक्षाकृत कठिन-कठिनतर विवेक' कहा जाता है। अगली पंक्तियों में हम इसी भेद-विज्ञान को है, क्योंकि यहाँ इनके और हमारे बीच तादात्म्य का बोध बना रहता जैन, बौद्ध और गीता की विचारणा के आधार पर प्रस्तुत कर रहे हैं। है। फिर भी हमें यह जान लेना होगा कि जो कुछ पर के निमित्त
है वह हमारा स्वरूप नहीं है। हमारे रागादि भाव भी पर के निमित्त जैन विचारणा में भेद-विज्ञान
ही हैं, अत: वे हम में होते हुए भी हमारे निज रूप नहीं हो सकते। आचार्य कुन्दकुन्द 'समयसार'२ में इस भेद-विज्ञान की प्रक्रिया यद्यपि वे आत्मा में होते हैं फिर भी आत्मा से भिन्न हैं, क्योंकि उनका को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- 'रूप आत्मा नहीं है, क्योंकि वह निजस्वरूप नहीं है। जैसे उष्ण पानी में रही हुई उष्णता, उसमें रहते कुछ नहीं जानता, अत: रूप अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन हुए भी उसका स्वरूप नहीं है, क्योंकि वह अग्नि के संयोग के कारण कहते हैं।
है वैसे ही रागादिभाव आत्मा में होते हुए भी उनका अपना स्वरूप 'वर्ण आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अत: वर्ण नहीं है। यह स्वरूप-बोध ही जैन साधना का सार है, जिसकी विधि अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
है- भेद-विज्ञान अर्थात् जो 'स्व' से भिन्न है उसे 'पर' के रूप में गंध आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अत: गंध जानकर उसमें रहे हुए तादात्म्य-बोध को तोड़ देना। वस्तुतः भेद-विज्ञान अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
की यह प्रक्रिया हमें जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में भी उपलब्ध ___ 'रस आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अत: रस होती है। अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं। ___'स्पर्श आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अत: स्पर्श बौद्ध विचारणा में भेदाभ्यास अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
जिस प्रकार जैन साधना में सम्यक-ज्ञान का वास्तविक उपयोग 'कर्म आत्मा नहीं है, क्योंकि कर्म कुछ नहीं जानता, अत: कर्म भेदाभ्यास माना गया उसी प्रकार बौद्ध साधना में भी प्रज्ञा का वास्तविक अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।'
उपयोग अनात्म की भावना में माना गया है। भेदाभ्यास की साधना 'अध्यवसाय आत्मा नहीं है, क्योंकि अध्यवसाय कुछ नहीं जानता में जैन साधक वस्तुत: स्वभाव के यथार्थज्ञान के आधार पर 'स्व' स्वरूप (मनोभाव भी किसी ज्ञायक के द्वारा जाने जाते हैं, स्वत: कुछ नहीं (आत्म) और 'पर' स्वरूप (अनात्म) में भेद स्थापित करता है तथा जानते- क्रोध के भाव को जानने वाला ज्ञायक उससे भिन्न है), अतः अनात्म में रही हुई आत्मबुद्धि का परित्याग कर अन्त में अपनी साधना अध्यवसाय अन्य है और आत्मा अन्य है।
के लक्ष्य अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति करता है। बौद्ध साधना में भी साधक 'अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप की दृष्टि से आत्मा न राग है, न प्रज्ञा के सहारे जागतिक उपादानों (धर्म) के स्वभाव का ज्ञान कर, द्वेष है, न मोह है, न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है। उनके अनात्म स्वरूप में आत्मबुद्धि का परित्याग कर, निर्वाण का लाभ अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप में वह इनका कारण और कर्ता भी नहीं करता है। दोनों ही विचारणाएँ यह स्वीकार करती हैं कि स्वभाव का
बोध होने पर ही निर्वाण की उपलब्धि होती है। अनात्म के स्वभाव वस्तुत: आत्मा जब अपने शुद्ध ज्ञाता स्वरूप में अवस्थित होती का ज्ञान और उसमें आत्मबुद्धि का परित्याग, दोनों दर्शनों में साधना है, संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं वरन् उसकी अपनी चित्तवृत्तियाँ का अनिवार्य तत्त्व है। जिस प्रकार जैन विचारकों ने रूप, वर्ण, देह,
और मनोभाव भी उसे 'पर' (स्व से भित्र) प्रतीत होते हैं। जब वह इन्द्रिय, मन और अध्यवसाय आदि को अनात्म कहा, उसी प्रकार 'पर' को 'पर' के रूप में जान लेता है और उससे अपनी पृथक्ता बौद्ध आगमों में भी देह, इन्द्रियाँ और उनके विषय- शब्द, रूप, का बोध कर लेता है, तब वह अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप को जानकर गन्ध, रस, स्पर्श तथा मन आदि को अनात्म कहा गया है तथा दोनों उसमें अवस्थित हो जाता है। यही वह अवसर होता है, जब मुक्ति विचारणाओं ने साधक के लिए यह स्पष्ट निर्देश किया कि वह उनमें का द्वार उद्घाटित होता है, क्योंकि जिसने पर को पर के रूप में आत्मबुद्धि न रखे। लगभग समान शब्दों और शैली में दोनों ही जान लिया है उसके लिए ममत्व या राग कोई स्थान ही नहीं रखता अनात्मभावना या भेद-विज्ञान की अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं, जो है। राग के गिर जाने पर वीतराग का प्रकटन होता है और मुक्ति का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययनकर्ता के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आपने द्वार खुल जाता है।
जैन साधना में भेदाभ्यास की इस धारणा का आस्वादन किया, अब भेद-विज्ञान की इस प्रक्रिया में आत्मा सब से पहले वस्तुओं जरा इसी सन्दर्भ में बुद्ध-वाणी के निर्झर में भी अवगाहन कीजिये; एवं पदार्थों से अपनी भिन्नता का बोध करती है। चाहे अनुभति के बुद्ध कहते हैंस्तर पर इनसे भिन्नता स्थापित कर पाना कठिन हो, किन्तु ज्ञान के 'भिक्षुओं! चक्षु अनित्य है जो अनित्य है वह दुःख है, जो दु:ख स्तर पर यह कार्य कठिन नहीं है; क्योंकि यहाँ तादात्म्य नहीं रहता है वह अनात्म है, जो अनात्म है न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा है, अत: पृथकता का बोध सुस्पष्ट रूप से होता है। किन्तु इसके बाद है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए। क्रमश: उसे शरीर से, मनोवृत्तियों से एवं स्वयं के रागादि भावों से “भिक्षुओं! प्राण अनित्य है, जिह्वा अनित्य है, काया अनित्य
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