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जैन आगमों में समाधिमरण की अवधारणा
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परम्पराओं में काफी कुछ आदान-प्रदान हुआ है। इसी प्रकार यापनीय का रक्षण वरेण्य नहीं है। उसमें कहा गया है कि जब साधक यह परम्परा के ग्रन्थ बृहद्कथाकोश में भी मरणविभक्ति, भक्तपरिज्ञा, संस्तारक जाने कि वह निर्बल और मरणान्तिक रोग से आक्रान्त हो गया है, आदि की अनेक कथाएँ संकलित हैं। मेरी दृष्टि में बृहद्कथाकोश की नियम या मर्यादा पूर्वक आहार आदि प्राप्त करने में असमर्थ है, कथाओं का मूल स्रोत चाहे प्रकीर्णक ग्रन्थ रहे हों, किन्तु ग्रन्थकार तो वह आहारादि का परित्याग कर शरीर के पोषण के प्रयत्नों को ने भगवती आराधना की कथाओं का अनुकरण करके ही यह ग्रन्थ बन्द कर दे। इससे देह के प्रति निर्ममत्व की साधना पूर्ण लिखा हैं। आज आवश्यकता है कि दोनों परम्पराओं के समाधिमरण होती है। सम्बन्धी इन ग्रन्थों एवं उनकी कथाओं का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत २. जब व्यक्ति को लगे कि अपनी वृद्धावस्था अथवा असाध्य करने की।
रोग के कारण उसका जीवन पूर्णत: दूसरों पर निर्भर हो गया है, वह यद्यपि मैं इस आलेख में तुलनात्मक अध्ययन को प्रस्तुत करना संघ के लिए भार स्वरूप बन गया है तथा अपनी साधना करने में चाहता था, किन्तु समय सीमा को ध्यान में रखकर वर्तमान में यह भी असमर्थ हो गया है तो ऐसी स्थिति में वह आहारादि का त्याग सम्भव नहीं हो सका है।
___ करके देह के प्रति निर्ममत्व की साधना करते हुए देह का विसर्जन समाधिमरण की यह अवधारणा अति प्राचीन है। भारतीय संस्कृति कर सकता है। की श्रमण और ब्राह्मण- इन दोनों परम्पराओं में इसके उल्लेख मिलते ३. इसी प्रकार साधक को जब यह लगे कि सदाचार या ब्रह्मचर्य हैं, जिसकी विस्तृत चर्चा हमनें 'समाधिमरण (मृत्युवरण) : एक का खण्डन किए बिना जीवन जीना सम्भव नहीं है, अर्थात् चरित्रनाश तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन' नामक लेख में की है। वस्तुतः और जीवित रहने में एक ही विकल्प सम्भव है तो वह तत्काल भी यहाँ हमारा विवेच्य मात्र अर्धमागधी आगम है। इनमें आचाराङ्गसूत्र प्राचीन श्वास निरोध आदि करके अपना देहपात कर सकता है। ज्ञातव्य है एवं प्रथम अङ्ग-आगम है। आचाराङ्गसूत्र के अनुसार समत्व या वीतरागता कि यहाँ मूल-पाठ में शीत-स्पर्श है, जिसका टीकाकारों ने ब्रह्मचर्य की साधना ही धर्म का मूलभूत प्रयोजन है। आचाराङ्गकार की दृष्टि के भङ्ग का अवसर ऐसा अर्थ किया है, किन्तु मूल-पाठ और पूर्वप्रसङ्ग में समत्व या वीतरागता की उपलब्धि में बाधक तत्त्व ममत्व है। इस को देखते हुए इसका यह अर्थ भी हो सकता है कि जिस मुनि ने ममत्व का घनीभूत केन्द्र व्यक्ति का अपना शरीर होता है। अतः अचेलता को स्वीकार कर लिया है, वह शीत सहन न कर पाने की आचाराङ्गकार निर्ममत्व की साधना हेतु देह के प्रति निर्ममत्व की साधना स्थिति में चाहे देह त्याग कर दे, किन्तु नियम भङ्ग न करे। को आवश्यक माना है। समाधिमरण देह के प्रति निर्ममत्व की साधना इससे यह फलित होता है कि आचाराङ्गकार न तो जीवन को का ही प्रयास है। यह न तो आत्महत्या है और न जीवन से भागने अस्वीकार ही करता और न वह जीवन से भागने की बात कहता है। का प्रयत्न। अपितु जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही अपरिहार्य बनी वह तो मात्र यह प्रतिपादित करता है कि जब मृत्यु जीवन के द्वार मृत्यु का स्वागत है। वह देह के पोषण के प्रयत्नों का त्याग करके पर दस्तक दे रही हो और आचार-नियम अर्थात् ली गई प्रतिज्ञा भङ्ग देहातीत होकर जीने की एक कला है।
किए बिना जीवन जीना सम्भव नहीं है, तो ऐसी स्थिति में मृत्यु का
वरण करना ही उचित है। इसी प्रकार दूसरों पर भार बनकर जीना आचाराङ्गसूत्र और समाधिमरण
अथवा जब शरीर व्यक्तिगत साधना अथवा समाज सेवा दोनों के लिए आचाराङ्गसूत्र में जिन परिस्थितियों में समाधिमरण की अनुशंसा सार्थक नहीं रह गया हो, ऐसी स्थिति में भी येनकेन-प्रकारेण शरीर की गयी है, वे विशेष रूप से विचारणीय हैं। सर्वप्रथम तो आचाराङ्ग को बचाने के प्रयत्न की अपेक्षा मृत्यु का वरण ही उचित है। जब में समाधिमरण का उल्लेख उसके प्रथम श्रुतस्कन्ध के विमोक्ष नामक साधक को यह लगे कि सदाचार और मुनि आचार के नियमों का अष्टम अध्ययन में हुआ है। यह अध्ययन विशेष रूप से शरीर, आहार, भङ्ग करके आहार एवं औषधि के द्वारा तथा शीतनिवारण के लिए वस्त्र आदि के प्रति निर्ममत्व एवं उनके विसर्जन की चर्चा करता है। वस्त्र अथवा अग्नि आदि के उपयोग द्वारा ही शरीर को बचाया जा इसमें वस्त्र एवं आहार के विजर्सन की प्रक्रिया को समझाते हुए ही सकता है अथवा बह्मचर्य को भङ्ग करके ही जीवित रहा जा सकता अन्त में देह-विसर्जन की साधना का उल्लेख हुआ है। आचाराङ्गसूत्र है तो उसके लिए मृत्यु का वरण ही उचित है। समाधिमरण किन स्थितियों में लिया जा सकता है, इसकी संक्षिप्त आचाराङ्गकार ने नैतिक मूल्यों के संरक्षण और जीवन के संरक्षण किन्तु महत्त्वपूर्ण विवेचना प्रस्तुत करता है। इसमें समाधिमरण स्वीकार में उपस्थित विकल्प की स्थिति में मृत्यु के वरण को ही वरेण्य माना करने की तीन स्थितियों का उल्लेख है
है। ऐसी स्थिति में वह स्पष्ट निर्देश देता है कि ऐसा व्यक्ति मृत्यु १. जब शरीर इतना अशक्त व ग्लान हो गया हो कि व्यक्ति का वरण कर ले। यह उसके लिए काल-मृत्यु ही है, क्योंकि इसके संयम के नियमों का पालन करने में असमर्थ हो और मुनि के आचार द्वारा वह संसार का अन्त करने वाला होता है। वह स्पष्ट रूप से कहता . नियमों को भंग करके ही जीवन बचाना सम्भव हो, तो ऐसी स्थिति है कि यह मरण विमोह आयतन, हितकर, सुखकर, कालोचित, निःश्रेयस
में यह कहा गया है कि आचार नियमों के उल्लंघन की अपेक्षा देह और भविष्य के लिए कल्याणकारी होता है। आचाराङ्गसूत्र में समाधिमरण का विसर्जन ही नैतिक है। आचार-मर्यादा का उल्लंघन करके जीवन के तीन रूपों का उल्लेख हुआ- भक्तप्रत्याख्यान, इङ्गितिमरण,
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