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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ उत्पन्न पुत्र करे। पुनः जब आगमों में यह कहा जाता है कि स्त्री छठे जैन परम्परा में वेद और लिंग अलग-अलग शब्द रहे हैं। लिंग का नरक से आगे नहीं जाती, वहाँ आप स्त्री शब्द को उसके मुख्य अर्थ तात्पर्य शारीरिक संरचना अथवा बाह्य चिह्नों से होता है जबकि वेद में लें और आगे जब आगम में यह कहा जाये कि स्त्री में चौदह गुणस्थान का तात्पर्य कामवासना सम्बन्धी मनोभावों से होता है। होते हैं तो वहाँ स्त्री को उसके गौण अर्थ अर्थात् भावस्त्री के रूप में सामान्यतया जैसी शरीर-रचना होती है, तद्रूप ही वेद अर्थात् लें, यह उचित नहीं है। शाकटायन यहाँ स्पष्ट रूप से वीरसेन के काम-वासना का उदय होता है। यदि किसी व्यक्ति में अपनी शरीरषटखण्डागम के सत्प्ररूपणाखण्ड के ९३वें सूत्र की व्याख्या पर कटाक्ष रचना से भिन्न प्रकार की कामवासना पाई जाती है तो यह मानना होगा करते हुए प्रतीत होते हैं। षट्खण्डागम में सत्प्ररुपणा की गतिमार्गणा कि उस व्यक्ति में पुरुष और स्त्री अर्थात् दोनों प्रकार की कामवासना में यह कहा गया है कि पर्याप्त मनुष्यनी में संयतासंयत, संयत आदि है। परन्तु आगम की दृष्टि से ऐसा व्यक्ति नपुंसकलिंगी कहा गया है। गुणस्थान होते हैं। वीरसेन ने यहाँ मनुष्यनी शब्द की भाव-स्त्री या जैन-परम्परा में नपुंसक शब्द का तात्पर्य पुरुषत्व से हीन अर्थात् स्त्री स्त्री-वेदी पुरुष ऐसी जो व्याख्या की है, वह शाकटायन को स्वीकार्य का भोग करने में असमर्थ व्यक्ति, ऐसा नहीं है। जैन परम्परा के अनुसार नहीं है। शाकटायन का स्पष्ट मत है कि आगम (षट्खण्डागम) में नपुंसक वह है, जिसमें उभयलिंग की कामवासनाएँ उपस्थित हो। पुन: जो मनुष्यनी शब्द प्रयुक्त हुआ है वहाँ उसका मुख्य अर्थ 'स्त्री' ही शाकटायन का यह भी कहना है कि यदि किसी पुरुष का काम-व्यवहार ग्राह्य है। ज्ञातव्य है कि यहाँ मनुष्यनी का अर्थ स्त्रीवेदी पुरुष (स्त्रैण- दूसरी स्त्री के साथ पुरुषवत् हो तो यह उसकी अपनी विकृत कामवासना पुरुष) इसलिए भी ग्राह्य नहीं हो सकता है, क्योंकि यह चर्चा गतिमार्गणा का ही रूप है। कभी-कभी तो मनुष्य पशुओं से भी अपनी कामवासना के सन्दर्भ में है, वेदमार्गणा के सम्बन्ध में नहीं है। वेदमार्गणा की की पूर्ति करते हुए देखे जाते हैं। क्या ऐसी स्थिति में हम यह मानेंगे चर्चा तो आगे की ही गई है। अत: प्रस्तुत सन्दर्भ में 'मनुष्यनी' का कि उसमें पशु सम्बन्धी कामवासना है? वस्तुत: यह उसकी अपनी अर्थ स्त्री-वेदी मनुष्य/भाव-स्त्री नहीं किया जा सकता है। कामवासना का ही एक विकृत रूप है। पुन: यदि यह कहा जाय कि
पुन: स्त्रीवेद (कामवासना) की उपस्थिति में तो मुक्ति सम्भव ही आगम में विगत वेद (भवों) की अपेक्षा से स्त्री में चौदह गुणस्थान नहीं होती है, वेद तो नवें गुणस्थान में ही समाप्त हो जाता है। किन्तु माने गए हैं तो फिर विगत भव की अपेक्षा से देव में भी चौदह गुणस्थान स्त्रीवेद शरीर की उपस्थिति में सम्भव है, क्योकि शरीर तो चौदहवें सम्भव होंगे, किन्तु आगम में उनमें तो चौदह गुणस्थान नहीं कहे गए गुणस्थान अर्थात मुक्ति के लक्षण तक रहता है।
हैं। वस्तुत: आगम में जो मनुष्यनी में चौदह गुणस्थानों की सम्भावना पुनः पुरुष शरीर में स्त्रीवेद अर्थात् पुरुष द्वारा भोगे जाने सम्बन्धी स्वीकार की गई है, वह स्त्रीवेद के आधार पर नहीं, अपितु स्त्रीलिंग काम-वासना अथवा स्त्री-शरीर में पुरुषवेद अर्थात् स्त्री की भोगने सम्बन्धी (स्त्रीरूपी शरीर-रचना) के आधार पर ही है। आगम में गतिमार्गणा काम-वासना का उदय मानना भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं के सन्दर्भ में मनुष्यनी में पर्याप्त गुणस्थानों की चर्चा हुई है। अत: है। यदि यह माना जायेगा कि पुरुष की आंगिक संरचना में स्त्री रूप मनुष्यनी का अर्थ भावस्त्री अर्थात् स्त्रैण-वासना से युक्त पुरुष करना से भोगे जाना और स्त्री. की शारीरिक रचना में पुरुष रूप से स्त्री को उपयुक्त नहीं है, क्योंकि भाव या वेद की चर्चा तो भिन्न अनुयोगद्वारों भोग करना सम्भव होता है तो फिर समलिंगी विवाह-व्यवस्था को भी में की गई है। अत: आगम (षटखण्डागम) में मनुष्यनी का अर्थ भावमानना होगा। साथ ही यदि पुरुष में स्त्रीवेद का उदय अर्थात् दूसरे स्त्री न होकर द्रव्य-स्त्री ही है और यदि आगमानुसार मनुष्यनी में चौदह पुरुष के द्वारा स्त्री रूप में भोगे जाने सम्बन्धी कामवासना का उदय गुणस्थान सम्भव हैं तो फिर उसकी मुक्ति भी सम्भव है। इस प्रकार सम्भव मानेंगे, तो फिर मुनियों का परस्पर साथ में रहना भी सम्भव यापनीय परम्परा आगमिक आधारों पर स्त्रीमुक्ति की समर्थक रही है। नहीं होगा, क्योंकि किसी श्रमण में कब स्त्रीवेद का उदय हो जाय, यह कहना कठिन होगा और स्त्रीवेदी श्रमण के साथ पुरुषवेदी श्रमण अन्यतैर्थिक और गृहस्थमुक्ति का प्रश्न का रहना श्रमणाचार नियमों के विरुद्ध होगा। किसी भी व्यक्ति में भिन्न- स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ दो अन्य प्रश्न भी जुड़े हुए हैं, वे हैं लिंगी कामवासना का उदय मानना सम्भव नहीं है। व्यवहार में बाह्य अन्यतैर्थिक की मुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति (गृहस्थमुक्ति)। यह स्पष्ट है कि शरीर रचना के आधार पर ही निर्णय लिये जाते हैं। समलैंगिक कामप्रवृत्ति उत्तराध्ययनसूत्र जैसे प्राचीन जैन आगमों से स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ या पशु-मनुष्य कामप्रवृत्ति वस्तुत: अप्राकृतिक मैथुन या विकृत अन्यतैर्थिकों (अन्य लिंग) और गृहस्थों की मुक्ति को भी स्वीकार किया कामवासना के रूप हैं. शरीर-रचना से भिन्न वेद (कामवासना) का गया है। उनकी मान्यता यह थी कि व्यक्ति चाहे किसी अन्य परम्परा उदय नहीं होता है। अत: मनुष्यनी शब्द का अर्थ स्तन, योनि आदि में दीक्षित हुआ हो या गृहस्थ ही हो, यदि वह समभाव की साधना से युक्त मनुष्यनी (मानव स्त्री) ही है, न कि स्त्री सम्बन्धी कामवासना में पूर्णता प्राप्त कर लेता है, राग-द्वेष से ऊपर उठकर वीतरागदशा से युक्त पुरुष। पुनः इस कथन का कोई प्रमाण भी नहीं है कि पुरुष ___ को प्राप्त हो जाता है, तो वह अन्यतैर्थिक या गृहस्थ के वेश में भी शरीर-रचना से स्त्रैण कामवासना का उदय होता है। ऐसी स्थिति में मुक्ति को प्राप्त हो सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर की अपेक्षा यह भी मानना होगा कि स्त्री-शरीर में भी पुरुष सम्बन्धी कामवासना से स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक की तथा वेश की अपेक्षा से स्व-लिंग अर्थात् स्त्री को भोगने की इच्छा उत्पन्न होती होगी। ज्ञातव्य है कि (निर्ग्रन्थ मुनिवेश),अन्य-लिंग (तापस आदि अन्यतैर्थिक के वेश में)
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