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जैन धर्म में मुक्ति की अवधारणा : एक तुलनात्मक अध्ययन स्पष्ट रूप से कहते हैं, सिद्धों के इन गुणों का विधान मात्र सिद्धात्मा नहीं समझाया जा सकता है, क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा के स्वरूप के सम्बन्ध में जो ऐकान्तिक मान्यताएँ हैं, उनके निषेध सकती, वह अनुपम है, अरूपी सत्ताधान है। उस अपद का कोई पद के लिए है। मुक्तात्मा में केवल ज्ञान और दर्शन के रूप में ज्ञानोपयोग नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण
और दर्शनोपयोग को स्वीकार करके मुक्तात्मा को जड़ मानने वाली किया जा सके। उसके बारे में केवल इतना ही कहा जा सकता है, वैभाषित बौद्धों और न्याय-वैशेषिक दर्शन की धारणा का प्रतिषेध किया वह अरूप, अरस, अवर्ण, अगंध और अस्पर्श है क्योंकि वह इन्द्रियग्राह्य गया है। मुक्तात्मा के अस्तित्व या अक्षयता को स्वीकार कर मोक्ष को नहीं है। अभावात्मक रूप में मानने वाले जड़वादी तथा सौत्रान्तिक बौद्धों की मान्यता का निरसन किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मोक्ष-दशा गीता में मोक्ष का स्वरूप का समग्र भावात्मक चित्रण अपना निषेधात्मक मूल्य ही रखता है। गीता की समग्र साधना का लक्ष्य परमतत्त्व, ब्रह्म, अक्षर पुरुष यह विधान भी निषेध के लिए है।
अथवा पुरुषोत्तम की प्राप्ति कहा जा सकता है। गीताकार प्रसंगान्तर
से उसे ही मोक्ष, निर्वाणपद, अव्यय पद, परमपद, परमगति और अभावात्मक दृष्टि से मोक्ष तत्त्व पर विचार
परमधाम भी कहता है। जैन एवं बौद्ध विचारणा के समान गीताकार जैनागमों में मोक्षावस्था का चित्रण निषेधात्मक रूप से भी हुआ की दृष्टि में भी संसार पुनरागमन या जन्म-मरण की प्रक्रिया से युक्त है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग में मुक्तात्मा का निषेधात्मक चित्रण है जबकि मोक्ष पुनरागमन या जन्म-मरण का अभाव है। गीता का निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया गया है- मोक्षावस्था में समस्त कर्मों साधक इसी प्रेरणा को लेकर आगे बढ़ता है (जरामरणमोक्षाय का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा में समस्त कर्म-जन्य उपाधियों का भी ७.२९) और कहता है, “जिसको प्राप्त कर लेने पर पुन: संसार में अभाव होता है, अत: मुक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्ताकार नहीं लौटना होता है उस परम पद की गवेषणा करनी चाहिए""| है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमण्डल संस्थान वाला है। गीता का ईश्वर भी साधक को आश्वस्त करते हुए यही कहता है कि वह कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेतवर्ण वाला भी नहीं है, वह सुगन्ध “जिसे प्राप्त कर लेने पर पुन: संसार में आना नहीं होता, वही मेरा
और दुर्गन्धवाला भी नहीं है। न वह तीक्ष्ण, कटु, खट्टा, मीठा एवं परमधाम (स्वस्थान) है।" परमसिद्धि को प्राप्त हुए महात्माजन मेरे अम्ल रस वाला है। उसमें गुरु, लघु, कोमल, कठोर, स्निग्ध, रूक्ष, को प्राप्त होकर दु:खों के घर इस अस्थिर पुर्नजन्म को प्राप्त नहीं शीत एवं उष्ण आदि स्पर्श गुणों का भी अभाव है। वह न स्त्री है, होते हैं। ब्रह्मलोक पर्यन्त समग्र जगत् पुनरावृत्ति युक्त है। लेकिन जो न पुरुष है, न नपुंसक है । इस प्रकार मुक्तात्मा में रूप, रस, वर्ण, भी मुझे प्राप्त कर लेता है उसका पुर्नजन्म नहीं होता। १५ मोक्ष के गन्ध और स्पर्श भी नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में मोक्ष-दशा अनावृत्ति रूप लक्षण को बताने के साथ ही मोक्ष के स्वरूप का निर्वचन का निषेधात्मक चित्रण प्रस्तुत करते हए लिखते हैं मोक्ष-दशा में न करते हुए गीता कहती है- इस अव्यक्त से भी परे अन्य सनातन सुख है न दुःख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न जन्म है, न मरण अव्यक्त तत्त्व है, जो सभी प्राणियों में रहते हुए भी उनके नष्ट होने है। न वहाँ इन्द्रियाँ है, न उपसर्ग है, न मोह है, न व्यामोह है, न पर नष्ट नहीं होता है अर्थात् चेतना पर्यायों में जो अव्यक्त है उनसे निद्रा है, न वहाँ चिन्ता है, न आर्त-रौद्र विचार ही है, वहाँ तो धर्म भी परे उनका आधारभूत आत्मतत्त्व है। चेतना की अवस्थाएँ नश्वर (शुभ) और शुक्ल (प्रशस्त) विचारों का भी अभाव है। मोक्षावस्था हैं, लेकिन उनसे परे रहने वाला यह आत्मतत्त्व सनातन है जो प्राणियों तो सर्व संकल्पों का अभाव है, वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं में चेतना (ज्ञान) पर्यायों के रूप में अभिव्यक्त होते हुए भी उन प्राणियों है वह पक्षातिक्रांत है। इस प्रकार मुक्तावस्था का निषेधात्मक विवेचन तथा उनका चेतना पर्यायों (चेतन अवस्थाओं) के नष्ट होने पर भी उसकी अनिर्वचनीयता को बताने के लिए है।
नष्ट नहीं होता है। उसी आत्मा को अक्षर और अव्यक्त कहा गया
है और उसे ही परमगति भी कहते हैं, वही परमधाम भी है, वही मोक्ष का अनिर्वचनीय स्वरूप
मेरा परमात्म स्वरूप आत्मा का निज स्थान है, जिसे प्राप्त कर लेने मोक्षतत्त्व का निषेधात्मक निर्वचन अनिवार्य रूप से हमें उसकी पर पुन: निवर्तन नहीं होता। उसे अक्षर ब्रह्म, परमतत्त्व, स्वभाव अनिर्वचनीयता की ओर ले जाता है। पारमार्थिक दृष्टि से विचार करते (आत्मा की स्वभाव-दशा) और आध्यात्म भी कहा जाता है। गीता हुए जैन दार्शनिकों ने उसे अनिर्वचनीय ही माना है।
की दृष्टि में मोक्ष निर्वाण है परमशान्ति का अधिष्ठान है। जैन दार्शनिकों आचारांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है- समस्त स्वर वहाँ के समान गीता भी यह स्वीकार करती है कि मोक्ष सुखावस्था है। से लौट आते हैं, अर्थात् मुक्तात्मा ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की गीता के अनुसार मुक्तात्मा ब्रह्मभूत होकर अनन्त सुख (अनन्त सौख्य) प्रवृत्ति का विषय नहीं है, वाणी उसका निर्वचन करने में कदापि समर्थ का अनुभव करता है।९। यद्यपि गीता एवं जैन दर्शन में मुक्तात्मा में नहीं है। वहाँ वाणी मूक हो जाती है, तर्क की वहाँ तक पहुँच नहीं जिस सुख की कल्पना की गई है वह न ऐन्द्रिय सुख है न वह मात्र है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है, अर्थात् वह वाणी, दुःखाभाव रूप सुख है, वरन् वह अतीन्द्रिय ज्ञानगम्य अनश्वर विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। किसी उपमा के द्वारा भी उसे सुख है।
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