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जैन धर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक मनोवैज्ञानिक विमर्श
३९१ वस्तुत: उनका यह ग्रन्थ लेश्या की प्राचीन अवधारणा की आधुनिक है, उसे नया आयाम प्रदान करेंगे और साथ ही मानव के चारित्रिक ज्ञान-विज्ञान के सन्दर्भ में एक नवीन व्याख्या है और भावी लेश्या बदलाव और आध्यात्मिक विशुद्धि की दिशा में सहयोगी बनेंगे। आज सम्बन्धी अध्ययनों के लिए मार्ग प्रदर्शक है। इसके अध्ययन से यह पर्यावरण की विशुद्धि पर ध्यान तो दिया जाने लगा है, किन्तु इस प्रतिफलित होता है कि भारतीय चिन्तन की प्राचीन अवधारणाओं को भौतिक पर्यावरण की अपेक्षा जो हमारा मनोदैहिक और मानसिक आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के सन्दर्भ में किस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता पर्यावरण है, जिसे जैन परम्परा में लेश्या कहा गया है, उसे भी शुद्ध है और उनकी समकालिक प्रासंगिकता को कैसे सिद्ध किया जा सकता रखने की आवश्यकता है। मैं समझता हूँ कि लेश्या की आवधारणा है। आशा है आधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान के अध्येता इस दिशा हमें यही इंगित करती है कि हम संक्लिष्ट मानसिक परिणामों से ऊपर में अपने प्रयत्नों को आगे बढ़ायेंगे और इस प्रकार के अध्ययन का उठकर अपने मानसिक पर्यावरण को किस प्रकार शुद्ध रख जो द्वार आचार्य महाप्रज्ञ और डॉ० शान्ता जैन ने उद्घाटित किया सकते हैं।
सन्दर्भ
१. देखें-अभिदानराजेन्द्रकोष, श्री विजय राजेन्द्रसूरि, रतलाम, खण्ड
३, पृ० ३९५ २. लेश्या-अतीव चक्षुरादीपिका स्निग्ध, दीप्त, रूपा छाया।
-उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति पत्र ६५० ३. देखें-भगवती आराधना, भाग २, सम्पादक पं० कैलाशचन्द्र जी
शास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९३५, गाथा १९०९ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ, संपा० देवेन्द्रमुनि शास्त्री, प्रका०, तारकगुरु जैन ग्रन्थालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर, १९७९, खण्ड पंचम, पृ० ४६१।
डॉ० शान्ता जैन, लेश्या का मनोवैज्ञानिक अध्ययन, प्रथम अध्याय ६. अभिधान राजेन्द्रकोष, श्री विजयराजेन्द्रसूरि, रतलाम, खण्ड ६,
पृ०६७५। ७. (अ) दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलालजी संघवी, प्रका०, गुजरात
विद्यासभा, अहमदाबाद, १९५७, भाग २, पृ० २९७ (ब) अभिधानराजेन्द्रकोष, श्री विजयराजन्देसूरि, रतलाम खण्ड ६,
पृ० ६७५। ८. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना वीर सं० २४७८, ३४/३ एथिकल स्टडीज, ब्रेडले, आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय प्रेस,लंदन,
१९२७ पृ०६५। १०. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, ३४/२१-२२ ११. वही, ३४/२१-२२ १२. वही, ३४/२५-२६ १३. वही, ३४/२७-२८ १४. वही, ३४/२९-३० १५. वही, ३४/३१-३२
१६. अंगुत्तरनिकाय, अनु० भदन्त आनन्द कौसल्यायन, महाबोधि सभा,
कलकत्ता, ६/३ १७. वही, ६/३ १८. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं० २०१८, १६/६ १९. वही १६/५ २०. अभिधानराजेन्द्रकोष, श्री विजयराजेन्द्रसूरि, रतलाम, खण्ड ६,
पृ०६८७ २१. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०, रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, ३४/५६-५७ २२. दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलालजी संघवी, गुजरात विधासभा
अहमदाबाद, १९५७, भाग -२, पृ० ११२ । २३. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना-वीर सं० २४७८, ३४/२७-३२ २४. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, वि सं० २०१८, १६/१-३ २५. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना-वीर सं० २४७८, ३४/२१-३६ २६. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं० २०१८, १६/७-१८ २७. फाउण्डेशन ऑफ एथिक्स-उद्धृत, २८. आयारो, संपा०-आचार्य तुलसी, प्रका०-जैन विश्वभारती, लाडन,
सं० २०३१, -६/१०६ २९. उत्तराध्ययनसूत्र- संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, ३४/२ ३०. प्रज्ञापनासूत्र, संपा० आचार्य अमोलक ऋषि, प्रका०-लाला ज्वाला
प्रसाद, हैदराबाद, १७/४११ ३१. तत्त्वार्थराजवार्तिक, संपा०- डॉ महेन्द्रकुमार जैन, प्रका०- भारतीय
ज्ञानपीठ काशी, पृ० २३८ ३२. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), संपा०- डॉ एन० एन० उपाध्ये, प्रका०
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