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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ का वर्गीकरण है, जबकि लेश्या का सिद्धान्त मनोवृत्तियों के आधार नहीं है कि उसमें कोई विकास नहीं हुआ। यदि हम जैन साहित्य में पर होने वाले मनोदैहिक परिवर्तनों और व्यक्ति के व्यक्तित्व की चारित्रिक उपलब्ध लेश्या सम्बन्धी विवरणों को पढ़े ते स्पष्ट हो जाता है कि विशिष्टताओं का सूचक है। अत: नाम साम्यता होते हुए भी दोनों लेश्या-अवधारणा की अनेक दृष्टियों से विवेचना की गयी है। सर्वप्रथम में दृष्टिगत भिन्नता है। दूसरे यह है कि पूर्णकश्यप, मंखली गोशालक उत्तराध्ययनसूत्र२९ में नाम, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, आदि आजीवक आचार्य भी महावीर के समकालिक ही हैं, अत: किससे स्थान, स्थिति, गति और आयु इन ग्यारह विचार बिन्दुओं (द्वारों) से किसने लिया है यह कहना कठिन है। पुन: लेश्या शब्द जैनों का अपना उस पर विचार किया गया है। जबकि भगवतीसूत्र एवं प्रज्ञापनासूत्र पारिभाषिक शब्द है, किसी भी अन्य परम्परा में इस अर्थ में यह शब्द में निम्न पन्द्रह विचार बिन्दुओं (द्वारों) से लेश्या की चर्चा की गयी है। मिलता ही नहीं है। अत: इस अवधारणा के विकास का श्रेय तो जैन १. परिणाम, २. वर्ण, ३. रस, ४. गन्ध, ५. शुद्ध, ६. अप्रशस्त, परम्परा को देना ही होगा। हो सकता है कि षट्-अभिजाति आदि उस ७. संक्लिष्ट, ८. उष्ण, ९. गति, १०. परिणाम, ११. प्रदेश, १२ युग में समानान्तर रूप से प्रचलित अन्य सिद्धान्तों से उन्होंने कृष्ण, वर्गणा, १३. अवगाहना, १४. स्थान एवं १५. अल्प-बहुत्व। शुक्ल, नील आदि नाम ग्रहण किये हों, किन्तु यह भी ज्ञातव्य है इसके पश्चात् दिगम्बर परम्परा में अकलंक ने तत्त्वार्थराजवार्तिक १ कि षट्-अभिजातियों एवं षट्-लेश्याओं के नामों में भी पूरी समानता में लेश्या की विवेचना के निम्न सोलह अनुयोगों की चर्चा की हैनही है। केवल कृष्ण, नील और शुक्ल ये तीन समान हैं, किन्तु १. निर्देश, २. वर्ण, ३. परिणाम, ४. संक्रम, ५. कर्म, ६. लक्षण, लोहित, हारिद्र, पद्म-शुक्ल ये तीन नाम लेश्या-सिद्धान्त में नहीं है, ७. गति ८. स्वामित्व, ९. संख्या, १०. साधना, ११. क्षेत्र १२. उनके स्थान पर कापोत, तेजों एवं पद्म ये तीन नाम मिलते हैं। अत: स्पर्शन, १३. काल, १४. अन्तर, १५. भाव और १६. अल्प-बहुत्व। लेश्या सिद्धान्त अभिजाति सिद्धान्त की पूर्णत: अनुकृति नहीं है। अकलंक के पश्चात् गोम्मटसार के जीवकाण्ड२२ में भी लेश्या मनोभावों, चारित्रिक विशुद्धि, लोककल्याण की प्रवृत्ति आदि के आधार की विवेचना के उपर्युक्त १६ ही अधिकारों का उल्लेख हुआ है। पर व्यक्तियों अथवा उनके व्यक्तित्व के वर्गीकरण की परम्परा सभी विस्तारभय से हम यहाँ इन सभी की चर्चा नहीं कर रहे हैं, किन्तु धर्म परम्पराओं में और सभी कालों में पाई जाती है। प्रत्येक धर्म परम्परा तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि ऐतिहासिक ने अपनी-अपनी दृष्टि से उस पर विचार किया है।
दृष्टि से लेश्या-सिद्धान्त का प्राचीन होने पर भी इसमें क्रमिक विकास ऐतिहासिक दृष्टि से लेश्या शब्द का प्रयोग अति प्राचीन है। देखने को मिलता है। इसकी विस्तृत चर्चा डॉ० शान्ता जैन ने अपने इतना निश्चित है कि प्राचीन पालि त्रिपिटक के दीघनिकाय और शोध-प्रबन्ध में की है। अंगुत्तरनिकाय, जिनमें आभिजाति का सिद्धान्त पाया जाता है, की अपेक्षा आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध भाषा, शैली और विषयवस्तु तीनों ही आधुनिक विज्ञान और लेश्या-सिद्धान्त दृष्टियों से प्राचीन है। विद्वान् उसे ई० पू० पाँचवी-चौथी शती का हम देखते हैं कि ई० पू० पाँचवी शताब्दी से ई० सन् दशवीं ग्रन्थ मानते हैं और उसमें अबहिलेस्से२८ शब्द की उपस्थिति यही सूचित शताब्दी तक लेश्या सम्बन्धी चिन्तन में जो क्रमिक विकास हुआ था, करती है कि लेश्या की अवधारणा महावीर के समकालीन है। पुनः वह ११वीं-१२वीं शताब्दी के बाद प्रायः स्थिर हो गया था। किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र जो आचारांगसूत्र और सूत्रकृतांगसूत्र के अतिरिक्त अन्य आधुनिक युग में मनोविज्ञान, रंग-मनोविज्ञान, रंग-चिकित्सा आदि ज्ञान सभी आगमों से प्राचीन माना जाता है, में लेश्याओं के सम्बन्ध में की नयी विधाओं के विकास के साथ जैन दर्शन की लेश्या सम्बन्धी एक पूरा अध्ययन उपलब्ध होना यही सूचित करता है कि लेश्या की विवेचनाओं को एक नया मोड़ प्राप्त हआ। जैन दर्शन के लेश्याअवधारणा एक प्राचीन अवधारणा है। जैन दर्शन में आध्यात्मिक और सिद्धान्त को आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करने का चारित्रिक विशुद्धि की दृष्टि से परवर्ती काल में जो त्रिविध-आत्मा के मुख्य श्रेय आचार्य तुलसी के विद्वान् शिष्य आचार्य महाप्रज्ञ जी को सिद्धान्त और गुणस्थान के सिद्धान्त अस्तित्व में आये, उसकी अपेक्षा जाता है। उन्होंने आधुनिक व्यक्तित्व मनोविज्ञान के साथ-साथ लेश्या का सिद्धान्त प्राचीन है, क्योंकि न केवल आचारांगसूत्र और आभामण्डल, रंग-मनोविज्ञान, रंग-चिकित्सा आदि अवधारणाओं को उत्तराध्ययनसूत्र में अपितु सूत्रकृतांगसूत्र में 'सुविशुद्धलेसें' तथा लेकर 'आभामण्डल' जैनयोग आदि अपने ग्रन्थ में इसका विस्तार से औपपातिकसूत्र में 'अपडिलेस्स" शब्दों का उल्लेख मिलता है। यहाँ वर्णन किया है। प्राचीन और अर्वाचीन अवधारणाओं को लेकर सर्वत्र लेश्या शब्द मनोवृत्ति का ही परिचायक है और साधक की आत्म- डॉ० शान्ता जैन ने लेश्या का मनोवैज्ञानिक अध्ययन नामक एक शोधविशुद्धि की स्थिति को सूचित करता है।
प्रबन्ध लिखा है जिसमें लेश्या के विभिन्न पक्षों की चर्चा की गयी वस्तुत: लेश्या-सिद्धान्त में आत्मा के संक्लिष्ट अथवा विशुद्ध है। उन्होंने अपने इस शोध-ग्रन्थ में लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष, परिणामों की चर्चा रंगों के आधार पर की गयी है। यह रंगों के आधार मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या, रंगों की मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति, लेश्या पर व्यक्तियों और उनके मनोभावों के वर्गीकरण की परम्परा भारतीय और आभामण्डल, व्यक्तित्व और लेश्या, सम्भव है व्यक्तित्व बदलाव साहित्य में अतिप्राचीन काल से रही है।
और लेश्या ध्यान, रंगध्यान और लेश्या आदि लेश्या के विभिन्न आयामों लेश्या की अवधारणा को प्राचीन कहने से हमारा यह तात्पर्य पर गम्भीरता से विचार किया है।
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