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जैन धर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक मनोवैज्ञानिक विमर्श
३८९ सन्दर्भ में मनोभावों का,उनके निम्नतम रूप से उच्चतम रूप तक के लिए किसी नैतिक शुभाशुभता का विचार नहीं करता है। वह जो निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता:
कुछ भी करता है वह मात्र स्वार्थ-प्रेरित होता है। रॉस के तीसरे स्तर १. दूसरों को जितना अधिक दुःख दिया जा सकता है, देने में व्यक्ति नैतिक दृष्टि से अनुचित सुख प्राप्त करना चाहता है। इस की इच्छा।
प्रकार यहाँ पर भी रॉस एवं जैन दृष्टिकोण विचार-साम्य रखते हैं। २. दूसरों को किसी विशेष प्रकार का अस्थायी दुःख उत्पन्न रॉस के चौथे, पाँचवें और छठे स्तरों की संयुक्त रूप से तुलना करने की इच्छा।
जैन दृष्टि की तेजोलेश्या के स्तर के साथ हो सकती है। रास चौथे ३. नैतिक दृष्टि से अनुचित सुख प्राप्त करने की इच्छा। स्तर में प्राणी की प्रकृति इस प्रकार बताते हैं कि व्यक्ति सुख तो पाना
४. ऐसा सुख प्राप्त करने की इच्छा जो, नैतिक दृष्टि से उचित चाहता है, लेकिन वह उन्हीं सुखों की प्राप्ति का प्रयास करता है जो न हो, लेकिन अनुचित भी न हो।
नैतिक दृष्टि से अनुचित भी नहीं हो, पाँचवें स्तर पर प्राणी नैतिक ५. नैतिक दृष्टि से उचित सुख प्राप्त करने की इच्छा। दृष्टि से उचित सुखों को प्राप्त करना चाहता है तथा छठे स्तर पर ६. दूसरों को सुख देने की इच्छा।
वह दूसरों को सुख देने का प्रयास भी करता है। जैन विचारणा के ७. कोई शुभ कार्य करने की इच्छा।
अनुसार भी तेजोलेश्या के स्तर पर प्राणी नैतिक दृष्टि से उचित से ८. अपने नैतिक कर्तव्य के परिपालन की इच्छा।२७ । उचित सुखों को ही पाने की इच्छा रखता है, साथ-साथ वह दूसरे
रॉस अपने इस वर्गीकरण में जैन लेश्या-सिद्धान्त के काफी निकट की सुख-सुविधाओं का भी ध्यान रखता है। आ जाते हैं। जैन विचारक और रॉस दोनों स्वीकार करते हैं कि नैतिक रॉस के सातवें स्तर की तुलना जैनदृष्टि में पद्म-लेश्या से की शुभ का समन्वय हमारे कार्यों, इच्छाओं, संवेगों तथा चरित्र से है। जा सकती है, क्योंकि दोनों के अनुसार इस स्तर पर व्यक्ति दूसरों यही नहीं दोनों व्यक्ति के नैतिक विकास का मूल्यांकन इस बात से के हित का ध्यान रखता है तथा दूसरों के हित के लिए उन सब करते हैं कि व्यक्ति के मनोभावों एवं आचरण में कितना परिवर्तन हुआ कार्यों को करने में तत्पर रहता है, जो नैतिक दृष्टि से शुभ है। है और वह विकास की किस भूमिका में स्थित है। रॉस के वर्गीकरण रॉस के अनुसार मनोभावों के आठवें सर्वोच्च स्तर पर व्यक्ति के पहले स्तर की तुलना कृष्ण-लेश्या की मनोभूमिका से की जा सकती को मात्र अपने कर्तव्य का बोध रहता है। वह हिताहित की भूमिकाओं है, दोनों ही दृष्टिकोणों के अनुसार इस स्तर में प्राणी की मनोवृत्ति से ऊपर उठ जाता है। इसी प्रकार जैन विचारणा के अनुसार भी नैतिकता दूसरों को यथासम्भव दुःख देने की होती है। जैन विचारणा का जामुन की इस उच्चतम भूमिका में जिसे शुक्ल-लेश्या कहा जाता है, व्यक्ति के वृक्ष वाला उदाहरण भी यही बताता है कि कृष्ण-लेश्या वाला व्यक्ति को समत्व भाव की उपलब्धि हो जाती है, अत: वह स्व और पर उस जामुन वृक्ष के मूल को प्राप्त करने की इच्छा रखता है अर्थात् भेद से ऊपर उठकर मात्र आत्मस्वरूप में स्थित रहता है। जितना विनाश किया जा सकता है या जितना सुःख दिया जा सकता इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल जैन, बौद्ध और बृहद् है, उसे देने की इच्छा रखता है। दूसरे स्तर की तुलना नील लेश्या हिन्दू परम्परा वरन् पाश्चात्य विचारक भी इस विषय में एकमत हैं कि से की जा सकती है। रॉस के अनुसार व्यक्ति इस स्तर में दूसरों को व्यक्ति के मनोभावों से उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है। व्यक्ति अस्थायी दुःख देने की इच्छा रखता है, जैनदृष्टि के अनुसार भी इस का आचरण एक ओर उसके मनोभावों का परिचायक है, तो दूसरी अवस्था में प्राणी दूसरों को दुःख उसी स्थिति में देना चाहता है, जब ओर उसके नैतिक व्यक्तित्व का निर्माता भी है। मनोभाव एवं तज्जनित उनके दुःख देने से उसका स्वार्थ सधता है। इस प्रकार इस स्तर पर आचरण जैसे-जैसे अशुभ से शुभ की ओर बढ़ता है, वैसे-वैसे व्यक्ति प्राणी दूसरों को तभी दुःख देता है जब उसका स्वार्थ उसे टकराता में भी परिपक्वता एवं विकास दृष्टिगत होता है। ऐसे शुद्ध, संतुलित, हो। यद्यपि जैनदृष्टि यह स्वीकार करती है कि इस स्तर में व्यक्ति स्थिर एवं परिपक्व व्यक्तित्व का निर्माण जीवन का लक्ष्य है। अपने छोटे से हित के लिए दूसरों का बड़ा अहित करने में नहीं सकुचाता। जैन विचारणा के उपर्युक्त उदाहरण में बताया गया है कि नील-लेश्या लेश्या-सिद्धान्त का ऐतिहासिक विकासक्रम वाला व्यक्ति फल के लिए समूल वृक्ष का नाश तो नहीं करता, लेकिन जहाँ तक लेश्या की अवधारणा के ऐतिहासिक विकासक्रम का उसकी शाखा को काट देने की मनोवृत्ति रखता है अर्थात् उस वृक्ष प्रश्न है, डॉ० ल्यूमेन और डॉ० हरमन जैकोबी की मान्यता यह है का पूर्ण नाश नहीं, वरन् उसके एक भाग का नाश करता है। दूसरे कि आजीवकों की षट्-अभिजातियों की कल्पना से ही जैनों में षट्शब्दों में आंशिक दुःख देता है। रॉस के तीसरे स्तर की तुलना जैन लेश्याओं की अवधारणा का विकास हुआ है। षट्-लेश्याओं के नाम दृष्टि की कापोतलेश्या से की जा सकती है। जैन दृष्टि यह स्वीकार आदि की षट्-अभिजातियों के नामों से बहुत कुछ साम्यता को देखकर करती है कि नील और कापोत-लेश्या के इन स्तरों में व्यक्ति सुखापेक्षी उनका यह मान लेना अस्वाभाविक तो नहीं कहा जा सकता है, फिर होता है, लेकिन जिन सुखों की वह गवेषणा करता है, वे वासनात्मक भी यदि अभिजाति-सिद्धान्त और लेश्या-सिद्धान्त की मूल प्रकृति को सुख ही होते हैं। दूसरे, जैन विचारणा यह भी स्वीकार करती है कि देखें तो हमें दोनों में एक अन्तर प्रतीत होता है। अभिजाति का सिद्धान्त कापोत-लेश्या के स्तर तक व्यक्ति अपने स्वार्थ या सुखों की प्राप्ति धार्मिक विश्वासों और साधनाओं के बाह्य आधार पर किया गया व्यक्ति
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