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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्रथमतः, विवेकाभाव ही प्रमत्तता है और यही अनैतिकता का कारण जीवन को किस प्रकार प्रभावित करता है, इस तथ्य पर भी विचार है। अत: विवेकपूर्वक कार्य नहीं करने वाला नैतिक उत्तरदायित्व से करें। मुक्त नहीं है। दूसरे, विवेकशक्ति तो सभी चेतन आत्माओं में है। जिसमें मन के स्वरूप के विश्लेषण की प्रमुख समस्या यह है कि क्या वह प्रसुप्त है, उस प्रसुप्ति के लिए भी वह स्वयं ही उत्तरादायी है। मन भौतिक तत्त्व है अथवा आध्यात्मिक तत्त्व? बौद्ध विचारणा मन तीसरे अनेक प्राणी तो ऐसे हैं जिनमें विवेक का प्रकटन हो चुका को चेतन तत्त्व मानती है जबकि सांख्य दर्शन और योगवासिष्ठ में था, (जो कभी समनस्क या विवेकवान प्राणी थे) लेकिन उन्होने उस उसे जड़ माना गया है।१४ गीता सांख्य विचारणा के अनुरूप मन को विवेकशक्ति का यथार्थ उपयोग नहीं किया। फलस्वरूप उनमें वह जड़ प्रकृति से ही उत्पन्न और त्रिगुणात्मक मानती है।५।। विवेकशक्ति पुन: कुण्ठित हो गई। अतः ऐसे प्राणियों को नैतिक जैन विचारणा में मन के भौतिक पक्ष को "द्रव्यमन" और चेतन उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं माना जा सकता।
पक्ष को “भावमन" कहा गया है। १६ विशेषावश्यकभाष्य में बताया गया सूत्रकृतांगसूत्र में इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख मिलता है- कई है कि द्रव्यमन मनोवर्गणा नामक परमाणुओं से बना हुआ है। यह जीव ऐसे भी हैं, जिनमें जरा-सी तर्कशक्ति, प्रज्ञाशक्ति, मन या वाणी मन का भौतिक पक्ष (Physical or structural aspect of mind) है। की शक्ति नहीं होती है। वे मूढ़ जीव भी सबके प्रति समान दोषी साधारण रूप से इसमें शरीरस्थ सभी ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक अंग हैं और उसका कारण यह है कि सब योनियों के जीव एक जन्म में आ जाते हैं। मनोवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित उस भौतिक रचनासंज्ञा (विवेक) वाले होकर अपने किये हुए कर्मों के कारण दूसरे जन्म तन्त्र में प्रवाहित होने वाली चैतन्यधारा भाव मन है। दूसरे शब्दों में, में असंज्ञी (विवेकशून्य) बनकर जन्म लेते हैं। अतएव विवेकवान होना इस रचना-तन्त्र को आत्मा से मिली हुई चिन्तन-मनरूप चैतन्य शक्ति या न होना अपने ही किये हए कर्मों का फल होता है, इससे विवेकाभाव ही भाव मन (Psychical aspect of mind) है। की दशा में जो कुछ पाप-कर्म होते हैं उनकी जवाबदारी भी उनकी यहाँ पर एक विचारणीय प्रश्न यह भी उठता है कि द्रव्यमन ही होती है।
और भावमन शरीर के किस भाग में स्थित हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय के यद्यपि जैन तत्त्वज्ञान में जीवों के अव्यवहार-राशि की जो कल्पना ग्रन्थ गोम्मटसार के जीवकाण्ड में द्रव्यमन का स्थान हृदय माना गया की गई है, उस वर्ग के जीवों के नैतिक उत्तरदायित्व की व्याख्या है, जबकि श्वेताम्बर आगमों में ऐसा कोई निर्देश उपलब्ध नहीं है कि सूत्रकृतांगसूत्र के इस आधार पर नहीं हो सकती, क्योंकि अव्यवहार-राशि मन शरीर के किस विशेष भाग में स्थित है। पं० सुखलाल जी अपने के जीवों को तो विवेक कभी प्रकटित ही नहीं हुआ। वे तो केवल गवेषणापूर्ण अध्ययन के आधार पर यह मानते हैं कि “श्वेताम्बर परम्परा इस आधार पर ही उत्तरदायी माने जा सकते हैं कि उनमें जो विवेकक्षमता का समग्र स्थूल शरीर ही द्रव्यमन का स्थान इष्ट है।" जहाँ तक भावमन प्रसुप्त है वे उसका प्रकटन नहीं कर रहे हैं।
के स्थान का प्रश्न है, उसका स्थान आत्मा ही है। क्योकि आत्म-प्रदेश एक प्रश्न यह भी है कि यदि नैतिक प्रगति के लिए "सविवेक सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। अत: भावमन का स्थान भी सम्पूर्ण शरीर मन" आवश्यक है तो फिर जैन विचारणा के अनुसार वे सभी प्राणी ही सिद्ध होता है। जिनमें ऐसे "मन" का अभाव है, नैतिक प्रगति के पथ पर कभी आगे यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो बौद्ध दर्शन में मन नहीं बढ़ सकेंगे। जैन विचारणा के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर यह को हृदयप्रदेशवर्ती माना गया है, जो दिगम्बर सम्प्रदाय की द्रव्यमन होगा कि "विवेक" के अभाव में भी कर्म का बन्ध और भोग तो सम्बन्धी मान्यता के निकट आता है। जबकि सांख्य परम्परा श्वेताम्बर चलता है, लेकिन फिर भी जब विचारक-मन का अभाव होता है तो सम्प्रदाय के निकट है। पं० सुखलाल जी लिखते हैं कि सांख्य आदि कर्म वासना-संकल्प से युक्त होते हुए भी वैचारिक संकल्प से युक्त दर्शनों की परम्परा के अनुसार मन का स्थान केवल हृदय नहीं माना नहीं होते हैं और कर्मों के वैचारिक संकल्प से युक्त नहीं होने के कारण जा सकता, क्योंकि उस परम्परा के अनुसार मन सूक्ष्मलिंग शरीर में, बन्धन में तीव्रता भी नहीं होती है। इस प्रकार नवीन कर्मों का बन्ध जो अष्टादश तत्त्वों का विशिष्ट निकायरूप है, प्रविष्ट है और सूक्ष्म होते हुए भी तीव्र बन्ध नहीं होता है और पुराने कर्मों का भोग चलता शरीर का स्थान समस्त स्थूल शरीर ही मानना उचित जान पड़ता है। रहता है। अत: नदी-पाषाण न्याय के अनुसार संयोग से कभी न कभी अतएव उस परम्परा के अनुसार मन का स्थान समग्र स्थूल शरीर ही वह अवसर आ जाता है, जब प्राणी विवेक को प्राप्त कर लेता है सिद्ध होता है। और नैतिक विकास की ओर अग्रसर होने लगता है।
जैन विचारणा मन के आध्यात्मिक और भौतिक दोनों स्वरूपों
को स्वीकार करके ही संतोष नहीं मान लेती वरन् इन भौतिक और मन का स्वरूप
आध्यात्मिक पक्षों के बीच गहन सम्बन्ध को भी स्वीकार कर लेती इस प्रकार हम देखते हैं कि मन आचार दर्शन का केन्द्रबिन्दु है। जैन नैतिक विचारणा में बन्धन के लिए अमूर्त चेतन आत्मतत्त्व है। जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों की परम्परायें मन को और जड़ कर्मतत्त्व का जो सम्बन्ध स्वीकार किया गया है, उसकी नैतिक जीवन के सन्दर्भ में अत्यधिक महत्त्वूपर्ण स्थान प्रदान करती व्याख्या के लिए उसे मन के स्वरूप का यही सिद्धान्त अभिप्रेत हो हैं। अत: यह स्वाभाविक है कि मन का स्वरूप क्या है और वह नैतिक सकता है। अन्यथा जैन विचारणा की बन्धन और मुक्ति की व्याख्या
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