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मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण
३७९ गीता में नैतिक विकास का वास्तविक मार्ग निग्रह का नहीं है। न केवल मार्ग नहीं माना। उन्होंने कहा- विकास का सच्चा मार्ग वासना-संस्कार गीता के आचार दर्शन में दमन को अनुचित माना गया है, वरन् बौद्ध को दबाना नहीं है अपितु उनका क्षय करना है। वास्तव में दमन का
और जैन विचारणाओं में भी यही दृष्टिकोण अपनाया गया है। बुद्ध मार्ग स्वाभाविक नहीं है, वासनाओं या इच्छाओं के निरोध करने की के मध्यममार्ग के उपदेश का सार यही है कि आध्यात्मिक विकास अपेक्षा वे क्षीण हो जाएँ, यही अपेक्षित है। प्रश्न होता है कि वासनाओं के मार्ग में वासनाओं का दमन इतना महत्त्वूपर्ण नहीं है जितना उनसे के क्षय और निरोध में क्या अन्तर है। ऊपर उठ जाना। वासनाओं के दमन का मार्ग और वासनाओं के भोग निरोध में चित्त में वासना उठती है और फिर उसे दबाया जाता का मार्ग दोनों ही बुद्ध की दृष्टि में साधना के सच्चे मार्ग नहीं हैं। है, जबकि क्षय में वासना का उठना ही शनैः-शनैः कम होकर समाप्त तथागत बुद्ध ने जिस मध्यममार्ग का उपदेश दिया उसका स्पष्ट आशय हो जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि में दमन की क्रिया में यही था कि साधना में दमन पर जो अत्यधिक बल दिया जा रहा वासनात्मक अहं (Id) और आदर्शात्मक अहं (Super-ego) में संघर्ष था उसे कम किया जाय। बौद्ध साधना का आदर्श तो चित्तशान्ति है, चलता रहता है। लेकिन क्षय में यह संघर्ष नहीं होता है। वहाँ तो जबकि दमन तो चित्तक्षोभ या मानसिक द्वन्द्व को ही जन्म देता है। वासना उठती ही नहीं है। दमन या उपशम में हमें क्रोध का भाव बौद्धाचार्य अनंगवज्र कहते हैं कि “चित्त-क्षुब्ध होने से कभी भी मुक्ति आता है और हम उसे दबाते हैं या उसे अभिव्यक्त होने से रोकते नहीं होती, अत: इस तरह बरतना चाहिए कि जिससे मानसिक क्षोभ हैं, जबकि क्षायिक भाव में क्रोधादि विकार समाप्त हो जाते हैं। उपशमन उत्पन्न न हो।''८ दमन की प्रक्रिया चित्तक्षोभ की प्रक्रिया है, चित्तशान्ति (दमन) में मन में क्रोध का भाव होता है, मात्र क्रोध-भाव का प्रगटीकरण की नहीं। बोधिचर्यावतार की भूमिका में लिखा है कि बुद्ध के धर्म नहीं होता जिसे साधारण भाषा में गुस्सा पी जाना कहते हैं। उपशम में जहाँ दूसरे को पीड़ा पहुँचाना मना है वहाँ अपने को पीड़ा देना भी गुस्से का पी जाना ही है। इसमें लोकमर्यादा आदि बाह्य तत्त्व ही भी अनर्थ कर्म कहा गया है। सौगत तन्त्र ने आत्मपीड़ा के मार्ग को उसके निरोध का कारण बनते हैं। इसलिए यह आत्मिक विकास नहीं ठीक नहीं समझा। क्या दमन मात्र से चित्त-विक्षोभ सर्वथा चला जाता है, अपितु उसका ढोंग है, एक आरोपित आवरण है। क्षायिक भाव होगा? दबायी हुई वृत्तियाँ जाग्रतावस्था में न सही स्वप्नावस्था में तो में क्रोध उत्पन्न ही नहीं होता है। साधारण भाषा में हम कहते हैं कि अवश्य ही चित्त को मथ डालती होगी। ७९ जब तक चित्त में भोग-लिप्सा ऐसे साधक को गुस्सा आता ही नहीं है, अत: यही विकास का सच्चा है, तब तक चित्तक्षोभ का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इस प्रकार हम मार्ग है। जैन विचारणा के अनुसार यदि कोई साधक नैतिक एवं देखते हैं कि बौद्ध विचारणा को दमन का प्रत्यय अभिप्रेत नहीं है। आध्यात्मिक प्रगति करता है तो वह पूर्णता के अपने लक्ष्य के अत्यधिक दमन के विरोध में उठ खड़ी बौद्ध विचारणा की चरम परिणति चाहे निकट पहुँच कर भी पुनः पतित हो जाता है। जैन विचारणा की परिभाषिक वामाचार के रूप में हुई हो, फिर भी उसके दमन के विरोध को शब्दावली में कहें तो उपशम मार्ग का साधक आध्यात्मिक पूर्णता के अवास्तविक नहीं कहा जा सकता है। चित्तशान्ति के साधनामार्ग में चौदह गुणस्थान (सीढ़ियों) में से ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँच कर दमन का महत्त्वूपर्ण स्थान नहीं हो सकता। जहाँ तक जैन विचारणा कभी-कभी वहाँ से ऐसा गिरता है कि पुनः निम्नतम अवस्था प्रथम का प्रश्न है वह अपनी पारिभाषिक भाषा में स्पष्ट रूप से कहती है मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाता है। यह तथ्य जैन साधना में दमन कि “साधना का सच्चा मार्ग उपशमिक नहीं वरन् क्षायिक है।" की परम्परा का क्या अनौचित्य है इसे स्पष्ट कर देता है। यहाँ पर
जैन दृष्टिकोण के अनुसार औपशमिक मार्ग वह मार्ग है जिसमें यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि आगम ग्रन्थों में मन मन की वृत्तियों, वासनाओं को दबाकर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ा के निरोध का उपदेश अनेक स्थानों पर दिया गया है, वहाँ निरोध जाता है। इच्छाओं के निरोध का मार्ग ही औपशमिक मार्ग है। जिस का क्या अर्थ है? वहाँ पर निरोध का अर्थ दमन नहीं लगाना चाहिए प्रकार आग को राख से ढक दिया जाता है उसी प्रकार उपशम में अन्यथा औपशमिक और क्षायिक दृष्टियों का कोई अर्थ ही नहीं रह कर्म-संस्कार या वासना-संस्कार को दबाते हुए नैतिकता के मार्ग पर जाएगा। अत: वहाँ निरोध का अर्थ क्षायिक दृष्टि से ही करना समुचित आगे बढ़ा जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो यह है। प्रश्न होता है कि क्षायिक दृष्टि से मन का शुद्धीकरण कैसे किया दमन (Repression) का मार्ग है। साधना के क्षेत्र में वासना-संस्कार जाय? को दबाकर आगे बढ़ने का मार्ग दमन का मार्ग है, लेकिन यह मनःशुद्धि उत्तराध्ययनसूत्र में मन के निग्रह के सम्बन्ध में जो रूपक प्रस्तुत का वास्तविक मार्ग नहीं है, यह तो मानसिक गन्दगी को ढकना मात्र किया गया है उसमें श्रमणकेशी गौतम से पूछते हैं- आप एक दुष्ट है, छिपाना मात्र है। जैन विचारकों ने गुणस्थान प्रकरण में बताया भयानक अश्व पर सवार हैं, जो बड़ी तीव्र गति से भागता है, वह है कि यह वासनाओं को दबाकर आगे बढ़ने की अवस्था नैतिक विकास आपको उन्मार्ग की ओर न ले जाकर सन्मार्ग पर कैसे ले जाता है? में आगे तक नहीं चलती है। जैन विचारणा यह मानती है कि ऐसा गौतम ने इस लाक्षणिक चर्चा को स्पष्ट करते हुए बताया हैसाधक पदच्युत हो जाता है। जिस दमन को आधुनिक मनोविज्ञान “यह मन ही साहसिक, दुष्ट एवं भयंकर अश्व है, जो चारों ओर भागता में व्यक्तित्व के विकास में बाधक माना गया है, वही विचारणा जैन है। मैं उसका जातिवान अश्व की तरह श्रुतरूपी रस्सियों से बाँधकर दर्शन में मौजूद थी। जैन दार्शनिकों ने भी दमन को विकास का सच्चा समत्व एवं धर्म-शिक्षा से निग्रह करता हूँ।"
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