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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ महान् शत्रु हैं।६४ इन्द्रियों के द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले रक्षा करना अत्यन्त कठिन है, इसकी वृत्तियों का कठिनता से ही निवारण पुरुष के केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, किन्तु राग निवृत्त नहीं किया जा सकता है। अत: बुद्धिमान मनुष्य इसे ऐसे ही सीधा करे होते। जबकि निर्वाण लाभ के लिए राग का निवृत्त होना परमावश्यक जैसे इषुकार (बाण बनाने वाला) बाण को सीधा करता है। यह चित्त
कठिनता से निग्रहित होता है, अत्यन्त शीघ्रगामी और यथेच्छ विचरण वास्तविकता यह है कि निरोध इन्द्रिय-व्यापारों का नहीं वरन् करने वाला है इसलिए इसका दमन करना ही श्रेयस्कर है, दमित किया उनमें निहित राग-द्वेष का करना होता है, क्योंकि बन्धन का वास्तविक हुआ चित्त ही सुखवर्धक होता है।''७४ जैन आचार्य हेमचन्द्र कहते कारण इन्द्रिय-व्यापार नहीं, वरन् राग-द्वेष की प्रवृत्तियाँ हैं। जैन दार्शनिक हैं, "आँधी की तरह चंचल मन मुक्ति प्राप्त करने के इच्छुक एवं तप कहते हैं- इन्द्रियों के शब्दादि मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ विषयासक्त करने वाले मनुष्य को भी कहीं का कहीं ले जाकर पटक देता है, व्यक्ति के लिए ही राग-द्वेष के कारण होते हैं, वीतराग के लिये नहीं।६७ अतः जो मनुष्य मुक्ति चाहते हों उन्हें समग्र विश्व में भटकने वाले गीता कहती है कि राग-द्वेष से विमुक्त व्यक्ति इन्द्रिय-व्यापारों को करता लम्पट मन का निरोध करना चाहिए।"७५ हुआ भी पवित्रता को ही प्राप्त होता है।६८ इस प्रकार जैनदर्शन और मनोनिग्रहण के उपरोक्त सन्दर्भो के आधार पर भारतीय नैतिक गीता इन्द्रिय-व्यापारों के निरोध की बात नहीं कहते, वरन् इन्द्रियों चिन्तन पर यह आक्षेप लगाया जा सकता है कि वह आधुनिक के विषयों के प्रति राग-द्वेष की वृत्तियों के निरोध की धारणा को प्रस्थापित मनोविज्ञान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। आधुनिक मनोविज्ञान करते हैं।
इच्छाओं के दमन एवं मनोनिग्रह को मानसिक समत्व का हेतु नहीं इसी प्रकार मनोनिरोध के सम्बन्ध में कुछ भ्रान्त धारणाएँ बना मानता, वरन् इसके ठीक विपरीत उसे चित्त विक्षोभ का कारण मानता ली गई हैं, यहाँ हम उसका भी यथार्थ स्वरूप प्रस्तुत करने का प्रयास है। दमन, निग्रह, निरोध आज की मनोवैज्ञानिक धारणा में मानसिक करेंगे।
सन्तुलन के भंग करने वाले माने गये हैं। फ्रायड ने मनोविघटन एवं
मनोविकृतियों का प्रमुख कारणदमन और प्रतिरोध को ही माना है। इच्छानिरोध या मनोनिग्रह
आधुनिक मनोविज्ञान की इस मान्यता को झुठलाया नहीं जा सकता भारतीय आचार दर्शन में इच्छानिरोध एवं वासनाओं के निग्रह कि इच्छानिरोध और मनोनिग्रहण मानसिक स्वास्थ्य के लिये अहितकर का स्वर काफी मुखरित हुआ है। आचार दर्शन के अधिकांश विधि-निषेध है। यही नहीं इच्छाओं के दमन में जितनी अधिक तीव्रता होती है इच्छाओं के दमन से सम्बन्धित हैं, क्योंकि इच्छाएँ तृप्ति चाहती हैं वे दमित इच्छाएँ उतने ही वेग से विकृत रूप से प्रकट होकर न केवल
और इस प्रकार चित्त शान्ति या आध्यात्मिक समत्व का भंग हो जाता अपनी पूर्ति का प्रयास करती हैं, वरन् व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी है। अत: यह माना गया कि समत्व के नैतिक आदर्श की उपलब्धि विकृत बना देती हैं। यदि हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं तो फिर के लिए इच्छाओं का दमन कर दिया जाय। मन इच्छाओं एवं संकल्पों नैतिक जीवन से इस दमन की धारणा को ही समाप्त कर देना होगा। का उत्पादक है, अत: इच्छानिरोध का अर्थ मनोनिग्रह ही मान लिया प्रश्न होता है कि क्या भारतीय नीति निर्माताओं की दृष्टि से यह तथ्य गया। पतंजलि ने तो यहाँ तक कह दिया कि चित्तवृत्ति का निरोध ओझल था? लेकिन बात ऐसी नहीं है जैन, बौद्ध और गीता के ही योग है। यह माना जाने लगा कि मन स्वयं ही समग्र क्लेशों का ___आचार-दर्शन के निर्माताओं की दृष्टि में दमन के अनौचित्य की धारणा धाम है। उसमें जो भी वृत्तियाँ उठती हैं वे सभी बन्धनरूप हैं। अतः अत्यन्त स्पष्ट थी, जिसे सप्रमाण प्रस्तुत किया जा सकता है। यदि उन मनोव्यापारों का सर्वथा अवरोध कर देना ही निर्विकल्पक समाधि गहराई से देखें तो गीता स्पष्ट रूप से दमन या निग्रह के अनौचित्य है, नैतिक जीवन का आदर्श है। जैन, बौद्ध और गीता के आचार को स्वीकार करती है। गीता में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "प्राणी दर्शनों में इच्छानिरोध और मनोनिग्रह के प्रत्यय को स्वीकार किया अपनी प्रकृति के अनुसार ही व्यवहार करते हैं वे निग्रह कैसे कर सकते गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है- “यह मन उस दुष्ट और हैं।'७६ योगवासिष्ठ में इस बात को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया भयंकर अश्व के समान है जो चारों दिशाओं में भागता है।"६९ अत: है कि “हे राजर्षि! तीनों लोक में जितने भी प्राणी हैं स्वभाव से ही साधक समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त होने वाले इस मन उनकी देह द्वयात्मक है। जब तक शरीर रहता है तब तक शरीरधर्म का निग्रह करें।७० गीता में भी कहा गया है- “यह मन अत्यन्त स्वभाव से ही अनिवार्य है अर्थात् प्राकृतिक वासना का दमन या निरोध ही चंचल, विक्षोभ उत्पन्न करने वाला और बड़ा बलवान है, इसका नहीं होता।"७७ निरोध करना वायु के रोकने के समान अत्यन्त ही दुष्कर है।"७१ फिर गीता कहती है कि यद्यपि विषयों को ग्रहण नहीं करने वाले भी कृष्ण कहते हैं कि “निस्संदेह इस मन का कठिनता से निग्रह होता अर्थात् इन्द्रियों को उनके विषयों के उपभोग करने से रोक देने वाले है, किन्तु अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसका निग्रह सम्भव है,"७२ व्यक्तियों के द्वारा विषयों के भोग का तो निग्रह हो जाता है, लेकिन इसलिए हे अर्जुन! तू मन की वृत्तियों का निरोध कर इस मन को उनका रस (आसक्ति) बना रहता है। अर्थात् वे मूलतः नष्ट नहीं हो मेरे में लगा।७३ बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में भी कहा गया है कि "यह चित्त पाते और अनुकूल परिस्थितियों में पुन: व्युत्थित हो जाते हैं। अत्यन्त ही चंचल है, इस पर अधिकार कर, क्योकि कुमार्ग से इसकी "रसवर्जरसोऽत्यस्य' का पद स्पष्ट रूप से यह संकेत करता है कि
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