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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ है, 'अन्य लिंगसिद्ध' का उल्लेख प्राप्त होता है
अर्थात् संसार-परिभ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष के तत्त्व जिसके इत्थी पुरिससिद्धा य तहेव य नपुंसगा।
क्षीण हो चुके हैं उसे हमारा प्रणाम है, वह चाहे.ब्रह्मा हो, विष्णु हो, सलिंगे अनलिंगे य गिहिलिंगे तहेव य।।१४ महादेव हो या जिन। 'अन्यलिंग' शब्द का तात्पर्य जैनेतर धर्म और सम्प्रदाय के लोगों वस्तुत: हम अपने-अपने आराध्य के नामों को लेकर विवाद से है। जैन धर्म के अनुसार मुक्ति का आधार न तो कोई धर्म सम्प्रदाय करते रहते हैं। उसकी विशेषताओं को अपनी दृष्टि से ओझल कर है और न कोई विशेष वेश-भूषा ही। आचार्य रत्नशेखरसूरि सम्बोधसत्तरी देते हैं। सभी धर्म और दर्शनों में उस परम तत्त्व या परम सत्ता को में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि
राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित, विषय-वासनाओं से ऊपर सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा।
उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारुणिक माना गया है। हमारी दृष्टि उस समभावभाविअप्पा लहेय मुक्खं न संदेहो।।१५ परम तत्त्व के इस मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती
अर्थात् जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं। जबकि यह नामों को प्राप्त करेगा फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है। आचार्य हरिभद्र या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो। इसी बात का अधिक स्पष्ट कहते हैं - प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थ उपदेशतरंगिणी में भी है।
सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथातेति च। वे लिखते हैं कि
शब्दैस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एकं एवैवमादिभिः।।११ नासाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। अर्थात् यह एक ही तत्त्व है चाहे उसे सदाशिव कहें, परब्रह्म न पक्षसेवाश्रयेन मुक्ति, कषाय मुक्तिः किल मुक्तिरेव।।१६ कहें, सिद्धात्मा कहें या तथागत कहें। नामों को लेकर जो विवाद किया
अर्थात् मुक्ति न तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है न दिगम्बर जाता है उसकी निस्तारता को स्पष्ट करने के लिए एक सुन्दर उदाहरण रहने से; तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं दिया जाता है। एक बार भिन्न भाषा-भाषी लोग किसी नगर की धर्मशाला हो सकती। किसी एक सिद्धान्त विशेष में आस्था रखने या किसी में एकत्रित हो गये। वे एक ही वस्तु के अलग-अलग नामों को लेकर व्यक्ति विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है। मुक्ति तो वस्तुत: परस्पर विवाद करने लगे। संयोग से उसी समय उस वस्तु का विक्रेता कषायों अर्थात्, क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है। उसे लेकर वहाँ आया। सब उसे खरीदने के लिए टूट पड़े और अपने एक दिगम्बर आचार्य ने भी स्पष्ट रूप से कहा है -
विवाद की निस्सारता को समझने लगे। धर्म के क्षेत्र में भी हमारी संघो को विन तारइ, कट्ठो मूलो तहेव णिप्पिच्छो। यही स्थिति है। हम सभी अज्ञान, तृष्णा, आसक्ति, या राग-द्वेष के अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा व झाएहि।। तत्त्वों से ऊपर उठना चाहते हैं, किन्तु आराध्य के नाम या आराधना
अर्थात् कोई भी संघ या सम्प्रदाय हमें संसार-समुद्र से पार नहीं विधि को लेकर व्यर्थ में विवाद करते हैं और इस प्रकार परम आध्यात्मिक करा सकता; चाहे वह मूलसंघ हो, काष्ठासंघ हो या निपिच्छिकसंघ अनुभूति से वंचित रहते हैं। वस्तुतः यह नामों का विवाद तभी तक हो। वस्तुतः जो आत्मबोध को प्राप्त करता है वही मुक्ति को प्राप्त रहता है जब तक कि हम उस आध्यात्मिक अनुभूति के रस का रसास्वादन करता है। मुक्ति तो अपनी विषय-वासनाओं से, अपने अहंकार और नहीं करते हैं। व्यक्ति जैसे ही वीतराग, वीततृष्णा या अनासक्त की अमर्ष से तथा राग-द्वेष के तत्त्वों से ऊपर उठने पर प्राप्त होती है। भूमिका का स्पर्श करता है, उसके सामने ये सारे नामों के विवाद अत: हम कह सकते हैं कि जैनों के अनुसार मुक्ति पर न तो व्यक्ति निरर्थक हो जाते हैं। सतरहवीं शताब्दी के आध्यात्मिक साधक आनन्दघन विशेष का अधिकार है और न तो किसी धर्म विशेष का अधिकार कहते हैंहै। मुक्त पुरुष चाहे वह किसी धर्म या सम्प्रदाय का रहा हो सभी के राम कहो रहिमान कहो कोउ काण्ह कहो महादेव री। लिए वन्दनीय और पूज्य होता है। आचार्य हरिभद्र लोकतत्त्वनिर्णय पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा सकल ब्रह्म स्वयमेव री।। में कहते हैं
भाजन भेद कहावत नाना एक मृतिका का रूप री। यस्य अनिखिलाश्च दोषा न सन्ति सवें गुणाश्च विद्यन्ते।
तापे खंड कल्पनारोपित आप अखंड अरूप री।। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै।। १७ राम-रहीम, कृष्ण-करीम, महादेव और पार्श्वनाथ सभी एक ही
अर्थात् जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिसमें सभी सत्य के विभिन्न रूप हैं। जैसे एक ही मिट्टी से बने विभिन्न पात्र गुण विद्यमान हैं, वह फिर ब्रह्मा हो, महादेव हो, विष्णु हो या फिर अलग-अलग नामों से पुकारे जाते हैं, किन्तु उनकी मिट्टी मूलत: एक जिन, हम उसे प्रणाम करते हैं। इसी बात को आचार्य हेमचन्द्र ही है। वस्तुत: आराध्य के नामों की यह भिन्नता वास्तविक भिन्नता महादेवस्तोत्र में लिखते हैं
नहीं है। यह भाषागत भिन्नता है, स्वरूपगत भिन्नता नहीं है। अत: भव-बीजांकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य।
इस आधार पर विवाद और संघर्ष निरर्थक है तथा विवाद करने वाले ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै।।१८ लोगों की अल्पबुद्धि के ही परिचायक हैं।
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