________________
३७०
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ में नहीं हो अथवा अपने से बाह्य हो। नैतिक साध्य बाह्य उपलब्धि दशा साध्य है और आत्मा की विभाव पर्याय की अवस्था ही साधक नहीं, आन्तरिक उपलब्धि है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह निज गुणों है तथा विभाव से स्वभाव की ओर आना ही साधना है। का पूर्ण प्रकटन है। यहाँ भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा साधना-पथ और साध्य-जिस प्रकार साधक और साध्य में के निज गुण या स्व लक्षण तो सदैव ही उसमें उपस्थित हैं, साधक अभेद माना गया है, उसी प्रकार साधना-मार्ग और साध्य में भी अभेद को केवल उन्हें प्रकटित करना है। हमारी क्षमताएँ साधक अवस्था है। जीवात्मा अपने ज्ञान, अनुभूति और संकल्प के रूप में साधक और सिद्ध अवस्था में वही हैं। साधक और सिद्ध अवस्था में अन्तर कहे जाते हैं, उसके यही ज्ञान, अनुभूति और संकल्प सम्यक्-दिशा क्षमताओं का नहीं, वरन् क्षमताओं को योग्यताओं में बदल देने का में नियोजित होने पर साधना-पथ बन जाते हैं, वे जब अपनी पूर्णता है। जैसे बीज वृक्ष के रूप में विकसित होता है वैसे ही मुक्तावस्था को प्रकट कर लेते हैं तो सिद्ध बन जाते हैं। जैन दर्शन के अनुसार में आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप में प्रकटित हो जाते हैं। साधक आत्मा सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र और सम्यग्तप अनन्त ज्ञान, अनन्त के ज्ञान, भाव (अनुभूति) और संकल्प के तत्त्व ही मोक्ष की अवस्था दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति रूपी अनन्त चतुष्टय की में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति के उपलब्धि कर लेते हैं तो यही अवस्था सिद्ध बन जाती है। आत्मा रूप में प्रकट हो जाते हैं। वह आत्मा जो कषाय और राग-द्वेष से का ज्ञानात्मक पक्ष सम्यग्ज्ञान की साधना के द्वारा अनन्त ज्ञान को प्रक युक्त है और इनसे युक्त होने के कारण बद्ध, सीमित और अपूर्ण है, कर लेता है, आत्मा का अनुभूत्यात्मक पक्ष सम्यग्दर्शन की साधना वही आत्मा अपने अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और के द्वारा अनन्त दर्शन की उपलब्धि कर लेता है, आत्मा का संकल्पात्मक अनन्त शक्ति के रूप में मुक्त एवं पूर्ण बन जाता है। उपाध्याय अमरमुनिजी पक्ष सम्यग्चारित्र की साधना के द्वारा अनन्त आनन्द की उपलब्धि कर के शब्दों में- “जैन साधना में स्व में स्व को उपलब्ध करना है, लेता है और आत्मा की क्रियाशक्ति सम्यगतप की साधना के द्वारा अनन्त निज में निज का शोध करना है, अनन्त में पूर्ण रूपेण रमण होना शक्ति को उपलब्ध कर लेता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जो साधक है-आत्मा के बाहर एक कण में भी साधना की उन्मुखता नहीं है।” चेतना का स्वरूप है वही सम्यक् बन कर साधना-पथ बन जाता है इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन विचारणा में तात्त्विक दृष्टि से साध्य और उसी की पूर्णता साध्य होती है। साधना-पथ और साध्य दोन
और साधक दोनों एक ही हैं, यद्यपि पर्यायार्थिक दृष्टि या व्यवहारनय आत्मा की ही अवस्थायें हैं। आत्मा की सम्यक् साधना पथ है और से उनमें भेद माना गया है। आत्मा की स्वभाव पर्याय या स्वभाव पूर्ण अवस्था साध्य है।
2. .
सन्दर्भ : १. जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि, डॉ० राधाकृष्णन्, प्रका०राजकमल
प्रकाशन, दिल्ली, १९६७, पृ० २५९। First Principles, Herbert spencer, pub. watts & co. London, VIIth Ed. p. 66.
Five Types of Ethical Theories, p. 16. ४. Ethical Studies, F.H. Bradlay, Oxford Universtiy Press
London,, 1935, Chapter II. ५. समयसार टीका, अमृतचन्द्र, प्रका०- अहिंसा प्रकाशन मन्दिर,
दरियागंज, दिल्ली, १९५९, ३०५। ६. योगशास्त्र, सम्पा० मुनि समदर्शी, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा
१९६३, ४/५। अध्यात्मतत्त्वालोक, मुनि न्यायविजय, प्रका० श्री हेमचन्द्राचार्य जैन सभा (पाटण), १९४३, ४/७।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org