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धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म
३६५ मोक्षोद्देशाविशेषेण य: पश्यति स शास्त्रवित्।।
सूत्रकृतांग का ही उदाहरण लें, उसमें अनेक विरोधी विचारधाराओं माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थों येन तच्चारु सिध्यति।।
की समीक्षा की गयी है। किन्तु शालीनता यह है कि कहीं भी किसी स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिशवल्गनम्।।
धर्ममार्ग या धर्मप्रवर्तक पर वैयक्तिक छींटाकशी नहीं है। ग्रन्थकार केवल माध्यस्थ्यसहितं ह्येकपदज्ञानमपि प्रमा।
उनकी विचारधाराओं का उल्लेख करता है, उनके मानने वालों का शास्त्रकोटिवृथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना।।२६
नामोल्लेख नहीं करता है। वह केवल इतना कहता है कि कुछ लोगों अर्थात् सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता की यह मान्यता है या कुछ लोग यह मानते हैं, जो कि संगतिपूर्ण है। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोणों (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से है। इस प्रकार वैयक्तिक या नामपूर्वक समालोचना से, जो कि विवाद देखता है, जिस प्रकार कोई पिता अपने पुत्र को। एक सच्चे अनेकान्त- या संघर्ष का कारण हो सकती है, वह सदैव दूर रहता है।२८ जैनागम वादी की दृष्टि न्यूनाधिक नहीं होती है। वह सभी के प्रति समभाव साहित्य में हम ऐसे अनेक सन्दर्भ भी पाते हैं, जहां अपने से विरोधी रखता है अर्थात् प्रत्येक विचारधारा या धर्म-सिद्धान्त की सत्यता का विचारों और विश्वासों के लोगों के प्रति समादर दिखाया गया है। सर्वप्रथम विशेष परिप्रेक्ष्य में दर्शन करता है। आगे वे पुन: कहते हैं कि सच्चा आचारांगसूत्र में जैन मुनि को यह स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वह शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है जो स्याद्वाद अर्थात् उदार दृष्टिकोण अपनी भिक्षावृत्ति के लिए इस प्रकार जाये कि अन्य परम्पराओं के का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण विचारधाराओं को समान भाव से देखता श्रमणों, परिव्राजकों और भिक्षुओं को भिक्षा प्राप्त करने में कोई बाधा है। वस्तुत: माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है और यही सच्चा न हो। यदि वह देखे कि अन्य परम्परा के श्रमण या भिक्षु किसी गृहस्थ धर्मवाद है। माध्यस्थभाव अर्थात् उदार दृष्टिकोण के रहने पर शास्त्र उपासक के द्वार पर उपस्थित हैं तो वह या तो भिक्षा के लिए आगे के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ो शास्त्रों का ज्ञान प्रस्थान कर जाये या फिर सबके पीछे इस प्रकार खड़ा रहे कि उन्हें भी वृथा है।
भिक्षाप्राप्ति में कोई बाधा न हो। मात्र यही नहीं यदि गृहस्थ उपासक
उसे और अन्य परम्पराओं के भिक्षुओं के सम्मिलित उपभोग के लिए जैन धर्म और धार्मिक सहिष्णुता के प्रसंग ।
जैन भिक्षु को यह कह कर भिक्षा दे कि आप सब मिलकर खा लेना, जैनाचार्यों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही उदार और व्यापक रहा तो ऐसी स्थिति में जैन भिक्षु का यह दायित्व है कि वह समानरूप है। यही कारण है कि उन्होंने दूसरी विचारधाराओं और विश्वासों के से उस भिक्षा को सभी में वितरित करे। वह न तो भिक्षा में प्राप्त अच्छी लोगों का सदैव आदर किया है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण सामग्री को अपने लिए रखे न भिक्षा का अधिक अंश ही ग्रहण करे।२९ जैन परम्परा का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है-ऋषिभाषित। ऋषिभाषित भगवतीसूत्र के अन्दर हम यह देखते हैं कि भगवान् महावीर के अन्तर्गत उन पैंतालीस अर्हत् ऋषियों के उपदेशों का संकलन है, के ज्येष्ठ अन्तेवासी गणधर इन्द्रभूति गौतम को मिलने के लिए उनका जिनमें पार्श्वनाथ और महावीर को छोड़कर लगभग सभी जैनेतर परम्पराओं पूर्वपरिचित मित्र स्कन्ध, जो कि अन्य परम्परा के परिव्राजकके रूप के हैं। नारद, भारद्वाज, नमि, रामपुत्र, शाक्यपुत्र गौतम, मंखलि गोशाल में दीक्षित हो गया था, आता है तो महावीर स्वयं गौतम को उसके आदि अनेक धर्ममार्ग के प्रवर्तकों एवं आचार्यों के विचारों का इसमें सम्मान और स्वागत का आदेश देते हैं। गौतम आगे बढ़कर अपने जिस आदर के साथ संकलन किया गया है, वह धार्मिक उदारता और मित्र का स्वागत करते हैं और कहते हैं-हे स्कन्ध! तुम्हारा स्वागत सहिष्णुता का परिचायक है। इन सभी को अर्हत् ऋषि कहा गया है२७ है, सुस्वागत है।३० अन्य परम्परा के श्रमणों और परिव्राजकों के प्रति और इनके वचनों को आगमवाणी के रूप में स्वीकार किया गया है। इस प्रकार का सम्मान एवं आदरभाव निश्चित ही धार्मिक सहिष्णुता सम्भवतः प्राचीन धार्मिक साहित्य में यही एकमात्र ऐसा उदाहरण है, और पारस्परिक सद्भाव में वृद्धि करता है। जहां विरोधी विचारधारा और विश्वासों के व्यक्तियों के वचनोंको उत्तराध्ययनसूत्र में हम देखते हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा आगमवाणी के रूप में स्वीकार कर समादर के साथ प्रस्तुत किया के तत्कालीन प्रमुख आचार्य श्रमणकेशी और भगवान् महावीर के प्रधान गया हो।
गणधर इन्द्रभूति गौतम जब संयोग से एक ही समय श्रावस्ती में उपस्थित जैन परम्परा की धार्मिक उदारता की परिचायक सूत्रकृतांगसूत्र होते हैं तो वे दोनों परम्पराओं के पारस्परिक मतभेदों को दूर करने की पूर्वनिर्दिष्ट वह गाथा भी है, जिसमें यह कहा गया है कि जो के लिए परस्पर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में मिलते हैं। एक ओर ज्येष्ठकुल अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरों के मतों की निन्दा का विचार कर गौतम स्वयं श्रमणकेशी के पास जाते हैं तो दूसरी करते हैं तथा उनके प्रति विद्वेषभाव रखते हैं, वे संसारचक्र में परिभ्रमित ओर श्रमणकेशी उन्हें श्रमणपर्याय में ज्येष्ठ मानकर पूरा समादर प्रदान होते रहते हैं। सम्भवतः धार्मिक उदारता के लिए इससे महत्त्वपूर्ण और करते हैं। जिस सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में वह चर्चा चलती है और कोई वचन नहीं हो सकता। यद्यपि यह सत्य है कि अनेक प्रसंगों पारस्परिक मतभेदोंका निराकरण किया जाता है, वह सब धार्मिक में जैन आचार्यों ने भी दूसरी विचारधाराओं और मान्यताओं की सहिष्णुता और उदार दृष्टिकोण का एक अद्भुत उदाहरण है।३१ समालोचना की है, किन्तु उन सन्दर्भो में भी कुछ अपवादों को छोड़कर दूसरी धर्म परम्पराओं और सम्प्रदायों के प्रति ऐसा ही उदार और सामान्यतया हमें एक उदार दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। हम समादर का भाव हमें आचार्य हरिभद्र के ग्रंथों में भी देखने को मिलता
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