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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ उसी वृक्ष के चित्र हैं। केवल उसी स्थिति में दो चित्र समान होंगे जब मान लिया जाता है तो वह असत्य बन जाता है और इसे ही जैनों उनका कोण और वह स्थल, जहाँ से वह चित्र लिया गया है-एक की परम्परागत शब्दावली में मिथ्यात्व कहा गया है। जिस प्रकार ही हो। अपूर्णता और भिन्नता दोनों ही बातें इन चित्रों में हैं। यही अलग-अलग कोणों से लिये गये चित्र परस्पर भिन्न-भिन्न और विरोधी बात मानवीय ज्ञान के सम्बन्ध में भी है। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों की होकर भी एक साथ यथार्थ के परिचायक होते हैं, उसी प्रकार क्षमता और शक्ति सीमित है। वह एक अपूर्ण प्राणी है। अपूर्ण के अलग-अलग संदर्भो में कहे गये भिन्न-भिन्न विचार परस्पर विरोधी होते द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे हुए भी सत्य हो सकते हैं। सत्य केवल उतना नहीं है, जितना हम नहीं जा सकते हैं। हमारा ज्ञान, जब तक कि वह ऐन्द्रिकता का अतिक्रमण जानते हैं। अत: हमें अपने विरोधियों के सत्य का निषेध करने का नहीं कर जाता, सदैव आंशिक और अपूर्ण होता है। इसी आंशिक अधिकार भी नहीं है। वस्तुत: सत्य केवल तभी असत्य बनता है, ज्ञान को जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है, तो विवाद और वैचारिक जब हम उस अपेक्षा या दृष्टिकोण को दृष्टि से ओझल कर देते हैं, संघर्षों का जन्म होता है। उपर्युक्त उदाहरण में वृक्ष के सभी चित्र उसके जिसमें वह कहा गया है। जिस प्रकार चित्र में वस्तु की सही स्थिति किसी एक अंश विशेष को ही अभिव्यक्त करते हैं। वृक्ष के इन सभी को समझने के लिए उस कोण का भी ज्ञान अपेक्षित होता है, उसी अपूर्ण एवं भिन्न-भिन्न और दो विरोधी कोणों से लिये जाने के कारण प्रकार वाणी में प्रकट सत्य को समझने के लिए उस दृष्टिकोण का किसी सीमा तक परस्पर विरोधी अनेक चित्रों में हम यह कहने का विचार अपेक्षित है जिसमें वह कहा गया है। समग्र कथन संदर्भ सहित साहस नहीं कर सकते हैं कि यह चित्र उस वृक्ष का नहीं है अथवा होते हैं और उन सन्दर्भो से अलग हटकर उन्हें नहीं समझा जा सकता यह चित्र असत्य है। इसी प्रकार हमारे आंशिक दृष्टिकोणों पर आधारित है। जो ज्ञान सन्दर्भ सहित है, वह सापेक्ष है और जो सापेक्ष है, वह सापेक्ष ज्ञान को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने से विरोधी मन्तव्यों अपनी सत्यता का दावा करते हुए भी दूसरे की सत्यता का निषेधक को असत्य कहकर नकार दे। वस्तुत: हमारी ऐन्द्रिक क्षमता, तर्कबुद्धि, नहीं हो सकता है। सत्य के सम्बन्ध में यही एक ऐसा दृष्टिकोण है शब्दसामर्थ्य और भाषायी अभिव्यक्ति सभी अपूर्ण, सीमित और सापेक्ष जो विभिन्न धर्म और संप्रदायों की सापेक्षिक सत्यता एवं मूल्यवत्ता हैं। ये सम्पूर्ण सत्य की एक साथ अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं हैं। मानव को स्वीकार कर उनमें परस्पर सौहार्द्र और समन्वय स्थापित कर सकता बुद्धि सम्पूर्ण सत्य का नहीं, अपितु उसके एकांश का ग्रहण कर सकती है। अनेकान्त की आधारभूमि पर ही यह मानना सम्भव है कि हमारे है। तत्त्व या सत्ता अज्ञेय तो नहीं है, किन्तु बिना पूर्णता को प्राप्त और हमारे विरोधी के विश्वास और कथन दो भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्यों में हुए उसे पूर्णरूप से जाना भी नहीं जा सकता। आइन्स्टीन ने कहा एक साथ सत्य हो सकते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर सन्मतितर्क था- हम सापेक्ष सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई में कहते हैंनिरपेक्ष द्रष्टा ही जानेगा। जब तक हमारा ज्ञान अपूर्ण, सीमित या सापेक्ष णिययवयणिज्जसच्चा सव्वनया परवियालणे मोहा। है तब तक हमें दूसरों के ज्ञान और अनुभव को, चाहे वह हमारे ज्ञान ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा।।२४ का विरोधी क्यों न हो, असत्य कहकर निषेध करने का कोई अधिकार अर्थात् सभी नय (अर्थात् सापेक्षिक वक्तव्य) अपने-अपने नहीं है। आंशिक सत्य का ज्ञान दूसरों के द्वारा प्राप्त ज्ञान का निषेधक दृष्टिकोण से सत्य हैं। वे असत्य तभी होते हैं, जब वे अपने से विरोधी नहीं हो सकता है। ऐसी स्थिति में यह कहना कि मेरी दृष्टि ही सत्य दृष्टिकोणों के आधार पर किये गये कथनों का निषेध करते हैं। इसीलिए है, सत्य मेरे ही पास है, दार्शनिक दृष्टि से एक भ्रान्त धारणा ही अनेकान्त दृष्टि का समर्थक या शास्त्र का ज्ञाता उन परस्पर विरोधी है। यद्यपि जैनों के अनुसार सर्वज्ञ या पूर्ण-पुरुष संपूर्ण सत्य का सापेक्षिक कथनों में ऐसा विभाजन नहीं करता है कि ये सच्चे हैं और साक्षात्कार कर लेता है, फिर भी उसका ज्ञान और कथन उसी प्रकार ये झूठे हैं। किसी कथन या विश्वास की सत्यता और असत्यता उस निरपेक्ष (अपेक्षा से रहित) नहीं हो सकता है, जिस प्रकार बिना किसी सन्दर्भ अथवा दृष्टिकोण विशेष पर निर्भर करती है जिसमें वह कहा कोण के किसी भी वस्तु का कोई भी चित्र नहीं लिया जा सकता गया है। वस्तुत: यदि हमारी दृष्टि उदार और व्यापक है, तो हमें परस्पर है। पूर्ण सत्य का बोध चाहे संभव हो, किन्तु उसे न तो निरपेक्ष रूप विरोधी कथनों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करना चाहिए। से जाना जा सकता है और न कहा ही जा सकता है। उसकी अभिव्यक्ति परिणामस्वरूप विभिन्न धर्मवादों में पारस्परिक विवाद या संघर्ष का का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, वह आंशिक और सापेक्ष कोई कारण शेष नहीं बचता। जिस प्रकार परस्पर झगड़ने वाले व्यक्ति बनकर ही रह जाता है। पूर्ण-पुरुष को भी हमें समझाने के लिए हमारी किसी तटस्थ व्यक्ति के अधीन होकर मित्रता को प्राप्त कर लेते हैं, उसी भाषा का सहारा लेना पड़ता है जो सीमित, सापेक्ष और अपूर्ण उसी प्रकार परस्पर विरोधी विचार और विश्वास अनेकान्त की उदार है। 'है' और 'नहीं है' की सीमा से घिरी हुई भाषा पूर्ण सत्य का और व्यापक दृष्टि के अधीन होकर पारस्परिक विरोध को भूल जाते प्रकटन कैसे करेगी। इसीलिए जैन परम्परा में कहा गया है कि कोई हैं।२५ उपाध्याय यशोविजय जी लिखते हैंभी वचन (जिनवचन भी) नय (दृष्टिकोण विशेष) से रहित नहीं होता यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव। है अर्थात् सर्वज्ञ के कथन भी सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं है। २३ जैन परम्परा तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी।। के अनुसार जब सापेक्ष सत्य को निरपेक्ष रूप से दूसरे सत्यों का निषेधक तेन स्याद्वादमालंब्य सर्वदर्शनतुल्यताम्।
साना
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