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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ है और मिथ्या-श्रुत भी सम्यक्-दृष्टि के लिए सम्यक्-श्रुत होता है, जैन आचार्यों ने दर्शनमोह को भी तीन भागों में बाँटा है—सम्यक्त्व उसका मूल आशय यही है।
मोह, मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह। मिथ्यात्व-मोह का अर्थ तो सहज
ही हमें समझ में आ जाता है। मिथ्यात्व-मोह का अर्थ है-मिथ्या धार्मिक असहिष्णुता का बीज-पागात्मकता
सिद्धान्तों और मिथ्या विश्वासों का आग्रह अर्थात् गलत सिद्धान्तों और धार्मिक असहिष्णुता का बीज तभी वपित होता है, जब हम अपने गलत आस्थाओं में चिपके रहना। किन्तु सम्यक्त्वमोह का अर्थ धर्म या साधना-पद्धति को ही एकमात्र और अन्तिम मानने लगते हैं सामान्यतया हमारी समझ में नहीं आता है। सामान्यतया सम्यक्त्व-मोह तथा अपने धर्म-गुरु को ही एकमात्र सत्य का द्रष्टा मान लेते हैं। यह का अर्थ सम्यक्त्व का मोह अर्थात् सम्यक्त्व का आवरण-ऐसा किया अवधारणा ही धार्मिक वैमनस्यता का मूल कारण है।
जाता है, किन्तु ऐसी स्थिति में वह भी मिथ्यात्व का ही सूचक होता __ वस्तुत: जब व्यक्ति की रागात्मकता धर्मप्रवर्तक, धर्ममार्ग और है। वस्तुतः सम्यक्त्वमोह का अर्थ है-दृष्टिराग अर्थात् अपनी धार्मिक धर्मशास्त्र के साथ जुड़ती है, तो धार्मिक कदाग्रहों और असहिष्णुता मान्यताओं और विश्वासों को ही एकमात्र सत्य समझना और अपने का जन्म होता है। जब हम अपने धर्म-प्रवर्तक को ही सत्य का एकमात्र से विरोधी मान्यताओं और विश्वासों को असत्य मानना। जैन दार्शनिक द्रष्टा और उपदेशक मान लेते हैं, तो हमारे मन में दूसरे धर्मप्रवर्तकों यह मानते हैं कि आध्यात्मिक पूर्णता या वीतरागता की उपलब्धि के के प्रति तिरस्कार की धारणा विकसित होने लगती है। राग का तत्त्व लिए जहाँ मिथ्यात्वमोह का विनाश आवश्यक है वहाँ सम्यक्त्वमोह जहाँ एक ओर व्यक्ति को किसी से जोड़ता है, वहीं दूसरी ओर वह अर्थात् दृष्टिराग से ऊपर उठना भी आवश्यक है। न केवल जैन परम्परा उसे कहीं से तोड़ने भी लगता है। जैन परम्परा में धर्म के प्रति इस में अपितु बौद्ध परम्परा में भी भगवान् बुद्ध के अन्तेवासी शिष्य आनन्द ऐकान्तिक रागात्मकता को दृष्टिराग कहा गया है और इस दृष्टिराग के सम्बन्ध में भी यह स्थिति है। आनन्द भी बुद्ध के जीवन काल को व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में बाधक भी माना गया है। भगवान् में अर्हत् अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाये। बुद्ध के प्रति उनकी रागात्मकता महावीर के प्रथम शिष्य एवं गणधर इन्द्रभूति गौतम को जब तक भगवान् ही उनके अर्हत् बनने में बाधक रही। चाहे वह इन्द्रभूति गौतम हो महावीर जीवित रहे, कैवल्य (सर्वज्ञत्व) की प्राप्ति नहीं हो सकी, वे या आनन्द हो, यदि दृष्टिराग क्षीण नहीं होता है, तो अर्हत् अवस्था वीतरागता को उपलब्ध नहीं कर पाये। आखिर ऐसा क्यों हुआ? वह की प्राप्ति सम्भव नहीं है। वीतरागता की उपलब्धि के लिए अपने कौन सा तत्त्व था जो गौतम की वीतरागता और सर्वज्ञता की प्राप्ति धर्म और धर्मगुरु के प्रति भी रागभाव का त्याग करना होगा। में बाधक बन रहा था? प्राचीन जैन साहित्य में यह उल्लिखित है कि एक बार इन्द्रभूति गौतम ५०० शिष्यों को दीक्षित कर भगवान् धार्मिक मतान्यता को कम करने का उपाय-गुणोपासना महावीर के पास ला रहे थे। महावीर के पास पहुँचते-पहुँचते उनके धार्मिक असहिष्णुता के कारणों में एक कारण यह है कि हम वे सभी शिष्य वीतराग और सर्वज्ञ हो चुके थे। गौतम को इस घटना गुणों के स्थान पर व्यक्तियों से जुड़ने का प्रयास करते हैं। जब हमारी से एक मानसिक खिन्नता हुई। वे विचार करने लगे कि जहाँ मेरे द्वारा आस्था का केन्द्र या उपास्य आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास की अवस्था दीक्षित मेरे शिष्य वीतरागता और सर्वज्ञता को उपलब्ध कर रहे हैं विशेष न होकर व्यक्ति विशेष बन जाता है, तो वहाँ मैं अभी भी इसको प्राप्त नहीं कर पा रहा हूँ। उन्होंने अपनी से ही आग्रह का घेरा खड़ा हो जाता है। हम यह मानने लगते हैं इस समस्या को भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत किया। गौतम पूछते कि महावीर हमारे हैं, बुद्ध हमारे नहीं। राम हमारे उपास्य हैं, कृष्ण हैं-हे भगवन्! ऐसा कौन-सा कारण है, जो मेरी सर्वज्ञता या वीतरागता या शिव हमारे उपास्य नहीं हैं। की प्राप्ति में बाधक बन रहा है? महावीर ने उत्तर दिया-हे गौतम! अत: यदि हम व्यक्ति के स्थान पर आध्यात्मिक विकास की भूमिका तुम्हारा मेरे प्रति जो रागभाव है, वही तुम्हारी सर्वज्ञता और वीतरागता विशेष को अपना उपास्य बनायें तो सम्भवतः हमारे आग्रह और मतभेद में बाधक है। जब तीर्थंकर महावीर के प्रति रहा हुआ रागभाव भी कम हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में जैनों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही वीतरागता का बाधक हो सकता है तो फिर सामान्य धर्मगुरु और धर्मशास्त्र उदार रहा है। जैन परम्परा में निम्न नमस्कार मन्त्र को परम पवित्र माना के प्रति हमारी रागात्मकता क्यों नहीं हमारे आध्यात्मिक विकास में गया हैबाधक होगी? यद्यपि जैन परम्परा धर्मगुरु और धर्मशास्त्र के प्रति ऐसी नमो अरहताणं। नमो सिद्धाणं। रागात्मकता को प्रशस्त-राग की संज्ञा देती है, किन्तु वह यह मानती नमो आयरियाणं। नमो उवज्झायाणं। है कि यह प्रशस्त-राग भी हमारे बन्धन का कारण है। राग राग है, नमो लोए सव्व साहूणं। फिर चाहे वह महावीर के प्रति क्यों न हो? जैन परम्परा का कहना प्रत्येक जैन के लिए इसका पाठ आवश्यक है, किन्तु इसमें किसी है कि आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त करने के व्यक्ति के नाम का उल्लेख नहीं है। इसमें जिन पाँच पदों की वंदना लिए हमें इस रागात्मकता से भी ऊपर उठना होगा। ___ की जाती है, वे व्यक्तिवाचक न होकर गुणवाचक हैं। अर्हत, सिद्ध,
जैन कर्मसिद्धान्त में मोह को बन्धन का प्रधान कारण माना गया आचार्य, उपाध्याय और साधु व्यक्ति नहीं है, वे आध्यात्मिक और है। यह मोह दो प्रकार का है—(१) दर्शनमोह और (२) चारित्रमोह। नैतिक विकास की विभिन्न भूमिकाओं के सूचक हैं। प्राचीन जैनाचार्यों
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