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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भेद ही धर्मों की अनेकता का कारण है। किन्तु यह अनेकता धार्मिक है किअसहिष्णुता या विरोध का कारण नहीं बन सकती। आचार्य हरिभद्र जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा। ने योगदृष्टिसमुच्चय में धार्मिक साधना की विविधताओं का सुन्दर जो आस्रव अर्थात् बन्धन के कारण हैं, वे ही परिस्रव अर्थात् विश्लेषण प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं
मुक्ति के कारण हो सकते हैं और इसके विपरीत जो मुक्ति के कारण यद्वा तत्तत्रयापेक्षा तत्कालादिनियोगतः।
हैं, वे ही बन्धन के कारण बन सकते हैं। अनेक बार ऐसा होता है ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषापि तत्त्वतः।।।
कि बाह्य रूप में हम जिसे अनैतिक और अधार्मिक कहते हैं, वह अर्थात् प्रत्येक ऋषि अपने देश, काल और परिस्थिति के आधार देश, काल, व्यक्ति और परिस्थितियों के आधार पर नैतिक और धार्मिक पर भिन्न-भिन्न धर्ममार्गों का प्रतिपादन करते हैं। देश और कालगत हो जाता है। धार्मिक जीवन में साधना का बाह्य कलेवर इतना महत्त्वपूर्ण विविधताएँ तथा साधकों की रुचि और स्वभावगत विविधताएँ धार्मिक नहीं होता जितना उसके मूल में रही हुई व्यक्ति की भावनाएँ होती साधनाओं की विविधताओं के आधार हैं। किन्तु इस विविधता को हैं। बाह्य रूप से किसी युवती की परिचर्या करते हुए एक व्यक्ति अपनी धार्मिक असहिष्णुता का कारण नहीं बनने देना चाहिए। जिस प्रकार मनोभूमिका के आधार पर धार्मिक हो सकता है, तो दूसरा अधार्मिक। एक ही नगर को जाने वाले विविध मार्ग परस्पर भिन्न-भिन्न दिशाओं वस्तुत: परिचर्या करते समय परिचर्या की अपेक्षा भी जो अधिक में स्थित होकर भी विरोधी नहीं कहे जाते हैं; एक ही केन्द्र को योजित महत्त्वपूर्ण है, वह उस परिचर्या के मूल में निहित प्रयोजन, प्रेरक या होने वाली परिधि से खींची गयी विविध रेखाएँ चाहें बाह्य रूप से मनोभूमिका होती है। एक व्यक्ति निष्काम भावना से किसी की सेवा विरोधी दिखायी दें, किन्तु यथार्थतः उनमें कोई विरोध नहीं होता है; करता है, तो दूसरा व्यक्ति अपनी वासनाओं अथवा अपने क्षुद्र स्वार्थों उसी प्रकार परस्पर भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले धर्ममार्ग भी वस्तुतः की पूर्ति के लिए किसी की सेवा करता है। बाहर से दोनों सेवाएँ विरोधी नहीं होते। यह एक गणितीय सत्य है कि एक केन्द्र से योजित एक हैं, किन्तु उनमें एक नैतिक और धार्मिक है, तो दूसरी अनैतिक होने वाली परिधि से खींची गयीं अनेक रेखाएँ एक-दूसरे को काटने और अधार्मिक। हम देखते हैं कि अनेकानेक लोग लौकिक एषणाओं की क्षमता नहीं रखती हैं, क्योंकि उन सबका साध्य एक ही होता की पूर्ति के लिए प्रभु-भक्ति और सेवा करते हैं किन्तु उनकी वह सेवा है। वस्तुत: उनमें एक-दूसरे को काटने की शक्ति तभी आती है जब धर्म का कारण न होकर अधर्म का कारण होती है। अत: साधनागत वे अपने केन्द्र का परित्याग कर देती हैं। यही बात धर्म के सम्बन्ध बाह्य विभिन्नताओं को न तो धार्मिकता का सर्वस्व मानना चाहिए और में भी सत्य है। एक ही साध्य की ओर उन्मुख बाहर से परस्पर विरोधी न उन पर इतना अधिक बल दिया जाना चाहिए, जिससे पारस्परिक दिखाई देने वाले अनेक साधना-मार्ग तत्त्वत: परस्पर विरोधी नहीं होते विभेद और भिन्नता की खाई और गहरी हो। वस्तुत: जब तक देश हैं। यदि प्रत्येक धार्मिक साधक अपने अहंकार, राग-द्वेष और तृष्णा और कालगत भिन्नताएँ हैं, जब तक व्यक्ति की रुचि या स्वभावगत की प्रवृत्तियों को समाप्त करने के लिए, अपने काम, क्रोध और लोभ भिन्नताएँ हैं, तब तक साधनागत विभिन्नताएँ स्वाभाविक ही हैं। आचार्य के निराकरण के लिए, अपने अहंकार और अस्मिता के विसर्जन के हरिभद्र अपने ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चय में कहते हैंलिए साधनारत है, तो फिर उसकी साधना-पद्धति चाहे जो हो, वह चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः। दूसरी साधना-पद्धतियों का न तो विरोधी होगा और न असहिष्णु। यस्मादेते महात्मानो भाव्याधि भिषग्वराः।। यदि धार्मिक जीवन में साध्यरूपी एकता के साथ साधनारूपी अनेकता अर्थात् जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी की प्रकृति, ऋतु आदि रहे तो भी वह संघर्ष का कारण नहीं बन सकती। वस्तुत: यहाँ हमें को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग यह विचार करना है कि धर्म और समाज में धार्मिक असहिष्णुता का औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार धर्ममार्ग के उपदेष्टा ऋषिगण भी जन्म क्यों और कैसे होता है?
भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों के लिए अलग-अलग साधना-विधि वस्तुत: जब यह मान लिया जाता है कि हमारी साधना-पद्धति प्रस्तुत करते हैं। देश, काल और रुचिगत वैचित्र्य धार्मिक साधना ही एकमात्र व्यक्ति को अन्तिम साध्य तक पहुँचा सकती है तब धार्मिक पद्धतियों की विभिन्नता का आधार है। वह स्वभाविक है, अत: उसे असहिष्णुता का जन्म होता है। इसके स्थान पर यदि हम यह स्वीकार अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। धर्मक्षेत्र में साधनागत विविधताएँ कर लें कि वे सभी साधना-पद्धतियाँ जो साध्य तक पहुंचा सकती सदैव रही हैं और रहेंगी, किन्तु उन्हें विवाद का आधार नहीं बनाया हैं, सही हैं, तो धार्मिक संघर्षों का क्षेत्र सीमित हो जाता है। देश जाना चाहिए। हमें प्रत्येक साधना-पद्धति की उपयोगिता और और कालगत विविधताएँ तथा व्यक्ति की अपनी प्रवृत्ति और योग्यता अनुपयोगिता का मूल्यांकन उन परिस्थितियों में करना चाहिए जिसमें आदि ऐसे तत्त्व हैं, जिनके कारण साधनागत विविधताओं का होना उनका जन्म होता है। उदाहरण के रूप में, मूर्तिपूजा का विधान और स्वाभाविक है। वस्तुत: जिससे व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास होता मूर्तिपूजा का निषेध दो भिन्न देशगत और कालगत परिस्थितियों की है, वह आचार के बाह्य विधि-निषेध या बाह्य औपचारिकताएँ या देन हैं और उनके पीछे विशिष्ट उद्देश्य रहे हुए हैं। यदि हम उन संदर्भो क्रियाकाण्ड नहीं, मूलत: साधक की भावना या जीवन-दृष्टि है। में उनका मूल्यांकन करते हैं, तो इन दो विरोधी साधना-पद्धतियों में प्राचीनतम जैन आगम आचारांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया भी हमें कोई विरोध नजर नहीं आयेगा। सभी धार्मिक साधना-पद्धतियों
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