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धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म
३५७ अत: धर्म ही एक ऐसा माध्यम है जिसके नाम पर मनुष्यों को एक अपने साथी प्राणियों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझ सके। दूसरे के विरूद्ध जल्दी उभाड़ा जा सकता है। इसीलिए मतान्धता, यदि यह सब उसमें नहीं है तो वह मनुष्य ही नहीं है, तो फिर उसके उन्मादी और स्वार्थी तत्त्वों ने धर्म को सदैव ही अपने हितों की पूर्ति धार्मिक होने का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि कोई पशु धार्मिक या का साधन बनाया है। जो धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए अधार्मिक नहीं होता, मनुष्य ही धार्मिक या अधार्मिक होता है। यदि था, उसी धर्म के नाम पर अपने से विरोधी धर्मवालों को उत्पीड़ित मानवीय शरीर को धारण करने वाला व्यक्ति अपने पशुत्व से ऊपर करने और उस पर अत्याचार करने के प्रयत्न हुए हैं और हो रहे हैं। नहीं उठ पाया है, तो उसके धार्मिक होने का प्रश्न तो बहुत दूर की किन्तु धर्म के नाम पर हिंसा, संघर्ष और वर्ग-विद्वेष की जो भावनाएँ बात है। मानवीयता धार्मिकता की प्रथम सीढ़ी है। उसे पार किये बिना उभाड़ी जा रही हैं, उसका कारण क्या धर्म है? वस्तुतः धर्म नहीं, कोई धर्ममार्ग में प्रवेश नहीं कर सकता। मनुष्य का प्रथम धर्म अपितु धर्म का आवरण डालकर मानव की महत्वाकांक्षा, उसका अहंकार मानवता है। और उसकी क्षुद्र स्वार्थपरता ही यह सब कुछ करवा रही है। यथार्थ वस्तुत: यदि हम जैन धर्म की भाषा में धर्म को वस्तु-स्वभाव में यह धर्म का नकाब डाले हए अधर्म ही है।
माने तो हमें समग्र चेतन सत्ता के मूल स्वभाव को ही धर्म कहना
होगा। भगवतीसूत्र में आत्मा का स्वभाव समता-समभाव कहा गया धर्म के सारतत्त्व का ज्ञान : मतान्यता से मुक्ति का मार्ग है। उसमें गणधर गौतम भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं कि आत्मा
. दुर्भाग्य यह है कि आज जनसामान्य, जिसे धर्म के नाम पर क्या है और आत्मा का साध्य क्या है? प्रत्युत्तर में भगवान् कहते सहज ही उभाड़ा जाता है, धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ है, हैं-आत्मा सामायिक (समत्ववृत्ति) रूप है और उस समत्वभाव को वह धर्म के मूल हार्द को नहीं समझ पाया है। उसकी दृष्टि में कुछ प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है। आचाराङ्गसूत्र भी समभाव कर्मकाण्ड और रीति-रिवाज ही धर्म है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमारे को ही धर्म कहता है। सभी धर्मों का सार समता तथा शान्ति है। तथाकथित धार्मिक नेताओं ने हमें धर्म के मूल हार्द से अनभिज्ञ रखकर, मनुष्य में निहित काम, क्रोध, अहंकार, लोभ और उनके जनक रागइन रीति-रिवाजों और कर्मकाण्डों को ही धर्म कहकर समझाया है। द्वेष और तृष्णा को समाप्त करना ही सभी धार्मिक साधनाओं का मूलभूत वस्तुत: आज आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य धर्म के वास्तविक लक्ष्य रहा है। इस सम्बन्ध में श्री सत्यनारायण जी गोयनका के निम्न स्वरूप को समझे। आज मानव समाज के समक्ष धर्म के उस सारभूत विचार द्रष्टव्य हैं-'क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि न हिन्दू हैं, न बौद्ध, न तत्त्व को प्रस्तुत किये जाने की आवश्यकता है, जो सभी धर्मों में जैन, न पारसी, न मुस्लिम, न ईसाई। वैसे इनसे विमुक्त रहना भी सामान्यतया उपस्थित है और उनकी मूलभूत एकता का सूचक है। न हिन्दू है न बौद्ध; न जैन है न पारसी; न मुस्लिम है न ईसाई। आज धर्म के मूल हार्द और वास्तविक स्वरूप को समझे बिना हमारी विकारों से विमुक्त रहना ही शुद्ध धर्म है। क्या शीलवान, समाधिवान धार्मिकता सुरक्षित नहीं रह सकती है। यदि आज धर्म के नाम पर और प्रज्ञावान होना केवल बौद्धों का ही धर्म है? क्या वीतराग, वीतद्वेष विभाजित होती हुई इस मानवता को पुन: जोड़ना है तो हमें धर्म के और वीतमोह होना जैनों का ही धर्म है? क्या स्थितप्रज्ञ, अनासक्त, उन मूलभूत तत्त्वों को सामने लाना होगा, जिनके आधार पर इन टूटी जीवन-मुक्त होना हिन्दुओं का ही धर्म है? धर्म की इस शुद्धता को हुई कडियों को पुन: जोड़ा जा सके।
समझें और धारण करें। (धर्म के क्षेत्र में) निस्सार छिलकों का अवमूल्यन
हो, उन्मूलन हो; शुद्धसार का मूल्यांकन हो, प्रतिष्ठापन हो।' जब धर्म का मर्म
यह स्थिति आयेगी, धार्मिक सहिष्णुता सहज ही प्रकट होगी। यह सत्य है कि आज विश्व में अनेक धर्म प्रचलित हैं। किन्तु यदि हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो इन विविध धर्मों का मूलभूत साधनागत विविधता : असहिष्णुता का आधार नहीं लक्ष्य है-मनुष्य को एक अच्छे मनुष्य के रूप में विकसित कर उसे तृष्णा, राग-द्वेष और अहंकार अधर्म के बीज हैं। इनसे मानसिक परमात्म तत्त्व की ओर ले जाना। जब तक मनुष्य, मनुष्य नहीं बनता और सामाजिक समभाव भंग होता है। अतः इनके निराकरण को सभी
और उसकी यह मनुष्यता देवत्व की ओर अग्रसर नहीं होती, तब धार्मिक साधना-पद्धतियाँ अपना लक्ष्य बनाती हैं। किन्तु मनुष्य का तक वह धार्मिक नहीं कहा जा सकता। यदि मनुष्य में मानवीय गुणों अहंकार, मनुष्य का ममत्व कैसे समाप्त हो, उसकी तृष्णा या आसक्ति का विकास ही नहीं हुआ है तो वह किसी भी स्थिति में धार्मिक का उच्छेद कैसे हो? इस साधनात्मक पक्ष को लेकर ही विचारभेद नहीं है। 'अमन' ने ठीक ही कहा है
प्रारम्भ होता है। कोई परम सत्ता या ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण में इन्सानियत से जिसने बशर को गिरा दिया।
ही आसक्ति, ममत्व और अहंकार के विसर्जन का उपाय देखता है, या रब! वह बन्दगी हुई या अबतरी हुई।।
तो कोई उसके लिए जगत् की दुःखमयता, पदार्थों की क्षणिकता और मानवता के बिना धार्मिकता असम्भव है। मानवता धार्मिकता अनात्मता का उपदेश देता है, तो कोई उस आसक्ति या रागभाव की का प्रथम चरण है। मानवता का अर्थ है-मनुष्य में विवेक विकसित विमुक्ति के लिए आत्म और अनात्म अर्थात् स्व-पर के विवेक को हो, वह अपने विचारों, भावनाओं और हितों पर संयम रख सके तथा धार्मिक साधना का प्रमुख अंग मानता है। वस्तुत: यह साधनात्मक
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