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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
के लिये संचयन की इस वृत्ति से परिग्रह का विचार विकसित हुआ के पास विपुल सम्पत्ति तथा अर्थोपार्जन के प्रमुख साधन विपुल मात्रा है। मनुष्य की यह संग्रह वृत्ति कृषि-उत्पादन के संचयन और स्वामित्व में थे तो दूसरी ओर कुछ लोग अभाव और गरीबी का जीवन जी तक ही सीमित नहीं रही अपितु कृषि-भूमि और कृषि में सहयोगी रहे थे। महावीर ने समाज में उपस्थित इस आर्थिक वैषम्य के कारण पशुओं के स्वामित्व का प्रश्न भी सामने आया। हो सकता है कि की खोज की और मानव की तृष्णा को इसका मूल कारण माना। कुछ समय तक मानव ने समूह के सामूहिक स्वामित्व की धारणा के आधार पर कार्य चलाया हो, किन्तु संचयन और स्वामित्व की वृत्ति संग्रहवृत्ति या परिग्रह का मूल-कारण 'तृष्णा' के परिणामस्वरूप स्वार्थ का उद्भव स्वाभाविक ही था। मानव की इस भगवान् महावीर ने 'उत्तराध्ययन सूत्र' में आर्थिक वैषम्य तथा स्वामित्व की भूख और स्वार्थ-लिप्सा ने सामन्तवाद को जन्म दिया। तज्जनित सभी दुःखों का कारण तृष्णा की वृत्ति को माना। वे कहते राज्य एवं उनके स्वामी राजा, महाराजा और सामन्त अस्तित्व में आये हैं कि जिसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है, उसके दुःख भी समाप्त
और परिणाम स्वरूप मानव जाति स्वामी और दास वर्ग में विभाजित हो जाते हैं। वस्तुत: तृष्णा का ही दूसरा नाम लोभ है और इसी हो गई। मानव के शोषण-पीड़न और अत्याचार के एक नये युग का लोभ से संग्रहवृत्ति का उदय होता है। 'दशवैकालिकसूत्र' में लोभ को सूत्रपात हुआ। भगवान् ऋषभ के द्वारा प्रवर्तित वही कृषि-क्रांति जो समस्त सद्गों का विनाशक माना गया है। जैन विचारधारा के अनुसार मानव जाति की सुख-सुविधा और शांति का संदेश लेकर आयी थी, तृष्णा एक ऐसी दुष्पूर खाई है जिसका कभी अन्त नहीं आता। भगवान महावीर के युग तक आते-आते स्वार्थलिप्सा से युक्त हाथों 'उत्तराध्ययनसूत्र' में इसी बात को स्पष्ट करते हुए भगवान् महावीर में पहुँचकर न केवल मानव जाति में दास और स्वामी का, तथा शोषित ने कहा है कि यदि सोने और चाँदी के कैलाश के समान असंख्य
और शोषक का वर्ग भेद खड़ा कर रही थी, अपितु मानव समाज के पर्वत भी खड़े कर दिये जाए तो भी यह तृष्णा शान्त नहीं हो सकती, एक बहुत बड़े भाग के संताप और पीड़ा का कारण भी बन गई थी। क्योकि धन चाहे कितना भी हो वह सीमित है और तृष्णा अनन्त
(असीम) है अत: सीमित साधनों से असीम तृष्णा की पूर्ति नहीं की महावीर के युग की सामाजिक और आर्थिक स्थिति
जा सकती। भगवान महावीर के युग में तत्कालीन समाज-व्यवस्था कैसी थी? वस्तुतः तृष्णा के कारण संग्रहवृत्ति का उदय होता है और यह उसमें आर्थिक वैषम्य-जन्य द्वेष, ईर्ष्या, शोषण और पीड़न आदि संग्रहवृत्ति आसक्ति के रूप में बदल जाती है और यही आसक्ति परिग्रह विद्यमान थे या नहीं? यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न कई विचारकों के सम्मुख का मूल है। 'दशवैकालिकसूत्र के अनुसार आसक्ति ही वास्तविक परिग्रह है। तत्कालीन समाज-व्यवस्था का जो चित्र जैन आगमों में विद्यमान है। भारतीय ऋषियों के द्वारा अनुभूत यह सत्य आज भी उतना ही है, उससे यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि उस युग में भी आर्थिक- यथार्थ है, जितना कि उस युग में था जबकि इसका कथन किया गया विषमता और तज्जन्य द्वेष, ईर्ष्या आदि सब कुछ थे। तत्कालीन होगा। न केवल जैन दर्शन में अपितु बौद्ध और वैदिक दर्शनों में समाज-व्यवस्था का जो शब्द-चित्र लगभग २५०० वर्ष के पश्चात् आज भी तृष्णा को समस्त सामाजिक वैषम्य और वैयक्तिक दु:खों का मूल भी उपलब्ध है, उससे यह कहा जा सकता है कि उस समय समाज कारण माना गया है। क्योकि तृष्णा से संग्रहवृत्ति उत्पन्न होती हैके सदस्यों में संग्रहवृत्ति भी थी। इस कारण जहाँ तक एक व्यक्ति संग्रह शोषण को जन्म देता है और शोषण से अन्याय का चक्र चलता बहुत अधिक धनी था वहाँ दूसरा व्यक्ति अत्यधिक अभावग्रस्त था। है। भगवान् बुद्ध का भी कहना है कि यह तृष्णा दुष्पूर है और जब एक ओर शालिभद्र जैसे श्रेष्ठि थे तो दूसरी ओर पुणिया जैसे निर्धन तक तृष्णा नष्ट नहीं होती तब तक दु:ख भी नष्ट नहीं होता। 'धम्मपद' श्रावक। बड़े-बड़े सामन्त और सेठ अपने यहाँ नौकर-चाकर रखते में वे कहते हैं कि जिसे यह विषैली नीच तृष्णा घेर लेती है उसके थे, केवल यही नहीं अपितु दास-प्रथा तक विद्यमान थी। डॉ० दुःख उसी प्रकार बढ़ते हैं जिस प्रकार खेतों में वीरण घास बढ़ती जगदीशचन्द्र ने अपनी पुस्तक “जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज" है। भगवान् बुद्ध ने इस तृष्णा को तीन प्रकार का माना है- (१) में 'ऋणदास', दुर्भिक्षदास आदि का उल्लेख करते हुए यह भी बताया भव-तृष्णा (२) विभव-तृष्णा और (३) काम-तृष्णा। भव-तृष्णा है कि इस प्रकार के दासों की मुक्ति किस प्रकार हुआ करती थी? अस्तित्व या बने रहने की है, यह राग-स्थानीय है। विभव तृष्णा समाप्त तात्पर्य यह है कि तत्कालीन समाज-व्यवस्था में अर्थ के सद्भाव तथा हो जाने या नष्ट हो जाने की तृष्णा है, यह द्वेषस्थानीय है। कामतृष्णा अभाव (Haves and Haves not) की समस्या थी। निश्चित रूप में भोगों की उपलब्धि की तृष्णा है और यही परिग्रह का मूल है। गीता इस कारण विषमता, द्वेष, ईर्ष्या सब हुआ करती होगी। यदि हम जैन में भी आसक्ति को ही जागतिक दु:खों का मूल कारण माना गया है। आगम उपासकदशांग' का अवलोकन करें तो हमें यह स्पष्ट हो जायेगा 'गीता' में यह स्पष्ट किया गया है कि आसक्ति का तत्त्व ही व्यक्ति कि कुछ लोगों के पास कितनी प्रचुर मात्रा में सम्पत्ति थी। केवल यही को संग्रह और भोगवासना के लिये प्रेरित करता है। 'गीता' यह भी नहीं, अपितु धन के उत्पादन के मुख्य साधन (भूमि, श्रम, पूंजी एवं स्पष्ट रूप से कहती है कि आसक्ति में बंधा हुआ व्यक्ति काम-भोगों प्रबन्ध) पर उनका अधिकार (चाहे एकाधिकार न हो) था। संक्षेप में की पूर्ति के लिये अन्यायपूर्वक संग्रह करता है। इस प्रकार सम्पूर्ण यह कहा जा सकता है कि उस युग में एक ओर समाज के कुछ सदस्यों भारतीय चिन्तन संग्रहवृत्ति के मूल कारण के रूप में तृष्णा को स्वीकार
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