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जैन धर्म के मूलतत्त्व
जैन धर्म का उद्भव और विकास
जिन के द्वारा प्रवर्तित धर्म जैन धर्म कहा जाता है और जो अपनी इन्द्रियों, वासनाओं और इच्छाओं पर विजय पा लेता है, वह जिन है। जैन धर्म का एक प्राचीन नाम निर्ग्रन्थ धर्म भी है। अशोक आदि के अति प्राचीन शिलालेखों में इसका इसी नाम से उल्लेख मिलता है। निर्मन्य शब्द का अर्थ है— जिसके हृदय में छल-कपट, रागद्वेष, अहंकार, लोभ आदि की कोई गाँठ नहीं है और जो आन्तरिक और बाह्य परिग्रह से मुक्त है, वही निर्मन्य है। जैन धर्म को आर्हत् धर्म भी कहते हैं। अर्हत् शब्द का अर्थ है- जिसने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त कर ली है और जो अपनी आध्यात्मिक पवित्रता के कारण जगत् का वन्दनीय बन गया, वह अर्हत् है और उसका उपासक आर्हत्। जहाँ वैदिक धर्म में यज्ञ-याग और कर्मकाण्ड पर विशेष बल दिया गया वही श्रमणधर्म, विशेष रूप से जैन धर्म में तप, त्याग व वैराग्य पर अधिक बल दिया गया। अतः वैदिक धर्म को प्रवृत्तिमूलक और श्रमण धर्म को निवृत्तिमूलक धर्म भी कहते हैं। निवृत्तिमूलक धर्म का मुख्य प्रयोजन होता है— सांसारिक दुःखों से मुक्ति हेतु संन्यास के मार्ग का अनुसरण करना। इस प्रकार जैन धर्म संन्यास प्रधान या वैराग्य-प्रधान धर्म है।
मानव व्यक्तित्व में दो तत्त्व पाये जाते हैं—१. वासना और २. विवेक । मनुष्य में वासनाओं की उपस्थिति उसे दैहिक आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की पूर्ति की ओर अर्थात् भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि की ओर प्रेरित करती है। जबकि विवेक यह बताता है कि इच्छाएँ अनन्त हैं, उनकी पूर्ण सन्तुष्टि कभी भी सम्भव नहीं है, इसलिए शान्ति के इच्छुक मनुष्य को इच्छाओं की सन्तुष्टि की दिशा में न भागकर इच्छाओं का संयम करना चाहिए। इच्छाओं एवं वासनाओं के संयम की यही बात संन्यासमूलक जैन धर्म की उत्पत्ति का आधार है।
यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उठता है कि जैन धर्म का प्रारम्भ कब से हुआ। इसके प्रथम प्रवक्ता कौन है? जैन परम्परा के अनुसार इस कालचक्र में जैन धर्म की स्थापना भगवान् ऋषभदेव ने की। ऋषभदेव के उल्लेख ऋग्वेद एवं पुराण साहित्य में भी हैं। अत: जैन धर्म संसार का एक अति प्राचीन धर्म है। जैन परम्परा के अनुसार इस कालचक्र में संन्यासमूलक धर्म का प्रथम उपदेश भगवान् ऋषभदेव ने दिया था। श्रीमद्भागवत् में भी ऋषभदेव को संन्यास धर्म अर्थात् परमहंस मार्ग का प्रर्वतक कहा गया है। ऋषभदेव से पूर्व मानव समाज पूर्णतः प्रकृति पर आश्रित था। काल क्रम में जब मनुष्यों की जनसंख्या में वृद्धि और प्राकृतिक संसाधनों में कमी होने लगी तो मनुष्यों में संचय वृत्ति का विकास हुआ तथा स्त्रियों, पशुओं और खाद्य पदार्थों को लेकर एक दूसरे से छीना-झपटी होने लगी। ऐसी स्थिति में ऋषभदेव ने सर्वप्रथम समाज-व्यवस्था एवं शासन व्यवस्था की नींव डाली तथा कृषि एवं
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शिल्प के द्वारा अपने ही श्रम से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना सिखाया। किन्तु मनुष्य की बढ़ती हुई भोगाकांक्षा एवं संचय वृत्ति के कारण वैयक्तिक जीवन एवं सामाजिक जीवन में जो अशांति एवं विषमता आयी, उसका समाधान नहीं हो सका। भगवान् ऋषभदेव ने यह अनुभव किया कि भोग सामग्री की प्रचुरता भी मनुष्य की आकांक्षा व तृष्णा को समाप्त करने में समर्थ नहीं है। यदि वैयक्तिक एवं समाजिक जीवन में शांति एवं समता स्थापित करनी है, तो मनुष्य को त्याग एवं संयम के मार्ग की शिक्षा देनी होगी। उन्होंने स्वयं परिवार एवं राज्य का त्याग करके वैराग्य का मार्ग अपनाया और लोगों को त्याग एवं वैराग्य की शिक्षा देना प्रारम्भ किया। बस यही जैन धर्म की उत्पत्ति की कहानी है।
आगे चलकर ऋषभदेव की परम्परा में क्रमशः अन्य २३ तीर्थंकर हुए। उनमें बाईसवें अरिष्टनेमि, तेईसवें पार्श्वनाथ एवं चौबीसवें भगवान् महावीर हुए। बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि भगवान् कृष्ण के चचेरे भाई थे और उन्होंने अहिंसा पर विशेष रूप से बल दिया। अपने विवाह के अवसर पर वैवाहिक भोज हेतु एकत्रित पशु-पक्षियों की चीत्कार सुनकर उन्होंने न केवल उन्हें मुक्त करवाया, अपितु वैवाहिक जीवन से मुख मोड़कर तप साधना का मार्ग अपनाया और ज्ञान प्राप्त किया तथा अहिंसा और संयम का उपदेश दिया। उन्होंने कहाधम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति जे धम्मे समा मनो
अर्थात् अहिंसा, संयम व तप रूपी धर्म ही सर्वोत्कृष्ट मंगल है। जिसका मन सदैव इस धर्म में लगा रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
तेईसवें तीर्थंकार भगवान् पार्श्वनाथ वाराणसी में उत्पन्न हुए थे, इन्होंने तप साधना में जो आत्मपीड़न एवं परपीड़न की प्रवृत्ति विकसित हो रही थी, उसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि ऐसा तप जिससे दूसरे प्राणियों को कष्ट होता हो और अपने तपस्वी होने के अहंकार की पुष्टि हो तथा जो लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के लिये किया जाता हो, उचित नहीं है। तप का प्रयोजन तो आत्मशुद्धि होना चाहिए. अतः विवेकपूर्ण अहिंसक तप ही श्रेष्ठ है।
भगवान् पार्श्वनाथ के बाद भगवान महावीर स्वामी हुए। महावीर ने इन्द्रिय संयम के साथ-साथ ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की साधना पर अधिक बल दिया। उन्होंने पार्श्व के चार्तुयाम धर्म में ब्रह्मचर्य को जोड़कर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना का उपदेश दिया। महावीर स्वामी का विशेष बल आचारशुद्धि और व्यवहारशुद्धि पर था। उन्होंने कहा कि आचारो प्रथमोधर्मः अर्थात् आचार ही प्रथम धर्म है। व्यावहारिक जीवन हेतु उन्होंने अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह पर विशेष बल दिया।
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