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अध्यात्म और विज्ञान
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मानव समाज की स्थिति भी उसी वृद्धा के समान है। हम शान्ति की आज विज्ञान ने मनुष्य को सुख-सुविधा और समृद्धि तो प्रदान खोज वहाँ कर रहे हैं, जहाँ वह होती ही नहीं। शान्ति आत्मा में है, कर दी है, फिर भी मनुष्य भय और तनाव की स्थिति में जी रहा अन्दर है। विज्ञान के सहारे आज शान्ति की खोज के प्रयत्न उस है। उसे आन्तरिक शान्ति उपलब्ध नहीं है उसकी समाधि भंग हो चुकी बुढ़िया के प्रयत्नों के समान निरर्थक ही होंगे। विज्ञान, साधन दे सकता है। यदि विज्ञान के माध्यम से कोई शान्ति आ सकती है तो वह केवल है, शक्ति दे सकता है किन्तु लक्ष्य का निर्धारण तो हमें ही करना श्मशान की शान्ति होगी। बाहरी साधनों से न कभी आन्तरिक शान्ति होगा।
मिली है, न उसका मिलना सम्भव ही है। इस प्रसंग में उपनिषदों आज विज्ञान के कारण मानव के पूर्वस्थापित जीवन मूल्य समाप्त का एक प्रसंग याद आ रहा है-नारद जीवन भर वेद-वेदांग का अध्ययन हो गये हैं। आज श्रद्धा का स्थान तर्क ने ले लिया है। आज मनुष्य करते रहे। उन्होंने अनेक विद्यायें (भौतिक विद्यायें) प्राप्त कर ली, किन्तु पारलौकिक उपलब्धियों के स्थान पर इहलौकिक उपलब्धियों को चाहता उनके मन को कहीं सन्तोष नहीं मिला। वे सनत्कुमार के पास आये है। आज के तर्कप्रधान मनुष्य को सुख और शान्ति के नाम पर बहलाया और कहने लगे मैंने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया। मैं शास्त्रविद् नहीं जा सकता, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज हम अध्यात्म के तो हूँ किन्तु आत्मविद् नहीं। आज के वैज्ञानिक भी नारद की भाँति अभाव में नये जीवन मूल्यों का सृजन नहीं कर पा रहे हैं। आज विज्ञान ही हैं। वे शास्त्रविद् तो हैं, किन्तु आत्मविद् नहीं। आत्मविद् हुए बिना का युग है। आज उस धर्म को, जो पारलौकिक जीवन की सुख-सुविधाओं शांति को नहीं पाया जा सकता। यद्यपि मेरे कहने का तात्पर्य यह के नाम पर मानवीय भावनाओं का शोषण कर रहा है, जानना होगा। नहीं है कि हम विज्ञान और उसकी उपलब्धियों को तिलांजलि दे दें। आज तथाकथित वे धर्म परम्परायें जो मनुष्य को भविष्य के सुनहरे वैज्ञानिक उपलब्धियों का परित्याग न तो सम्भव है, न औचित्यपूर्ण सपने दिखाकर फुसलाया करती थीं, अब तर्क की पैनी छेनी के आगे है। किन्तु अध्यात्म या मानवीय विवेक को इनका अनुशासक होना अपने को नहीं बचा सकतीं। अब स्वर्ग में जाने के लिए नहीं जीना चाहिए। अध्यात्म ही विज्ञान का अनुशासक हो तभी एक समग्रता है अपितु स्वर्ग को धरती पर लाने के लिए जीना होगा। विज्ञान ने या पूर्णता आयेगी और मनुष्य एक साथ समृद्धि और शान्ति को पा हमें वह शक्ति दे दी है, जिससे स्वर्ग को धरती पर उतारा जा सकता सकेगा। ईशावास्योपनिषद् में जिसे हम पदार्थ ज्ञान या विज्ञान कहते है। अब यदि हम इस शक्ति का उपयोग धरती पर स्वर्ग उतारने के हैं उसे अविद्या कहा गया है और जिसे हम अध्यात्म कहते हैं विद्या स्थान पर, धरती को नरक बनाने में करेंगे तो इसकी जवाबदेही हम कहा गया है। उपनिषद्कार दोनों के सम्बन्ध को उचित बताते हुए पर ही होगी। आज वैज्ञानिक शक्तियों का उपयोग इस दृष्टि से करना कहता है- जो पदार्थ विज्ञान या अविद्या की उपासना करता है वह है कि वे मानव-कल्याण में सहभागी बनकर इस धरती को ही स्वर्ग अन्धकार में, तमस में प्रवेश करता है, क्योंकि विज्ञान या पदार्थ विज्ञान बना सकें। विनोबा जी ने सत्य ही कहा है- आज विज्ञान का तो अन्धा है। किन्तु साथ ही वह यह भी चेतावनी देता है कि जो केवल विकास हुआ किन्तु वैज्ञानिक उत्पन्न ही नहीं हुआ क्योंकि वैज्ञानिक विद्या में रत हैं, वे उससे अधिक अन्धकार में चले जाते हैं( अन्धं वह है जो निरपेक्ष होता है। आज का वैज्ञानिक राजनीतिज्ञों और तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां पूँजीपतियों के इशारे पर चलने वाला व्यक्ति है। वह पैसे से खरीदा रताः')। वस्तुत: वह जो अविद्या और विद्या दोनों को एक साथ उपासना जा सकता है। यह तो वैज्ञानिक की गुलामी है। ऐसे लोग अवैज्ञानिक करता है वह अविद्या द्वारा मृत्यु को पार करता है अर्थात् वह सांसारिक हैं यदि वैज्ञानिक (Scientist) वैज्ञानिक (Scientific) नहीं बना तो विज्ञान कष्टों से मुक्ति पाता है और विद्या द्वारा अमृत प्राप्त करता है। विद्या मनुष्य के लिए ही घातक सिद्ध होगा। आज विज्ञान का उपयोग कैसे चाविद्यां च यस्तवेदोमयं सह। अविद्यया मृत्यु ती विद्ययामृतमश्नुते।। किया जाय इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं अध्यात्म के पास है। वस्तुतः यह अमृत आत्म-शान्ति या आत्मतोष ही है। अत: जब विज्ञान विनोबा जी लिखते हैं कि आज युग की माँग से विज्ञान की जितनी और अध्यात्म का समन्वय होगा तभी मानवता का कल्याण होगा। ही शक्ति बढ़ेगी। आत्मज्ञान को उतनी ही शक्ति बढ़ानी होगी। आज विज्ञान जीवन के कष्टों को समाप्त कर देगा और अध्यात्म आन्तरिक अमेरिका इसलिए दुःखी है कि वहां विज्ञान तो है, पर अध्यात्म है शान्ति को प्रदान करेगा। आचारांगसूत्र में महावीर ने अध्यात्म के लिए नहीं, अत: सुख तो है, शान्ति नहीं। इसके विपरीत भारत में आध्यात्मिक 'अज्झत्थ' शब्द का प्रयोग किया है और यह बताया है कि इसी के विकास के कारण मानसिक शान्ति तो है, किन्तु समृद्धि नहीं। आज द्वारा आत्म-विशुद्धि को प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुत: अध्यात्म जहाँ समृद्धि है वहाँ शान्ति नहीं और जहाँ शान्ति है वहाँ समृद्धि नहीं। कुछ नहीं है, वह आत्म-उपलब्धि या आत्म-विशुद्धि की ही एक प्रक्रिया इसका समाधान आध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में निहित है। अध्यात्म है; उसका प्रारम्भ आत्मज्ञान से है और उसकी परिनिष्पत्ति आध्यात्मिक शान्ति देगा तो विज्ञान समृद्धि। जब समृद्धि और शान्ति दोनों ही एक मूल्यों के प्रति अटूट निष्ठा में है। वस्तुत: आज जितनी मात्रा में पदार्थ साथ उपस्थित होंगी, मानवता अपने विकास के परम शिखर पर होगा। विज्ञान विकसित हुआ है उतनी ही मात्रा में आत्मज्ञान को विकसित मानव स्वयं अतिमानव के रूप में विकसित हो जायगा। किन्तु इसके होना चाहिए। विज्ञान की दौड़ में अध्यात्म पीछे रह गया है। पदार्थ लिए प्रयत्न करना होगा। बिना अडिग आस्था और सतत पुरुषार्थ के को जानने के प्रयत्नों में हम अपने को भुला बैठे हैं। मेरी दृष्टि में यह सम्भव नहीं।
आत्मज्ञान कोई अमूर्त, तात्त्विक आत्मा की खोज नहीं है, बल्कि अपने
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