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धर्म का मर्म : जैन दृष्टि
धर्म शब्द जिसे अंग्रेजी में Religion (रिलीजन) कहा जाता है, किसी कवि ने कहा हैउसकी व्युत्पत्ति हमें यह बताती है कि धर्म एक योजक तत्त्व है, वह
न हिन्दू बुरा है न मुसलमां बुरा है। जोड़ता है। रिलीजन शब्द री+लीजेर से बना है। जिसका अर्थ होता
बुरा वह है जिसका दिल बुरा है ।। है- पुन: जोड़ने वाला। जबकि सम्प्रदाय या School शब्द विभाजन सम्प्रदाय वह रंगीन चश्मा है जो सबको अपने ही रङ्ग में देखना का सूचक है। इस प्रकार जहाँ धर्म का कार्य जोड़ना है, वहाँ सम्प्रदाय चाहता है और जो भी उसे अपने से भिन्न रङ्ग में दिखायी देता है का कार्य विभाजित करना है। यदि हम इस आधार पर ही कोई निष्कर्ष उसे वह गलत मान लेता है। जबकि धर्म खुली आँखों से उस सारभूत निकालें तो हमें कहना होगा कि साम्प्रदायिकता में धर्म नहीं (रहा हुआ) तत्त्व को देखता है, जो सभी के मूल में समान रूप से समाया हुआ है। धर्म में रहकर तो सम्प्रदाय में रहा जा सकता है, किन्तु सम्प्रदाय है। इसीलिए धार्मिक होकर तो सम्प्रदाय में हुआ जा सकता है, किन्तु में रहकर कोई धर्म में नहीं रह सकता है। यदि इसे और अधिक स्पष्ट सम्प्रदाय में होकर कोई व्यक्ति धर्म में नहीं हो सकता। सम्प्रदाय धर्म करें तो इसका तात्पर्य होगा कि यदि व्यक्ति धार्मिक है और वह किसी साधना की एक विशिष्ट प्रक्रिया को अपनाने वाले लोगों का एक समूह सम्प्रदाय से जुड़ा है तो वह बुरा नहीं, किन्तु यदि व्यक्ति सम्प्रदाय है, किन्तु जब यही लोग धर्म के मूल उत्स को छोड़कर मात्र बाह्य में ही जीता है और धर्म में नहीं, तो वह निश्चय ही समाज के लिए क्रियाकाण्डों को ही सब कुछ समझ लेते हैं तो वे धार्मिक न रहकर एक चिन्ता का विषय है। आज स्थिति यह है कि हम सब सम्प्रदायों साम्प्रदायिक बन जाते हैं और यही साम्प्रदायिकता बुरी है। पूर्व में में जीते हैं, धर्म में नहीं। इसीलिए आज साम्प्रदायिकता मानव मात्र जो यह कहा गया है कि सम्प्रदायों में धर्म नहीं, उसका तात्पर्य यही के लिए खतरा बन रही है।
है कि साम्प्रदायिक आग्रहों के साथ कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म स्वभाव है, वह आन्तरिक है। सम्प्रदाय का सम्बन्ध आचार धर्म को यदि हम केन्द्र-बिन्दु मानें तो सम्प्रदाय व्यक्ति रूपी परिधि-बिन्दु की बाह्य रुढ़ियों तक सीमित है इसलिए वह बाहरी है। सम्प्रदाय यदि को केन्द्र से जोड़ने वाली त्रिज्या रेखा के समान है। एक केन्द्र-बिन्दु धर्म से रहित है तो वह ठीक वैसा ही है जैसा आत्मा से रहित शरीर। से परिधि-बिन्दुओं को जोड़ने वाली अनेक रेखायें खींची जा सकती सम्प्रदाय धर्म का शरीर है और शरीर का होना बुरा भी नहीं, किन्तु हैं। यदि वे सभी रेखायें परिधि-बिन्दु को केन्द्र से जोड़ती हैं तब तो जिस प्रकार शरीर में से आत्मा के निकल जाने के बाद वह शव हो वे एक-दूसरे को नहीं काटती अपितु एक-दूसरे से मिलती हैं किन्तु जाता है और परिवेश में सड़ांध व दुर्गन्ध फैलाता है उसी प्रकार धर्म कोई भी रेखा जब केन्द्र का परित्याग कर चलती है तो वह दूसरे से रहित सम्प्रदाय भी समाज में घृणा और अराजकता उत्पन्न करते को काटने लगती है, यही स्थिति सम्प्रदाय की है। सम्प्रदाय जब तक हैं, सामाजिक जीवन को गलित व सड़ांधयुक्त बनाते हैं। शायद यहाँ धर्म की ओर उन्मुख है तब तक वे एक-दूसरे के विरोध में खड़े नहीं पूछा जा सकता है कि धर्म और सम्प्रदाय में अन्तर का आधार क्या होते, किन्तु जब सम्प्रदाय धर्म से विमुख हो जाते हैं तो वे एक दूसरे है? वस्तुत: धर्म आस्था/निष्ठा के साथ मानवीय सद्गुणों को जीवन को काटने लगते हैं। यदि विभिन्न सम्प्रदाय परस्पर सौजन्य एवं सहिष्णुता में जीने के प्रयास से भी जुड़ा है, जबकि सम्प्रदाय केवल कुछ रुढ़ के साथ जीवित हैं तो वे वस्तुतः धर्म ही हैं, क्योंकि उनके मूल में क्रियाओं को ही पकड़कर चलता है। नैतिक सद्गुण कालिक सत्य धार्मिकता का उत्स समाया हुआ है, किन्तु जब वे सम्प्रदाय एक-दूसरे हैं, वे सदैव शुभ हैं। जबकि साम्प्रदायिक रुढ़ियों का मूल्य युग विशेष के विरोध में खड़े होते हैं तो वे 'सम्प्रदाय' होते हैं, 'धर्म' नहीं; और
और समाज विशेष में ही होता है अत: वे सापेक्ष हैं। जब इन सापेक्षिक ऐसे धर्मरहित सम्प्रदाय ही सामाजिक जीवन में असद्भाव और वैमनस्य सत्यों को ही एक सार्वभौम सत्य मान लिया जाता है तो इसी से को जन्म देते हैं। सम्प्रदायवाद का जन्म होता है। यह सम्प्रदायवाद वैमनस्य और घृणा धर्म के दो पक्ष होते हैं- एक उसका शाश्वत और सार्वभौम के बीज बोता है। अतः कहा जा सकता है कि जहाँ धर्म आपस में पक्ष होता है तथा दूसरा दैशिक और कालिक पक्ष। धर्म का शाश्वत प्रेम करना सिखाता है वहीं सम्प्रदाय आपस में घृणा के बीज बोता और सार्वभौम पक्ष उसका सारतत्त्व कहा जा सकता है, जबकि दैशिक है। यदि हम धर्मों के मूल सारतत्त्व को देखें तो उनमें कोई बहुत और कालिक पक्ष उसका बाह्यरूप कहा जा सकता है, जो कि समय-समय बड़ा अन्तर नजर नहीं आता, क्योंकि सभी धर्मों की मूलभूत शिक्षाएँ पर परिवर्तित होता रहता है। धार्मिक असहिष्णुता का जन्म तब होता समान ही हैं। न केवल मूलभूत शिक्षायें ही समान हैं अपितु सभी है जब हम धर्म के इस रुढ़िगत बाह्य रूप को ही उसका सर्वस्व मान का व्यावहारिक लक्षण भी समान है। वे मनुष्य को एक ऐसी जीवन लेते हैं और धर्म के मूल उत्स को भुला देते हैं। मनुष्य ने धर्म के शैली प्रदान करते हैं जिसमें व्यक्ति और समाज दोनों ही शान्ति व सारतत्त्व के आचरण पर बल न देकर रुढ़ियों और कर्मकाण्डों को सुख का अनुभव कर सकें।
ही धर्म का सर्वस्व मान लिया। परिणामतः धर्मों की मूलभूत एकता
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