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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ तो उसके परिणामस्वरूप कर्म का बन्ध होता है या कर्म-संस्कार बनते गयी है। निर्जरा का अर्थ है कर्म-मल को अलग कर देना या झाड़. हैं। प्रत्येक कर्म-संस्कार कालक्रम में अपना विपाक या फल देता है देना। आत्मा पर लगे कर्म-मल को अलग करने का प्रयत्न ही निर्जरा
और इस प्रकार कर्म और विपाक की परम्परा चलती रहती है। इस है। जिस प्रकार कमरे की सफाई के लिए यह आवश्यक है कि पहले तथ्य को हम ऐसे भी समझा सकते हैं कि जब व्यक्ति द्वेष आदि के तो हम कमरे की खिड़कियाँ बन्द कर दें, ताकि बाहर से धूल न वशीभूत होकर क्रोध करता है तो उसमें क्रोध के संस्कार बनते हैं। आये, किन्तु पूर्व की उपस्थित धूल या मल की सफाई के लिए कमरे समय-समय पर क्रोध के इन संस्कारों की अभिव्यक्ति होने से क्रोध को झाड़ना भी आवश्यक होता है, उसी प्रकार आत्मा में जो गंदगी उसकी जीवन-शैली का ही अंग बन जाता है और यही उसका है उसे दूर करने के लिए निर्जरा आवश्यक है। जैन धर्म के अनुसार बन्धन है।
निर्जरा के द्वारा ही आत्मा के पूर्व संचित कर्म-मल का शोधन सम्भव जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक आत्मा में जो अनन्त ज्ञान, अनन्त है। निर्जरा का दूसरा नाम 'तप-साधना' है। कहा गया है कि तप के दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति रही हुई है, वह इन कर्म-संस्कारों द्वारा आत्मा करोड़ों भवों के पूर्व संचित कर्मों को नष्ट कर देता है। के कारण कुंठित हो जाती है। आत्मिक शक्ति का कुंठित होना ही जिस प्रकार शुद्ध घी को प्राप्त करने के लिए हमें मक्खन को किसी बन्धन है। कर्म का यह बन्धन आठ प्रकार का माना गया है- १. बर्तन में रखकर तपाना होता है, उसी प्रकार आत्मा की शुद्धि के लिये जो कर्म आत्मा की ज्ञानात्मक शक्ति को कुंठित करते हैं, वे ज्ञानावरण उसे भी शरीर रूपी भोजन के द्वारा तपाना होता है। जैन धर्म में तपस्या कहलाते हैं, २. जिनके द्वारा आत्मा की अनुभूति सामर्थ्य सीमित होती का मतलब शरीर को कष्ट देना नहीं अपितु शरीर के प्रति रागात्मकता है, उसे दर्शनावरण कहते हैं, ३. जिसके द्वारा सुख-दुःख की अनुभूति ___ या ममत्वबुद्धि को दूर करना है। इसीलिए आत्मा की देहासक्ति को होती है, वे वेदनीय कर्म हैं, ४. जिन कर्म-संस्कारों के कारण व्यक्ति तोड़ने का जो प्रयत्न है, वही तपस्या है। यह सत्य है कि सभी दुराचरणों का दृष्टिकोण एवं चारित्र दूषित हो उसे मोहनीय-कर्म कहा गया है। का मूल कारण व्यक्ति की ममता या आसक्ति है, इस आसक्ति में भी ५. जो कर्म हमारे व्यक्तित्व या चैतसिक एवं शारीरिक संरचना के देहासक्ति सबसे घनीभूत होती है। इसे समाप्त करने के लिए ही जैन कारण होते हैं, उन्हें नामकर्म कहते हैं, ६. जिन कर्मों के कारण व्यक्ति धर्म में अनशन आदि बाह्य तपों और स्वाध्याय आदि आन्तरिक तपों को अनुकूल व प्रतिकूल परिवेश उपलब्ध होता है, वह गोत्रकर्म है, का विवेचन किया गया है। ७. इसी प्रकार जो कर्म एक शरीर विशेष में हमारी आयु मर्यादा को जब तपस्या द्वारा आत्मा की आसक्ति और कर्म-मल समाप्त हो निश्चित करता है, उसे आयुष्यकर्म कहते हैं। ८. अन्त में जिस जाते हैं तो आत्मा की अनन्त ज्ञान आदि क्षमताएँ प्रकट हो जाती कर्म द्वारा हमें प्राप्त होने वाली उपलब्धियों में बाधा हो वह अन्तराय- हैं। आसक्ति और कर्म-मल का क्षय होकर आध्यात्मिक शक्तियों का कर्म है।
पूर्ण प्रकटन ही जैन धर्म में मुक्ति या निर्वाण है। इसे ही परमात्मदशा जैन दर्शन के अनुसार इन कर्मों के वश होकर प्राणी संसार की प्राप्ति भी कहते हैं। जब आत्मा कर्म-मल से रहित पूर्ण निर्ममत्व में जन्म-मरण करता है और सांसारिक सुख-दुःख की अनुभूति एवं निरावरण अवस्था को प्राप्त कर लेता है और अपने आत्म स्वरूप करता है।
में लीन हो जाता है, तो वही परमात्मा बन जाता है। आत्मा को परमात्मा जैन धर्म का प्रयोजन आत्मा को इस कर्म-मल से मुक्त कर विशुद्ध की अवस्था तक पहुँचाना ही जैन साधना का मूल प्रयोजन है। बनाना है। इसके लिए संवर का उपदेश दिया गया है। जिस प्रकार कमरे की खिड़कियाँ खुली रहने पर उसमें धूल के आगमन को नहीं आत्मा और परमात्मा रोका जा सकता है, उसी प्रकार जब आत्मा की इन्द्रियाँ रूपी खिड़कियाँ आत्मा की विभावदशा अर्थात् उसकी विषय-वासनाओं में आसक्ति खुली हों तो, उसमें कर्म-रज रूपी मल के आगमन को रोका नही या रागभाव ही उसका बन्धन है। अपने इस रागभाव, आसक्ति या जा सकता है। अत: आत्मविशुद्धि के लिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति ममता को तोड़ने का जो प्रयास है, वह साधना है और उस आसक्ति, इन इन्द्रियरूपी खिड़कियों को बन्द करें अर्थात् इन्द्रियों का संयम करें। ममत्व या रागभाव का टूट जाना ही मुक्ति है, यही आत्मा का परमात्मा जैन धर्म में इन्द्रिय संयम का मतलब यह नहीं हैं कि इन्द्रियों की बन जाना है। जैन साधकों ने आत्मा की तीन अवस्थाएँ मानी हैंप्रवृत्ति ही न होने दी जाये। महावीर स्वामी ने कहा था कि इन्द्रियों
१. बहिरात्मा २. अन्तरात्मा और ३. परमात्मा। एवं उनके विषयों की उपस्थिति की दशा में इन्द्रियों का अपने विषयों सन्त आनन्दघन जी कहते हैंसे सम्पर्क न हो, यह सम्भव नहीं है। संयम का तात्पर्य है इन ऐन्द्रिक त्रिविध सकल तनुधर गत आतमा, बहिरातम अधरूप सुज्ञानी। विषयों की अनुभूति की दशा में हमारा चित्त राग-द्वेष की वृत्ति से बीजो अन्तर आतमा तीसरो परमातम अविच्छेद सुज्ञानी।। आक्रान्त न हो। सतत् अभ्यास द्वारा जब ऐन्द्रिक अनुभूतियों में चित्त विषय-भोगों में उलझा हुआ आत्मा बहिरात्मा है। संसार के विषयअनासक्त रहना सीख जाता है तो संयम की साधना सफल होती है। भोगों से उदासीन साधक अन्तरात्मा है और जिसने अपनी विषय
जब तक चित्त में पुराने कर्म-मल उपस्थित हैं तब तक आध्यात्मिक वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लिया है, जो विषय-विकार से रहित विशुद्धि सम्भव नहीं। इसके लिए जैन धर्म में निर्जरा की बात कही अनन्त चतुष्टय से युक्त होकर ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थित है, वह
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