________________
३३७
जैन धर्म के मूलतत्त्व परमात्मा है।
___के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर लेता है, उसी प्रकार आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर कहा । साधक परमात्मा के गुणकीर्तन या स्तवन के द्वारा निज में जिनत्व गया है
की शोध कर लेता है, स्वयं में निहित परमात्मशक्ति को प्रकट कर 'अप्पा सो परमप्पा'।
लेता है। जैन साधना यह स्वीकार करती है कि भगवान् की स्तुति आत्मा ही परमात्मा है।
प्रसुप्त अन्तश्चेतना को जाग्रत करती है और हमारे सामने साधना के प्रत्येक प्राणी/ प्रत्येक चेतनसत्ता परमात्मा स्वरूप है। आदर्श का एक जीवन्त चित्र उपस्थित करती है। इतना ही नहीं, वह
मोह और ममता के कोहरे में हमारा वह परमात्म स्वरूप छुप उस आदर्श की प्राप्ति के लिए प्रेरणा भी बनती है। फिर भी जैन गया है। जैसे बादलों के आवरण में सूर्य का प्रकाशपुंज छिप जाता मान्यता तो यह है कि व्यक्ति अपने ही प्रयत्नों से आध्यात्मिक उत्थान है और अन्धकार घिर जाता है, उसी प्रकार मोह-ममता और राग- या पतन कर सकता है। स्वयं पाप से मुक्त होने का प्रयत्न न करके द्वेष रूपी आवरण से आत्मा का अनन्त आनन्द स्वरूप तिरोहित हो केवल भगवान् से मुक्ति की प्रर्थना करना, जैन-विचारणा की दृष्टि से जाता है तथा जीव दु:ख और पीड़ा से भर जाता है।
सर्वथा निरर्थक है। ऐसी विवेकशून्य प्रार्थनाओं ने मानव जाति को आत्मा और परमात्मा में स्वरूपत: भेद नहीं है। धान और चावल सब प्रकार से दीन, हीन एवं परापेक्षी बनाया है। जब मनुष्य किसी एक ही है, अन्तर मात्र इतना है कि एक आवरण सहित है और दूसरा ऐसे उद्धारक में विश्वास करने लगता है, जो उसकी स्तुति से प्रसन्न निरावरण। इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा एक ही है, फर्क केवल होकर उसे पाप से उबार लेगा, तो ऐसी निष्ठा से सदाचार की मान्यताओं कर्म रूप आवरण का है।
को गहरा धक्का लगता है। जैन विचारकों की यह स्पष्ट मान्यता है जिस प्रकार धान के सुमधुर भात का आस्वादन तभी प्राप्त हो कि केवल परमात्मा की स्तुति करने से मोक्ष एवं समाधि की प्राप्ति सकता है जब उसका छिलका उतार दिया जावे, उसी प्रकार अपने नहीं होती, जब तक कि मनुष्य स्वयं उसके लिए प्रयास न करे। मुक्ति ही परमात्मस्वरूप की अनुभूति तभी सम्भव है, जब हम अपनी चेतना या परमात्मदशा की प्राप्ति के लिये साधना अपेक्षित है। से मोह-ममता और राग-द्वेष की खोल को उतार फेकें। छिलके सहित धान के समान मोह-ममता की खोल में जकड़ी हुई चेतना बद्धात्मा त्रिविध साधनामार्ग है और छिलके-रहित शुद्ध शुभ्र चावल के रूप में निरावरण शुद्ध जैनदर्शन में मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध साधनामार्ग बताया चेतना परमात्मा है। कहा है
गया है। तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यग्चरित्र को सिद्धा जैसो जीव है, जीव सोय सिद्ध होय।
मोक्षमार्ग कहा गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, कर्म मैल का आंतरा, बूझे बिरला कोय।।
सम्यग्चरित्र और सम्यग्तप ऐसे चतुर्विध मोक्षमार्ग का भी विधान है, मोह-ममता रूपी परदे को हटाकर उस पार रहे हुए अपने ही किन्तु जैन आचार्यों ने तप का अन्तर्भावचारित्र में करके इस त्रिविध परमात्मस्वरूप का दर्शन सम्भव है। हमें प्रयत्न परमात्मा को पाने का साधनामार्ग को ही मान्य किया है। नहीं, इस परदे को हटाने का करना है, परमात्मा तो उपस्थित है ही। कुछ भारतीय विचारकों ने इस त्रिविध साधनामार्ग के किसी एक हमारी गलती यही है कि हम परमात्मस्वरूप को प्राप्त करना तो चाहते ही पक्ष को मोक्ष की प्राप्ति का साधन मान लिया है। आचार्य शंकर हैं, किन्तु इस आवरण को हटाने का प्रयास नहीं करते। हमारे प्रयत्नों मात्र ज्ञान से और रामानुज मात्र भक्ति से मुक्ति की संभावना को स्वीकार की दिशा यदि सही हो तो अपने में ही निहित परमात्मा का दर्शन करते हैं। लेकिन जैन दार्शनिक ऐसी किसी एकान्तवादिता में नहीं दूर नहीं है। हमारा दुर्भाग्य तो यही है कि आज स्वामी ही दास बना गिरते हैं। उनके अनुसार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत साधना हुआ है। हमें अपनी क्षमता का अहसास ही नहीं है। किसी उर्दू शायर ही मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। इनमें से किसी एक के अभाव में ने ठीक ही कहा है
मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार दर्शन के इन्सा की बदबख्ती अंदाज से बाहर है।
बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के अभाव में आचरण सम्यक् नहीं कमबख्त खुदा होकर बंदा नज़र आता है।।
होता है और सम्यक्-आचरण के अभाव में मुक्ति भी नहीं होती है। जैन धर्म में परमात्मा की अवधारणा एक आदर्श पुरुष के रूप इस प्रकार मुक्ति की प्राप्ति के लिए तीनों ही अंगों का होना में की गयी है। परमात्मा न तो किसी को मुक्ति देता है और न दण्ड आवश्यक हैं। ही। परमात्मा की स्तुति का प्रयोजन मात्र अपने शुद्ध स्वरूप का बोध करना है। जैन दर्शन में भक्ति के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करते हुए सम्यग्दर्शन उपाध्याय देवचन्द्रजी लिखते है
जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन आत्म-साक्षात्कार, तत्त्वश्रद्धा, अज-कुल-गत केशरी लहेरे, निज पद सिंह निहार।
अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अनेक अर्थों को अपने तिम प्रभु भक्ति भवी लहेरे, आतम शक्ति संभार।। में समेटे हुए है। सम्यग्दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्त्वार्थ-श्रद्धा, जिस प्रकार अज कुल में पालित सिंहशावक वास्तविक सिंह उसमें वास्तविकता की दृष्टि से अधिक अन्तर नहीं होता है। अन्तर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org