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श्रावक आचार की प्रासङ्गिकता का प्रश्न
३२९ वस्त्राभूषण धारण करना। (१३) आय से अधिक व्यय न करना और (परोपकारी) और (२१) लब्धलक्ष्य (जीवन के साध्य का ज्ञाता)। अयोग्य क्षेत्र में व्यय न करना। आय के अनुसार वस्त्र पहनना। (१४) पं० आशाधर जी ने अपने ग्रंथ सागार-धर्मामृत में निम्न गुणों धर्मश्रवण की इच्छा रखना, अवसर मिलने पर श्रवण करना, शास्त्रों का निर्देश किया है: (१) न्यायपूर्वक धन का अर्जन करने वाला, का अध्ययन करना, उन्हें स्मृति में रखना, जिज्ञासा से प्रेरित होकर (२) गुणीजनों को माननेवाला, (३) सत्यभाषी, (४) धर्म, अर्थ और शास्त्रचर्चा करना, विरुद्ध अर्थ से बचना, वस्तुस्वरूप का परिज्ञान प्रापत काम (त्रिवर्ग) का परस्पर विरोधरहित सेवन करनेवाला, (५) योग्य करना और तत्त्वज्ञ बनना बुद्धि के इन आठ गुणों को प्राप्त करना। स्त्री, (६) योग्य स्थान (मोहल्ला), (७) योग्य मकान से युक्त, (८) (१५) धर्मश्रवण करके जीवन को उत्तरोत्तर उच्च और पवित्र बनाना। लज्जाशील, (९) योग्य आहार, (१०) योग्य आचरण, (११) श्रेष्ठ (१६) अजीर्ण होने पर भोजन न करना, यह स्वास्थ्यरक्षा का मूल पुरुषों की संगति, (१२) बुद्धिमान्, (१३) कृतज्ञ, (१४) जितेन्द्रिय, मन्त्र है। (१७) समय पर प्रमाणोपेत भोजन करना, स्वाद के वशीभूत (१५) धर्मोपदेश श्रवण करने वाला, (१६) दयालु, (१७) पापों से हो अधिक न खाना। (१८) धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का इस डरने वाला-ऐसा व्यक्ति सागारधर्म (गृहस्थ धर्म) का आचरण करे। प्रकार सेवन करना कि जिससे किसी में बाधा उत्पन्न न हो। धनोपार्जन पं० आशाधर जी ने जिन गुणों का निर्देश किया है उनमें से अधिकांश के बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता और गृहस्थ काम-पुरुषार्थ का का निर्देश दोनों पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा किया जा चुका है। भी सर्वथा त्यागी नहीं हो सकता, तथापि धर्म को बाधा पहुँचा कर उपर्युक्त विवेचना से जो बात अधिक स्पष्ट होती है, वह यह अर्थ-काम का सेवन न करना चाहिए। (१९) अतिथि, साधु और दीन है कि जैन आचार-दर्शन मनुष्य जीवन के व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा जनों को यथायोग्य दान देना। (२०) आग्रहशील न होना। (२१) करके नहीं चलता। जैनाचार्यों ने जीवन के व्यावहारिक पक्ष को गहराई सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य आदि गुणों को प्राप्त करने के लिए से परखा है और उसे इतना सुसंस्कृत बनाने का प्रयास किया है कि प्रयत्नशील होना। (२२) अयोग्य देश और अयोग्य काल में गमन जिसके द्वारा व्यक्ति इस जगत् में भी सफल जीवन जी सकता है। न करना। (२३) देश, काल, वातावरण और स्वकीय सामर्थ्य का यही नहीं, इन सद्गुणों में से अधिकांश का सम्बन्ध हमारे सामाजिक विचार करके ही कोई कार्य प्रारम्भ करना। (२४) आचारवृद्ध और जीवन से है। वैयक्तिक जीवन में इनका विकास सामाजिक जीवन के ज्ञानवृद्ध पुरुषों को अपने घर आमन्त्रित करना, आदरपूर्वक बिठलाना, मधुर सम्बन्धों का सृजन करता है। ये वैयक्तिक जीवन के लिए जितने सम्मानित करना और उनकी यथोचित सेवा करना। (२५) माता-पिता, उपयोगी हैं, उससे अधिक सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक हैं। पत्नी, पुत्र आदि आश्रितों का यथायोग्य भरण-पोषण करना, उनके जैनाचार्यों के अनुसार ये आध्यात्मिक साधना के प्रवेशद्वार हैं। साधक विकास में सहायक बनना। (२६) दीर्घदर्शी होना। किसी भी कार्य इनका योग्य रीति से आचरण करने के बाद ही अणुव्रतों और महाव्रतों को प्रारम्भ करने के पूर्व ही उसके गुणावगुण पर विचार कर लेना। की साधना की दिशा में आगे बढ़ सकता है। (२७) विवेकशील होना। जिसमें हित-अहित, कृत्य-अकृत्य का विवेक नहीं होता, उस पशु के समान पुरुष को अन्त में पश्चात्ताप करना पड़ता श्रावक के बारह व्रतों की प्रासंगिकता है। (२८) गृहस्थ को कृतज्ञ होना चाहिए। उपकारी के उपकार को जैनधर्म में श्रावक के निम्न बारह व्रत हैंविस्मरण कर देना उचित नहीं। (२९) अहंकार से बचकर विनम्र होना। (१) अहिंसा-अणुव्रत (३०) लज्जाशील होना। (३१) करुणाशील होना। (३२) सौम्य होना। (२) सत्य-अणुव्रत (३३) यथाशक्ति परोपकार करना। (३४) काम, क्रोध, मोह, मद और (३) अचौर्य-अणुव्रत मात्सर्य, इन आन्तरिक रिपुओं से बचने का प्रयत्न करना और (३५) (४) स्वपत्नी-संतोषव्रत इन्द्रियों को उच्छंखल न होने देना। इन्द्रियविजेता गृहस्थ ही धर्म की (५) परिग्रह-परिमाण व्रत आराधना करने की पात्रता प्राप्त करता है।
(६) दिक्-परिमाण व्रत आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रवचनसारोद्धार में भिन्न रूप से श्रावक के (७) उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत २१ गुणों का उल्लेख किया है और यह माना है कि इन २१ गुणों (८) अनर्थदण्ड-विरमण व्रत को धारण करने वाला व्यक्ति ही अणुव्रतों की साधना का पात्र होता (९) सामायिक व्रत है। आचार्य द्वारा निर्देशित श्रावक के २१ गुण निम्न हैं:-(१) अक्षुद्रपन (१०) देशावकासिक व्रत (विशाल-हृदयता), (२) स्वस्थता, (३) सौम्यता, (४) लोकप्रियता, (११) प्रोषधोपवास व्रत (५) अक्रूरता, (६) पापभीरुता, (७) अशठता, (८) सुदक्षता (१२) अतिथि-संविभाग व्रत (दानशीलता), (९) लज्जाशीलता, (१०) दयालुता, (११) गुणानुरागता, अंहिसा-अणुव्रत-गृहस्थोपासक संकल्पपूर्वक त्रसप्राणियों (चलने (१२) प्रियसम्भाषण या सौम्यदृष्टि, (१३) माध्यस्थवृत्ति, (१४) फिरने वाले) की हिंसा का त्याग करता है। हिंसा के चार रूप हैंदीर्घदृष्टि, (१५) सत्कथक एवं सुपक्षयुक्त, (१६) नम्रता, (१७) १. आक्रामक (संकल्पी), २. सुरक्षात्मक (विरोधजा), ३. औद्योगिक विशेषज्ञता, (१८) वृद्धानुगामी, (१९) कृतज्ञ, (२०) परहितकारी (उद्योगजा), ४. जीवन-यापन के अन्य कार्यों में होने वाली (आरम्भजा)।
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