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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ में मध्य होने वाला वर्ग-संघर्ष इसी लोभवृत्ति या संग्रह वृत्ति का परिणाम १. द्यूत-क्रीड़ा (जुआ), २. मांसाहार, ३. मद्यपान,४. वेश्यागमन, है। आज जैन समाज में अपरिग्रह की अवधारणा का कोई अर्थ ही ५. परस्त्रीगमन, ६. शिकार और. ७. चौर्य-कर्म। नहीं रह गया है। उसे केवल मुनियों के सन्दर्भ में ही समझा जाने उपर्युक्त सप्त दुर्व्यसनों के सेवन से व्यक्ति का कितना चारित्रिक लगा है। जैन धर्म में गृहस्थोपासक के लिए धनार्जन का निषेध नहीं पतन होता है, इसे हर कोई जानता है। किया गया, पर यह अवश्य कहा गया है कि व्यक्ति को एक सीमा १. धूत-क्रीड़ा-वर्तमान युग में सट्टा, लाटरी आदि द्यूत-क्रीड़ा से अधिक संचय नहीं करना चाहिए। उसकी संचयवृत्ति या लोभ पर के विविध रूप प्रचलित हो गये हैं। इनके कारण अनेक परिवारों का नियन्त्रण होना चाहिए। आज समाज में जो आर्थिक वैषम्य बढ़ता जा जीवन संकट में पड़ जाता है। अत: इस दुर्व्यसन के त्याग को कौन रहा है, उसके पीछे अनियन्त्रित लोभ या संग्रह-वृत्ति ही मुख्य है। अप्रासंगिक कह सकता है। द्यूत-क्रीड़ा के त्याग की प्रासंगिकता के यदि धनार्जन के साथ ही व्यक्ति की अपने भोग की वृत्ति पर अकुंश सम्बन्ध में कोई भी विवेकशील मनुष्य दो मत नहीं हो सकता। वस्तुत: होता है और संग्रह-वृत्ति का परिसीमन होता है, तो वह अर्जित धन वर्तमान युग में घूत-क्रीड़ा के जो विविध रूप हमारे सामने उभर कर का प्रवाह लोक-मंगल के कार्यों में बहता है, जिससे सामाजिक आये हैं, उनका आधार केवल मनोरंजन नहीं है, अपितु उसके पीछे सौहार्द और सहयोग बढ़ता है तथा धनवानों के प्रति अभावग्रस्तों के बिना किसी श्रम के अर्थोपार्जन की दुष्प्रवृत्ति है। सट्टे के व्यवसाय मन में सद्भाव उत्पन्न होता है। जैन धर्म के इतिहास में ऐसे अनेक का प्रवेश जैन परिवारों में सर्वाधिक हुआ है। व्यक्ति जब इस प्रकार श्रावक रत्नों के उदाहरण हैं, जिन्होंने अपनी समग्र सम्पत्ति को के धन्धे में अपने को नियोजित कर लेता है, तो श्रमपूर्वक अर्थोपार्जन समाज-हित में समर्पित कर दी, आज उसी आदर्श के पुनर्जागरण की के प्रति उसकी निष्ठा समाप्त हो जाती है। ऐसी स्थिति में चोरी, ठगी आवश्यकता है।
आदि दूसरी बुराइयाँ पनपती हैं। आज इसके प्रकट-अप्रकट विविध संक्षेप में सामाजिक जीवन में जो भी विषमता और संघर्ष वर्तमान रूप हमारे समक्ष आ रहे हैं। उनसे सतर्क रहना आवश्यक है, अन्यथा में हैं, उन सबके पीछे कहीं न कहीं अनियन्त्रित आवेश, अहंकार, हमारी भावी पीढ़ी में श्रमपूर्वक अर्थोपार्जन की निष्ठा समाप्त हो जावेगी। छल-छद्म (कपट-वृत्ति) तथा संग्रह-वृत्ति है। इन्हीं अनियन्त्रित कषायों यद्यपि इस दुर्गुण का प्रारम्भ एक मनोरंजन के साधन के रूप में होता के कारण सामाजिक जीवन में विषमता और अशान्ति उत्पन्न होती है, किन्तु आगे चलकर यह भयंकर परिणाम उपस्थित करता है। जैन है। आवेश या अनियन्त्रित क्रोध के कारण पारस्परिक संघर्ष, आक्रमण, समाज के सम्पन्न परिवारों में और विवाह आदि के प्रसंगों पर इसका युद्ध एवं हत्याएँ होती हैं। आवेशपूर्ण व्यवहार दूसरों के मन में अविश्वास जो प्रचलन बढ़ता जा रहा है, उसके प्रति हमें एक सजग दृष्टि रखनी उत्पन्न करता है। और फलत: सामान्य जीवन में जो सौहार्द होना चाहिए, हागी, अन्यथा इसके दुष्परिणामों को भुगतना होगा; आज का युवावर्ग वह भंग हो जाता है। वर्ग या अहंकार की मनोवृत्ति के कारण ऊँच-नीच जो इन प्रवृत्तियों में अधिक रस लेता है, इसके दुष्परिणामों को जानते का भेद-भाव, पारस्परिक-घृणा और विद्वेष पनपते हैं। सामाजिक जीवन हुए भी अपनी भावी पीढ़ी को इससे रोक पाने में असफल रहेगा। में जो दरारें उत्पन्न होती हैं, उनका आधार अहंकार ही होता है। माया २. मांसाहार-विश्व में यदि शाकाहार का पूर्ण समर्थक कोई या कपट की मनोवृत्ति भी जीवन को छल-छद्म से युक्त बनाती है। धर्म है, तो वह मात्र जैन-धर्म है। जैनधर्म में गृहस्थोपासक के लिए इससे जीवन में दोहरापन आता है तथा अन्त:-बाह्य की एकरूपता मांसाहार सर्वथा त्याज्य माना गया है। किन्तु आज समाज में मांसाहार समाप्त हो जाती है। फलत: मानसिक एवं समाजिक शांति भंग होती के प्रति एक ललक बढ़ती जा रही है और अनेक जैन परिवारों में है। संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण और व्यावसायिक जीवन में उसका प्रवेश हो गया है। अत: इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा करना अप्रमाणिकता फलित होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अति आवश्यक है। श्रावक-जीवन में कषाय-चतुष्टय पर जो नियन्त्रण लगाने की बात कही मांसाहार के निषेध के पीछे मात्र हिंसा और अहिंसा का प्रश्न गई है, वह सौहार्द एवं सामञ्जस्यपूर्ण जीवन एवं मानसिक तथा सामाजिक ही नहीं, अपितु अन्य दूसरे भी कारण हैं। यह सत्य है कि मांस का शान्ति के लिये आवश्यक है। उसकी प्रासंगिकता कभी भी नकारी उत्पादन बिना हिंसा के सम्भव नहीं है और हिंसा क्रूरता के बिना सम्भव नहीं जा सकती है।
नहीं है। यह सही है कि मानवीय आहार के अन्य साधनों में भी किसी
सीमा तक हिंसा जुड़ी हुई है, किन्तु मांसाहार के निमित्त जो हिंसा सप्त दुर्व्यसन-त्याग और उसकी प्रासंगिकता
या वध किया जाता है, उसके लिए वध-कर्ता का अधिक क्रूर होना सप्त दुर्व्यसनों का त्याग गृहस्थ-धर्म की साधना का प्रथम चरण अनिवार्य है। क्रूरता के कारण दया, करुणा, आत्मीयता जैसे कोमल है। उनके त्याग को गृहस्थ-आचार के प्राथमिक नियम या मूल गुणों गुणों का ह्रास होता है और समाज में भय, आतंक एवं हिंसा का के रूप में स्वीकार किया गया है। 'वसुनन्दि-श्रावकाचार' में सप्त ताण्डव प्रारम्भ हो जाता हैं। यह अनुभूत सत्य है कि वे सभी देश दुर्व्यसनों के त्याग का विधान किया है। आज भी दुर्व्यसन-त्याग एवं कौमें, जो मांसाहारी हैं और हिंसा जिनके धर्म का एक अंग मान गृहस्थ-धर्म का प्राथमिक एवं अनिवार्य चरण माना जाता है। सप्त लिया गया है, उनमें होने वाले हिंसक-ताण्डव को देखकर आज भी दुर्व्यसन निम्न है
दिल दहल उठता है। मुस्लिम राष्ट्रों में आज मनुष्य के जीवन का
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