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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
१८६ स्वयं दृष्टि भी मूल्य-बोध से प्रभावित होती है। इस प्रकार मूल्य-बोध मानते हैं। भौतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की श्रेष्ठता अथवा कनिष्ठता और मनुष्य की जीवन-दृष्टि परस्पर सापेक्ष हैं। अरबन का यह कथन कि के सम्बन्ध में भी जो मतभेद हैं वे सभी दृष्टि-सापेक्ष ही हैं। वस्तुत: जो मूल्यांकन मूल्य को निर्धारित नहीं अपितु मूल्य ही अपनी पूर्ववर्ती किसी एक दृष्टि से सर्वोच्च मूल्य हो सकता है वही दूसरी दृष्टि से निम्न वस्तुनिष्ठता के द्वारा मूल्यांकन को प्रभावित करते हैं, आंशिक सत्य ही मूल्य भी सिद्ध हो सकता है। बलवत्ता या तीव्रता की दृष्टि से जहाँ कहा जा सकता है। मूल्य न तो पूर्णतया वस्तुतन्त्र है और न आत्मतन्त्र जैविक मूल्य सर्वोच्च ठहरते हैं, वहीं विवेक एवं संयम की दृष्टि से ही। हमारा मूल्य-बोध आत्म और वस्तु दोनों से प्रभावित होता है। आध्यात्मिक एवं अतिजैविक मूल्य उच्चतर माने जा सकते हैं। पुनः, सौंदर्य-बोध में, काव्य के रस-बोध में आत्मनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता किसी एक ही दृष्टि के आधार पर मूल्यों की तरतमता का निर्धारण भी के इन दोनों पक्षों को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। सौंदर्य-बोध सम्भव नहीं है, क्योंकि मूल्य और मूल्य-दृष्टियाँ बहु-आयामी हैं, वे अथवा काव्य की रसानुभूति न पूरी तरह कृति-सापेक्ष है, न पूरी तरह एक-रेखीय न होकर बहुरेखीय हैं। एक मूल्य पर एक दृष्टि से विचार आत्म-सापेक्ष। इस प्रकार हमें यह मानना होगा कि मूल्यांकन करने किया जा सकता है। इस प्रकार मूल्य-बोध और उनकी तरतमता का वाली चेतना और मूल्य दोनों ही एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं। बोध दृष्टि-सापेक्ष है और वह दृष्टि-चेतना के विविध पहलुओं के मूल्यांकन की प्रक्रिया में दोनों परस्पराश्रित हैं। एक ओर मूल्य अपनी बलाबल पर निर्भर करता है। पुनश्च, चेतना के वासनात्मक और मूल्यवत्ता के लिए चेतन सत्ता की अपेक्षा करते हैं दूसरी ओर चेतन विवेकात्मक पहलुओं में कब, कौन, कितना बलशाली होगा यह बात सत्ता मूल्य-बोध के लिए किसी वस्तु, कृति या घटना की अपेक्षा करती भी आंशिक रूप से देश-काल और परस्थितियों पर निर्भर होगी और है। मूल्य न तो मात्र वस्तुओं से प्रकट होते हैं और न मात्र आत्मा से। आंशिक रूप से व्यक्ति के संस्कार और मूल्य-दृष्टि पर भी। इस प्रकार अत: मूल्य-बोध की प्रक्रिया को समझाने में विषयीतंत्रता या वस्तुतंत्रता यह कहा जा सकता है कि मूल्य-बोध मूल्य-दृष्टि पर निर्भर करता है ऐकांतिक धारणाएँ है। मूल्य का प्रकटीकरण चेतना और वस्तु (यहाँ और मूल्य-दृष्टि स्वयं मूल्य-बोध पर। वे अन्योन्याश्रित हैं, बीज-वृक्ष वस्तु में कृति या घटना अन्तर्भूत हैं) दोनों के संयोग में होता है। पेरी न्याय के समान उनमें से किसी की पूर्वतया-प्राथमिकता का निश्चय कर सीमा तक सत्य के निकट हैं जब वे यह कहते हैं कि मूल्य वस्तु और पाना कठिन है। विचार के ऐच्छिक सम्बन्ध में प्रकट होते हैं।
अरबन का आध्यात्मिक मूल्यवाद और भारतीय मूल्य दर्शन मूल्यों की तरतमता का प्रश्न
अरबन के अनुसार मूल्यांकन एक निर्णयात्मक प्रक्रिया है, मूल्य-बोध के साथ जुड़ा हुआ दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न जिसमें सत् के प्रति प्राथमिक विश्वासों के ज्ञान का तत्त्व भी होता है। है, मूल्यों के तारतम्य का बोध। हमें केवल मूल्य-बोध नहीं होता अपितु इसके साथ ही उसमें भावात्मक तथा संकल्पात्मक अनुक्रिया भी है। मूल्यों के उच्चावच क्रम का या उनकी तरतमता का भी बोध होता है। मूल्यांकन संकल्पात्मक प्रक्रिया का भावपक्ष है। अरबन मूल्यांकन की वस्तुत: हमें मूल्य का नहीं अपितु मूल्यों का, उनकी तरतमता-सहित प्रक्रिया में ज्ञानपक्ष के साथ-साथ भावना एवं संकल्प की उपस्थिति भी बोध होता है। हम किसी भी मूल्य-विशेष का बोध मूल्य-विश्व में ही आवश्यक मानते हैं। मूल्यांकन में निरन्तरता का तत्त्व उनकी प्रामाणिकता करते हैं, अलग एकाकी रूप में नही। अत: किसी मूल्य के बोध के का आधार है। जितनी अधिक निरन्तरता होगी उतना ही अधिक वह समय ही उसकी तरतमता का भी बोध हो जाता है। किन्तु यह तरतमता प्रामाणिक होगा। मूल्यांकन और मूल्य में अन्तर स्पष्ट करते हुए अरबन का बोध भी दृष्टि-निरपेक्ष नहीं होकर दृष्टि-सापेक्ष होता है। हम कुछ कहते हैं कि मूल्यांकन मूल्य को निर्धारित नही करता, वरन् मूल्य ही मूल्यों को उच्च मूल्य और कुछ मूल्यों को निम्न मूल्य कहते हैं किन्तु अपनी पूर्ववर्ती वस्तुनिष्ठता के द्वारा मूल्यांकन को निर्धारित करते हैं। मूल्यों की इस उच्चावचता या तरतमता का निर्धारण कौन करता है? अरबन के अनुसार मूल्य न कोई गुण है, न वस्तु और न क्या मूल्यों की अपनी कोई ऐसी व्यवस्था है जिसमें निरपेक्ष रूप से सम्बन्ध। वस्तुत: मूल्य अपरिभाष्य है तथापि उसकी प्रकृति को उसके उसकी तरमता का बोध हो जाता है? यदि मूल्यों की तरतमता की कोई सत्ता से सम्बन्ध के आधार पर जाना जा सकता है। वह सत्ता और ऐसी वस्तुनिष्ठ व्यवस्था होती है तो फिर तरतमता सम्बन्धी हमारे असत्ता के मध्य स्थित है। अरबन मिनांग के समान उसे वस्तुनिष्ठ विचारों में मतभेद नहीं होता। किन्तु स्थिति ऐसी नहीं है। अत: स्पष्ट है कहता है, किन्तु उसका अर्थ 'होना चाहिए' (Ought to be) में है। कि मूल्यों की तरतमता का बोध भी दृष्टि-सापेक्ष है।
मूल्य सदैव अस्तित्व का दावा करते हैं, उनका सत् होना इसी पर भारतीय परम्परा में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की मूल्य- निर्भर है कि सत् को ही मूल्य के उस रूप में विवेचित किया जाये, दृष्टियों की विविधता मूल्य-बोध की सापेक्षता को ही सूचित करती है। जिसमें सत्ता और अस्तित्व भी हो। पश्चिम में भी सत्य, शिव एवं सुन्दर के सम्बन्ध में इसी प्रकार का
मूल्य की वस्तुनिष्ठता के दो आधार हैं-प्रथम यह कि प्रत्येक दृष्टिभेद परिलक्षित होता है। कुछ लोग सत्य को परम मूल्य मानते हैं वस्तु विषय मूल्य की विधा में आता है और दूसरे प्रत्येक मूल्य उच्च तो दूसरे कुछ लोग शिव (कल्याण) को अथवा सुन्दर को परम मूल्य और निम्न के क्रम से स्थित है। अरबन के अनुसार मूल्यों की अनुभूति
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